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उच्च शिक्षण संस्थानों में किताबी ज्ञान के साथ अपने अधिकारों का प्रयोग कितनी बड़ी चुनौती है?

उच्च शिक्षण संस्थानों में किताबी ज्ञान के साथ अपने अधिकारों का प्रयोग कितनी बड़ी चुनौती है?

Information Is Knowledge And Knowledge Is Power यानि सूचनाओं को व्यवस्थित ढंग से प्राप्त करना ज्ञान है और ज्ञान हमें शक्ति देता है। शक्ति सवाल करने की अपने अधिकारों को समझने की, उनके बारे में बात करने की शक्ति, अपने व्यक्तित्व और समाज के विकास के लिए प्रयास करने की। 

हम ज्ञान की इसी ताकत को पाने के लिए आधारभूत शिक्षा ग्रहण कर उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेते हैं लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हम आज बढ़ती प्रतिस्पर्धा के दौर में कॉलेज /विश्वविद्यालयों में प्राप्त उच्च शिक्षा को नौकरी पाने और आजीविका का साधन ढूंढने से अधिक कुछ समझ रहे हैं या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम पढ़ाई, जो मानव मस्तिष्क के विकास का ज़रिया भी है उसके इस मूल उद्देश्य को हम भूलते जा रहे हैं?

शिक्षण संस्थानों और शिक्षकों का क्या है रवैया?

आज हमारा देश पिछले 5 वर्षों से लगातार वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में लगातार पिछड़ता जा रहा है। इसे मीडिया की स्वतंत्रता के साथ नागरिकों की अभिव्यक्ति पर भी खतरे के रूप में देखा जाता है। कुछ यही हाल हमारे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों का भी है, जहां के छात्र सवाल पूछते हैं तो उन्हें विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा गैर राष्ट्रविरोधी या नक्सल विचारधारा से प्रभावित बता दिया जाता है। 

अगर सवाल पूछने वाले विद्यार्थियों की संख्या बड़ी हो फिर उस संस्थान को ही बदनाम करने और उनके सवालों को दरकिनार करने का प्रयास किया जाता है। जाहिर तौर पर ऐसे विश्वविद्यालय और कॉलेज गिने-चुने हैं, जिन्हें निशाने पर लिया गया है तो ऐसे में सवाल यह है कि छोटे शहरों और कस्बों में वहां के शिक्षण संस्थानों के वर्तमान में क्या हालात हैं?

दरअसल, यहां भी सवाल पर प्रतिबंध या संस्थान के प्रशासन के अनुकूल सवाल पूछने का माहौल बनाने का प्रयास किया जाता है। वैसे, शिक्षक जिनकी ज़िम्मेदारी अपने विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को उचित समय सीमा में पूरा करके छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करने की हो। वे इस तर्क से अपने अधूरे काम को सही ठहराते हैं कि राज्य के अन्य विश्वविद्यालयों /कॉलेजों में भी तो विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम पूरे नहीं होते हैं।

ऐसे में बड़े छात्रों की ज़िम्मेदारी होती है कि शेष पाठ्यक्रम की शिक्षण सामग्री जुटा कर स्वयं अध्ययन करें और खुद को परीक्षा के लिए तैयार करें। ऐसे में सवाल यह है कि कितना पाठ्यक्रम संस्थान को पूरा करवाना होगा और कितने हिस्सों के पाठ्यक्रम का छात्र स्वयं अध्ययन करेंगे?

डीएवी पीजी कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ धनंजय यादव के अनुसार

यह सब बातें कही जाती हैं रेगुलर माध्यम से चलने वाले व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के संदर्भ में जिनकी फीस भी मोटी होती है। वह भी पटना कॉलेज जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में। इस मसले पर डीएवी पीजी कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ धनंजय यादव कहते हैं “जहां तक छात्रों के सवाल पूछने में चुनौती की बात है। इस बात से मैं पूर्णतः सहमत नहीं हूं। यह मानव का नैसर्गिक गुण है। ऐसे में हम शिक्षकों की ज़िम्मेदारी है कि छात्रों को सवाल पूछने के लिए प्रेरित करें, जिससे उनके मस्तिष्क का सम्पूर्ण विकास हो सके और उनमें चेतना और संवेदनशीलता आए।

अगर आप छात्रों के अधिकारों और अर्जित ज्ञान की बात करेंगे तो उन्हें इसके लिए स्वयं भी मुखर होने की ज़रूरत है, जो छात्र जिस विषय में गहन अध्ययन करते हों, उन्हें आगे बढ़ाते हुए कैम्पस और इससे बाहर के लोगों में बातचीत के माध्यम से जन जागरूकता लाने का प्रयास करना चाहिए। 

