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हिन्दू राजाओं का ऐतिहासिक गढ़ चंद्रवार, कैसे बना जैन धमार्वलम्बियों का प्रसिद्ध तीर्थ?

हिन्दू राजाओं का ऐतिहासिक गढ़ चंद्रवार कैसे बना जैन धमार्वलम्बियों का प्रसिद्ध तीर्थ?

जनआधार कल्याण समिति के सचिव व लेखक प्रवीन कुमार शर्मा ने गहन अध्ययन व जनश्रुतियों के आधार पर उत्तर भारत के जनपद फिरोजाबाद यमुना बीहड़ क्षेत्र स्थित ग्राम चंद्रवाड़ में इतिहास के पन्नों से ऐतिहासिक घटनाओं के साथ साथ कुछ सुनी-अनसुनी और बहुत ही दिलचस्प व रोचक जानकारियों का संकलन कर, इस लेख के माध्यम से आप तक पहुंचाने का प्रयास किया है। वैसे, तो हमारा पूरा भारत देश ही आस्था, श्रद्धा और विश्वास का मुख्य केंद्र बिंदु है। यहां मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजाघर के साथ-साथ ऐसे कई ऐतिहासिक भवन व स्थल भी हैं, जहां हमेशा पर्यटकों और श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।  ब्रजमंडल क्षेत्र में ऐसा ही एक स्थान है, जो अपनी कांच की रंग-बिरंगी व कलात्मक चूड़ियों के लिए विश्व विख्यात है। जी हां, हम बात कर रहे हैं उत्तर भारत के जनपद फिरोजाबाद स्थित ग्राम चंद्रवाड़ की। यहां आज भी रणभूमि में टकराती हुई तलवारों की खनकदार आवाज़ें, बहादुर हिंदू राजपूत राजाओं के बलिदानी खून की खुशबू और बहादुरी की निशानियां क्षेत्र में यादों के रूप में मौजूद हैं। जहां चन्द्रवार के खण्डहरों और मिट्टी के ऊंचे-ऊंचे टीलों में, अतीत के पन्नों पर इतिहास की सैकड़ों कहानियां छिपी हुई हैं। चन्द्रवार का इतिहास अत्यंत प्राचीन व महाभारत कालीन है, तो,चलिए शुरू करते हैं चन्द्रवार की यात्रा के इस सुहाने ऐतिहासिक सफर को।

संक्षिप्त परिचय

इतिहासकारों के अनुसार, दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजपूत राजा चन्द्रसेन चौहान ने चन्द्रवार को बसाया था। ऐसा कहा जाता है कि हिंदू धर्म के परम अनुयायी राजपूत राजा चन्द्रसेन चौहान के समय में प्राप्त हुई विश्व की सबसे बेशकीमती, भव्य व विशाल भगवान चंद्राप्रभु की प्रतिमा और राजा का नाम चन्द्रसेन होने के कारण प्राचीन काल में इस क्षेत्र का नाम चन्द्रवार पड़ा है, जिसे आज भी चन्द्रवार और चंद्रवाड़ के नाम से जाना जाता है। कभी इसका नाम असाइखेड़ा हुआ करता था। इसके प्राचीन इतिहास को लेकर इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं। सन 1397 ई. में कवि धनपाल द्वितीय ने ग्रंथ “बाहुबली चरित” की रचना की, जिसमें उन्होंने चन्द्रवार को भगवान कृष्ण के पिता वासुदेव के काल की नगरी बताया था। हरिवंश पुराण में भगवान नेमिनाथ (जैन तीर्थंकर) की क्रीड़ा स्थली के रूप में इसका उल्लेख किया गया है। हरिवंश पुराण व महापुराणों के अनुसार, भगवान ऋषभदेव (जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर) ने अपने राज्य में 52 जनपदों की स्थापना की थी, जिसमें शूरसेन नाम के जनपद में एक अग्रवन था, जो यमुना तट पर मथुरा असाइखेड़ा चन्द्रवाड़ से शौरिपुर तक फैला हुआ था। यहां जैन धर्म राजधर्म के रूप में माना जाता था। सम्भवतः यह नगर दसवीं शताब्दी से पूर्व भी विद्यमान था, जिसे राजपूत राजा चन्द्रसेन चौहान ने अपनी राजधानी बनाकर राजनैतिक व आर्थिक महत्व प्रदान किया था। 996 ई. से 999 ई. तक राजपूत राजा चंद्रपाल चौहान के कार्यकाल में कई जैन प्रतिमाओं की भी स्थापना की गई।

