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आइए जानते हैं उत्तराखंड की तराई के गुज्जर समुदाय के बारे में

आइए जानते हैं उत्तराखंड की तराई के गुज्जर समुदाय के बारे में

एक व्यस्त नगर के बीच ऐसा भी समुदाय है, जो सिर्फ कुछ समय के लिए उस समाज का हिस्सा बन जाता है, जिसका वह हिस्सा नहीं है। वह नगर से दूर है लेकिन अपने कारोबार के ज़रिये नगर से जुड़ा हुआ है। लोग उनकी ज़रूरतों से अंजान हैं लेकिन अन्य लोगों की ज़रूरतें उनका कारोबार है। इस समुदाय को जाना जाता है ‘गुज्जर’ नाम से।

उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में स्थित तीर्थ-स्थल नानकमत्ता में शाम होते ही डैम के आस-पास से कदमों की आवाज़ आने की शुरुआत हो जाएगी। लोग व्यस्त हो जाएंगे बोतल-बर्तन लेकर डैम की ओर बढ़ने में, आपको दूधिया (दूध देने वाले) भी उस कच्ची सडक से गुज़रते दिखेंगे सबका बस एक यही मकसद होगा कि अपने दैनिक कार्यों की ज़रूरतों के लिए दूध इन्हीं गुज्जरों से खरीदना है। यह अवधि होगी तीन से चार महीने की जब यह समुदाय नानकमत्ता में अपना अस्थाई निवास करेगा, लगभग मार्च से लेकर जून के महीने तक यह प्रक्रिया चलेगी।

ज़ामिन जी रोज़ाना सुबह-सुबह दूध पीते आसानी से दिख जाते हैं। इसका कारण उनका दूध से सम्बंधित कारोबार हो सकता है, उनके पास दस से भी अधिक भैंस हैं लेकिन ज़ामिन जी ही नहीं उनका पूरा गुज्जर समुदाय इस कारोबार में व्यस्त है। उनकी अस्थायी बस्ती पर जाते ही भैसों की एक भीड़ और दूध निकालते गुज्जर दिखने लगते हैं। इसके साथ-साथ दूध से भरी गाड़ियां और दूध वाले भी दिखाई देते हैं। इनके ग्राहकों का कहना हैं कि गुज्जरों का दूध बहुत ही शुद्ध, साफ और स्वादिष्ट होता है।

ज़ामिन जी से बात करने पर पता चला, उनका यह कारोबार सदियों से चला आ रहा है। उनके इस कारोबार से ही उनके समुदाय की पहचान होती है। उनके परिवार में से कुछ सदस्य अप्रैल के महीने में अपने जानवरों को लेकर नानकमत्ता आ जाते हैं। जानवरों के साथ वह अपने लिए राशन और झोंपड़ी बनाने के लिए आवश्यक संसाधन भी ट्रॉलियों के सहारे से लेकर आते हैं, तब नानकमत्ता में स्थित नानकसागर डैम में पानी बहुत कम होता है, जिस स्थान पर पानी नहीं होता है, वहां वह अपने लिए आश्रय बना लेते हैं और अपने इस कारोबार में व्यस्त हो जाते हैं।

लगभग पांच से सात परिवार हर वर्ष यहां आते हैं। मानसून के समय यानी जून या जुलाई के महीने में जब बारिश के कारण डैम भरने लगता है, उन्हें वापस जंगलों यानी अपने स्थाई घरों में जाना पड़ता है और यह प्रक्रिया हर वर्ष सक्रिय रहती है।

ज़ामिन जी भी इस समुदाय के एक बुजुर्ग सदस्य हैं। वह हमें ‘गुज्जर’ समुदाय के बारे में बताते हैं कि जानवर पालन उनका पेशा है और इसी पेशे की बदौलत वह अपनी दिनचर्या के संसाधनों को पाने में सक्षम हैं। इसके अलावा उनके पास दूसरा कोई कारोबार नहीं है। इसी व्यवसाय पर अच्छी प्राप्ति के लिए वह 30 से 35 किलोमीटर दूर नानकसागर डैम पर कुछ महीनों के लिए अपना ठिकाना बसाते हैं। उस समय जंगलों में पानी और चारा नहीं रहता साथ-साथ जंगलों में आग भी लग जाती है।