डीएवी पीजी कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ धनंजय यादव।

आज समाज में हम अक्सर देखते हैं कि कानून खीरा चोर को तो पकड़ लेता है लेकिन हीरा चोर तक उसके हाथ शायद ही पहुंचते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि कानून लागू करने वालों में ईमानदारी, निर्भीकता और निष्पक्षता का घोर अभाव होता है। इसमें बदलाव लाने के लिए हमें आम जनमानस में जन जागरूकता लाना बहुत ज़रूरी है। हां, कुछ शिक्षक जो अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करते उन्हें विद्यार्थियों के सवाल पूछने से परेशानी होती है, क्योंकि सवाल पूछने से उनकी जबावदेही तय होती है, जो होनी भी चाहिए।

जब नामचीन संस्थानों का यह हाल है, जहां शिक्षक और छात्र दोनों आकर बेहतर विकल्प मिलने पर खुशी जाहिर करते हैं फिर अन्य शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का क्या हाल होगा? यह आसानी से समझा जा सकता है कि आखिर कोई छात्र अच्छे संस्थान से पढ़ाई क्यों करना चाहता है? जाहिर तौर पर इसका जवाब अच्छी पढ़ाई और इससे संबंधित मिलने वाली वहां बेहतर सहूलियत होती हैं।  

सेल्फ फाइनेंस कोर्सेज में पढ़ाई और मूलभूत सुविधाओं का क्या है हाल?

पटना कॉलेज में पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले छात्र विकास कुमार बताते हैं, “दरअसल, असल समस्या हम छात्रों की निष्क्रियता है। पत्रकारिता की पढ़ाई में हमें सवाल पूछना सिखाया जाता है मगर कभी उपस्थिति तो कभी मौखिक परीक्षा में नंबर कम मिलने के डर से ज़्यादातर विद्यार्थी समस्याओं पर मुखर होकर सवाल नहीं करते हैं। कुछ छात्र जो सवाल करते हैं, उन्हें सराहने की बजाय विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा निशाने पर लिया जाता है और उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है।”

विश्वविद्यालय में उनकी छवि खराब की जाती है, उन्हें मातृ संस्थान को बदनाम करने वाला बताया जाता है।अब हम कॉलेज की समस्याओं और खामियों पर ही सवाल नहीं कर सकते तो फिर पत्रकारिता की पढ़ाई का क्या मतलब रह जाता है? यह तो वही बात हो जाएगी हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और होते हैं।

दूसरे छात्र संदीप कुमार बताते हैं, “पटना कॉलेज में कुल तीन सेल्फ फाइनेंस कोर्स की पढ़ाई होती है, जिनसे कॉलेज को अच्छी खासी कमाई होती है। उनमें से बैचलर ऑफ मास कम्युनिकेशन एक है मगर हम लोगों ने घोर अभाव में पढ़ाई की है। यह हमारी मज़बूरी रही कि विश्वविद्यालय में ना पीने का साफ पानी था और ना ही वहां शौचालयों की सही एवं समुचित व्यवस्था थी। 

पटना कॉलेज।

ऐसी परेशानियों से हम दो-चार होकर पूरे 3 साल की पढ़ाई करने को मज़बूर रहे। वहां हमें लैब की भी समस्या रही। हालांकि, आखिरी दिनों में हमें कॉलेज में कुछ सुधार देखने कोज़रूर मिला, जिनमें लैब को बेहतर किया गया था, शौचालय की व्यवस्था की गई लेकिन यह सब नैक के मूल्यांकन में बेहतर ग्रेडिंग के लिए हुआ था।”

छात्रों की राय और उनके अनुभवों से यह पता चलता है कि किताबी ज्ञान और अपने अधिकारों का प्रयोग शिक्षण संस्थानों में कितनी बड़ी चुनौती है लेकिन इन सबके बावजूद हमें बुद्धि और साहस का परिचय देकर अपने अर्जित ज्ञान को अभ्यास में लाने की ज़रूरत है। हमें सवाल पूछने की ज़रूरत है तभी हम एक बेहतर समाज और समावेशी विकास की परिकल्पना को मूर्त रूप दे सकते हैं वरना डिग्रियां लेकर संस्थानों से निकलने से कोई खास फर्क पड़ेगा ऐसी उम्मीद क्या आपको दिखाई पड़ती है?

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नोट- आकाश, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवंबर 2021 बैच के इंटर्न हैं। इन्होंने इस आर्टिकल में, वर्तमान में विश्वविद्यालयों की अव्यस्थाओं एवं वहां की शिक्षण पद्धति, शिक्षकों के रवैये एवं विद्यार्थियों से जुड़े हुए उनके तमाम मूलभूल अधिकारों के प्रत्यावर्तन पर प्रशासन की दूषित विचारधारा पर प्रकाश डाला है।

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