मूर्तिकारों, कवियों व विद्वानों का राजा करते थे सम्मान

राजपूत राजा चन्द्रपाल चौहान सिर्फ वीर पराक्रमी शासक ही नहीं बल्कि धर्मात्मा, उदार और जिन भक्त भी थे। उनके यहां मूर्तिकला-विशारद कारीगर हमेशा रहते थे, जिनका कार्य सिर्फ जैन प्रतिमाओं का निर्माण करना था। इनके तैयार होने के बाद प्रतिमाओं को विधि-विधान से मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाता था।  विक्रम सम्वत 1053 में राजपूत राजा चन्द्रपाल चौहान ने स्वयं प्रतिष्ठा महोत्सव का आयोजन कराया था, जिसमें पारदर्शी स्फटिक मणि की पदमासन मुद्रा वाली डेढ़ फीट ऊंची श्री चन्द्रप्रभु एवं श्री विमलनाथ की प्रतिमाओं की स्थापना की थी। इनमें से विमलनाथ की प्रतिमा का अवशेष हमें नहीं मिला लेकिन चन्द्रप्रभु भगवान की वह सतिशय प्रतिमा फिरोजाबाद सिटी के प्रसिद्ध चन्द्रप्रभु जैन मंदिर में आज भी स्थापित है। इस मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित घंटाघर व छोटा चौराहा के मध्य प्राचीन अट्टावाला जैन मंदिर है, जहां विराजमान दो मूर्तियों में से एक पर “संवत 1153 जे.वदी त्रयोदशी लम्बकज्चु कान्वेय श्री चन्द्रदेव राज्य” और दूसरी पर “श्री संवत 1201 जे.वदी त्रयोदशी सोमे लम्बकज्चु कान्वेय साधु खुदालाहिपी के छत्रदेव चन्द्रेण प्रतिष्ठा पितत” अंकित है और सन 1173 में अपभ्रंश भाषा में भविष्यन्तु की रचना हुई है, जो इस बात का प्रमाण है कि चन्द्रदेव संवत 1201, सन 1145 में चन्द्रवार के राजा थे। उनके राज्य में भी जैन धर्म का प्रचार-प्रसार और कवियों व प्रबुद्ध व्यक्तियों को सम्मान व आश्रय प्राप्त था।

विदेशी आक्रांता का चन्द्रवार पर कहर

राजपूत राजा चन्द्रसेन के पुत्र राजा चन्द्रपाल चौहान के शासनकाल में जब महमूद गजनवी ने आक्रमण किया था, तब मुट्ठी भर सिपाहियों के साथ राजपूत राजा चन्द्रपाल वीरता पूर्वक लड़े। उन दिनों युद्ध में राजा चंद्रपाल चौहान को आभास हुआ कि अगर विधर्मियों ने इस नगर पर अधिकार कर लिया तो इतने सारे जिनबिम्बों की सुरक्षा कौन करेगा? ऐसा विचार करके राजा ने कई मूर्तियों को भूमि के अंदर दबा दिया व भगवान चन्द्रप्रभु की प्रतिमा व कई अन्य मूर्तियों को एक नाव में रखकर रानी और राजकुमार को यमुना मार्ग से बाहर निकाल दिया लेकिन नाव डूब जाने से सभी अथाह जल में डूब गए और मौहम्मद गौरी से युद्ध में हार जाने के बाद पुनः राजा ने चढ़ाई की और लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुए। राजा की मृत्यु होने पर मौहम्मद गौरी ने चंद्रवाड़ में भयंकर उत्पात मचाया। उसने सभी बची हुई मूर्तियों को खंडित कर दिया और सारी नगरी को लूटकर उजाड़ बना दिया। जीत के मद में चूर मौहम्मद गौरी ने क्रूरता से सभी मूर्तियों को क्षतिग्रस्त कर जैन मंदिरों को खण्डहर बना दिया और सब कुछ लूट लिया। उस स्थिति में श्रावक लोग अपने प्राण बचाकर भाग गए और काफी कुछ मूर्तियां भी अपने साथ ले गए, जो फिरोजाबाद के विभिन्न मंदिरों तथा यत्र-तत्र अन्य स्थानों पर आज भी प्रतिष्ठित हैं। तत्कालीन राजा ने राज्य छोड़ते समय अपने आराध्य देवों की मूर्तियों को यमुना बाबा बड़ी में छिपाकर सुरक्षित कर दिया था। ऐसी अनेक जैन मूर्तियां आज भी दिल्ली इटावा फिरोजाबाद के जैन मंदिरों में विराजमान हैं।

