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“संविधान ही नस्लवादी हो तो नस्लवाद को बुरा साबित करना हो जाता है मुश्किल”

एक संवैधानिक संशोधन पारित कर इज़राइल ने कहा कि अब केवल यहूदी ही उसके देश के नागरिक हैं। इसके बाद इज़राइल के प्रमुख फ़िलिस्तीनी अधिकार समूहों में बहस छिड़ गई और आनन् फानन में इज़राइल को नस्लवादी राज्य के दर्जे से नवाज़ दिया गया। इस कड़ी में जानकारों की माने तो इस संशोधन के पारित होने के बावजूद देश में ज्यादा कुछ नहीं बदला है।

राजनीतिक अस्थिरता ने देश में नीति निर्माण को पंगु बना दिया है

मसले को इस बात से बेहतरीन तरीके से समझाया जा सकता है कि कानून अभी भी नया है और हाल ही में उपजी राजनीतिक अस्थिरता ने देश में नीति निर्माण को पंगु बना दिया है। जानकरों के मुताबिक नस्लभेद का यह फैसला कोई नया फैसला नहीं है।

जमीनी स्तर की बात करें तो देश में नस्लीय सर्वोच्चता, भेदभाव, विशिष्टता, और दो-स्तरीय नागरिकता इज़राइल के जन्म के दिन से यहां बखूबी प्रचलित है। भेदभाव की यह भावना देश के हर तबके में मौजूद है। आम जनता से लेकर राजनयिकों और यहां तक की न्यायाधीशों तक।

आम जनता को भूल अपनी सियासी रोटी सेंकने में लगे हुए सियासतदान

इस मसले पर फिलिस्तीनी और इज़राइल के राजनेता, कार्यकर्ता और विचारक लंबे समय से इज़राइल की यहूदी पहचान के बारे में बहस में लगे हुए हैं। अपने मुल्कों में शरीयत का चोला ओढ़े अरब भी यह सवाल उठाते रहते है कि खुद को यहूदी के रूप में परिभाषित कर क्या कोई देश लोकतांत्रिक रह सकता है। यहीं पर बहस अपने मुद्दे से भटक जाती है। नस्लवाद से भिड़ने निकले यह राजनीतिक योद्धा आम जनता को भूल अपनी सियासी रोटी सेंकने में लग जाते हैं।

इज़राइल के इस नए कानून पर नज़र डालें तो पाएंगे कि यह आजकल भारत में चल रही एक वैचारिक लहर से काफी मिलता जुलता है। जिसका मुख्या मुद्दा है यहूदी लोगों का इज़राइल की भूमि से संबंध, एक धार्मिक और वैचारिक शब्द जो इजरायल की वास्तविक सीमाओं से कहीं अधिक क्षेत्र का जिक्र करता है। इज़राइल में यहूदी लोगों के आत्मनिर्णय का अधिकार और उस अधिकार की विशिष्टता।

लोकतंत्र और बराबरी का डंका पीटने वाला अमेरिका भी इन कानूनों पर आंख मीचे हुए है

यह इज़राइल के पांच में से एक नागरिक जो फिलिस्तीनी हैं। उनके लिए समानता का कोई उल्लेख नहीं करता है। दुनिया भर में लोकतंत्र और बराबरी का डंका पीटने वाला अमेरिका भी इन कानूनों पर आंख मीचे हुए है, जबकि इज़राइल के फरमाबरदार ड्रूज़ तक देश के इस सरकारी फरमान के खिलाफ हो गए हैं।

यों तो भेदभाव ज़ायोनी शासन की जड़ में है लेकिन अब यह कानून इसे आसान बनाता है, क्यूंकि जब कानून नस्लवाद को वैध बनाता है, या कानून नस्लवादी कृत्यों को वैध बनाता है, तो नस्लवाद की सीमाओं को परिभाषित करना बेहद मुश्किल हो जाता है। एक देश में, जब संविधान ही नस्लवादी हो जाता है, तो यह परिभाषित करना मुश्किल होता है कि आखिर नस्लवाद क्यों बुरा है।

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