मैं मुफलिसी हूं
मेरा इस शहर में अपना कोई घर नहीं,
मगर हर बेघर के घर मे रहती हूं
कुछ लोग अलग नाम से जताते हैं।
गरीबी, गुरबत, दरिद्रता भी कहते हैं
बेबसी, बेचारगी, नाउम्मीदी को,
हर बार मेरे साथ जोड़ते हैं
मैं मुफलिसी हूं।
मेरा इस शहर में अपना कोई घर नहीं
मैं महज़ एक रोटी का ख्वाब हूं,
सियासी वादों का ख्याली पुलाव हूं
मैं माँ के गठिये का दर्द हूं।
जवान बेटी के ब्याह का कर्ज़ हूं
पिताजी की बलगम वाली खांसी हूं,
शाम को मिली रोटी बासी हूं
मैं तपती दोपहर जेठ सी हूं।
उधार किसी सेठ सी हूं
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे की सीढ़ियां हूं,
महाजनों के द्वार पर घिसती एड़ियां हूं
मेैं भुवन का तीन गुना लगान हूं।
ज़मीदारो के हाथों लुटा
प्रेमचंद का गोदान हूं,
अक्सर ख्वाबों वाली ज़मीदारी हूं
एक कपड़े वाली माहवारी हूं।
सियासी भीड़ वाली टोली हूं
पसीने के रंग वाली होली हूं.
बिना मिठाई पटाखों कपड़ो वाली
महज़ तारीखों में आई दीवाली हूं।
दिनभर की मश्क्कत की
दो निवालों की कमाई हूं,
अपने आप से ना छोटी ना बड़ी
दोपहर की परछाई हूं।
ज़िंदगी कुछ यूं खत्म कर देती है
कहानी मेरी कोई खबर बताती है,
सपने रेल में कुचले जाते हैं
आंसू भूख पी जाती है।
हौसला खुद टूट जाता है
उम्मीद मौत छीन लेती है।