मूर्ति फिरोजाबाद कैसे पहुंची?

इस घटना के काफी समय पश्चात एक दिन लाला मूलचंद अग्रवाल जैन को सपना आया कि चन्द्रवाड़ में यमुना नदी में भगवान चन्द्रप्रभु का अत्यंत मनोहर प्रतिबिम्ब विराजमान है। प्रात: बेला में आए स्वप्न को सत्य मानकर लाला अपने परिवार व सधर्मी बन्धुजनों के साथ नदी तट पर पहुंचे तो पानी के तेज बहाव व गहराई को देख सभी वापस आ गए लेकिन वही स्वप्न फिर से आने पर सपने के अनुसार, श्रावक ने यमुना नदी में एक टोकरी में पुष्प भरकर प्रवाहित कर दिया थोड़ी दूर बहकर टोकरी स्थिर हो गई और यमुना जी का तीव्र बहाव शांत हो कर उसका जलस्तर केवल घुटने तक ही रह गया। जयकारों के बीच भक्तों ने जल के अन्दर से निकली भगवान चन्द्रप्रभु की स्फटिक वाली प्रतिमा के दर्शन किए और घेर खोखल के जैन मंदिर में श्रद्धालुओं के दर्शन हेतु रखवा दिया गया। चंद्रप्रभु मंदिर का निर्माण कार्य पूर्ण हो जाने के बाद भगवान चंद्रप्रभु की प्रतिमा को विधि-विधान व मंत्रोच्चारण के साथ स्थापित कराने के उद्देश्य से प्रतिमा को लेने के लिए जब पुजारी घेर खोखल पहुंचे तो मंदिर के लोगों ने प्रतिमा को वहीं रखा रहने देने का अनुरोध किया। इसके बाद सभी लोग बिना प्रतिमा लिए वापस आ गए। उसके बाद एक श्रावक को रात में स्वप्न आया तब, उसके बाद प्रतिमा को चंद्रप्रभु मंदिर में विधि-विधान से स्थापित किया गया।

इसके स्थापित होने के कुछ वर्षों के बाद भगवान चंद्रप्रभु की स्फटिक वाली बेशकीमती प्रतिमा चोरी हो गई, जिसे अज्ञात शातिर चोरों ने किसी भय से यमुना किनारे छोड़ दिया। एक दिन सामाजिक कार्यकर्ता हकीम प्रेमचंद्र की विधवा बहन जिसे नगरवासी बिट्टो बुआ के नाम से जानते थे, को स्वपन में प्रतिमा यमुना किनारे दिखाई दी।  जब सब लोग वहां पहुंचे तो देखा कि एक बार फिर से अतिशय हुआ है और हकीकत में स्वप्न साकार हो गया और जयकारों के साथ भगवान चंद्रप्रभु की स्फटिक वाली बेशकीमती प्रतिमा को मंत्रोच्चारण के साथ मन्दिर में पुनः स्थापित कर दिया गया।

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