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कविता: “बसंत जगाता इश्क की सूफी जाग है”

बसंत तो हर बार आयेगा

कत्ल करो चाहे हज़ार बार

कातिलों, वह तुम्हारी औकात बतायेगा।

 

बसंत चिड़िया है

वह उड़ेगी फिर फिर पंख पसार

बिछाओ बहेलियों

मृत्यु-जाल चाहे जितनी बार।

 

बसंत तितली है

उसके पंखों में जो इंद्रधनुषी आभा है

उसे बिखेरने उसके रस्ते

कहां कोई सरहद; कोई बाघा है!

 

बसंत बाग है

उग आयेगी वह उन हर हथेलियों पर

जो बड़े जतन से तामीर करती हैं घर

परिंदों के घोसले सजाता है जैसे शजर

 

बसंत राग है

हर जवां दिलों में सुलगती आग है

कातिलों की बस्तियों में भी

जगाता इश्क की सूफी जाग है।

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