चारे की समस्या, पानी की समस्या उनकी आम समस्याएं हैं। इसका समाधान उन्हें यहां आसानी से प्राप्त हो जाता है। वह अपना आश्रय ऐसे स्थान पर बनाते हैं, जहां पानी और घास आसानी से मिल जाए और उनके जानवरों को किसी भी प्रकार की दिक्कत नहीं आए। वह अपने साथ ‘सोलर पैनल’ भी रखते हैं। डैम के अंदर बिजली पहुचाने का कोई माध्यम नहीं है। सौर ऊर्जा की मदद से वह बल्ब का इस्तेमाल रात को आसानी से कर लेते हैं लेकिन जब सूरज नहीं निकलता और सौर पैनल चार्ज नहीं रहता तो उन्हें रात को अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी उन्हें आंधी, तेज़ तूफान से लेकर तेज़ गर्मी का सामना भी करना पड़ता है।

जैसे ही नगरवासियों को गुज्जरों के आवास का पता चलता है, वे गुज्जरों के संबंध में दूध की खरीददारी के माध्यम से आ जाते हैं। इसके साथ-साथ दूध वाली गाड़ियां भी इन गुज्जरों की इलाके में दूध के बड़े-बड़े नीले डिब्बों के साथ दिखाई पड़ती हैं।

ज़ामिन जी बताते हैं कि हम फुटकर पर दूध बहुत कम बेचते हैं, वे अपना दूध आम तौर पर थोक में ही बेचते हैं। वह यह भी बताते हैं कि “सर्दियों की तुलना में गर्मियों पर हमारे पास कम दूध होता है, यह और भी कम होता अगर जंगलों से हम यहां नहीं आते तो गर्मी और मच्छर इस समस्या के सबसे बड़ा कारण हैं। हमारे पास दूध का उत्पादन सर्दियों में ही ज़्यादा अच्छे से होता है।”

उनकी अस्थाई बस्ती नानकमत्ता नगर से लगभग 3 किलोमीटर दूर है, जिससे उन्हें सब्जियों और राशन से लेकर दवाइयों जैसी सेवाओं की प्राप्ति आसानी से हो जाती है। उनके पास बहुत जानवर हैं, उनके जानवरों की दवाइयां उनके पास ही रहती हैं। यहां तो उन्हें जानवरों के चिकित्सक आसानी से मिल जाएंगे लेकिन जंगलों में यह बहुत मुश्किल होता है। इसलिए वह चिकित्सकों की सलाह के अनुसार, अपने जानवरों की दवाइयां अपने पास रखते हैं और समय-समय पर अपने हाथों से दवाइयां जानवरों को देते रहते हैं। वह इसे चारे में मिलाकर और इंजेक्शन के माध्यम से जानवरों के शरीर के भीतर डालते हैं।

गुज्जर समुदाय उत्तराखण्ड के वन-क्षेत्र में फैला हुआ है। इसके अलावा यह समुदाय हिमाचल में भी है। ज़ामिन जी इसी से सम्बंधित अपने समुदाय की एक कहानी सुनाते हैं जिसे उनको पिताजी सुनाते थे। वह कहते हैं कि “हम लोग पहले जम्मू से हिमाचल आए थे, वो भी दहेज में! जब जम्मू में राजाओं का राज था, तब जम्मू के राजा ने अपनी बेटी की शादी हिमाचल के किसी राजा के साथ करवाई और जम्मू के राजा की बेटी हिमाचल चली गई।” 

जब कभी राजा की वह बेटी वापस जम्मू लौटी, तब वहां उसके हालचाल पूछे होंगे। तभी राजा की बेटी ने कहा कि हिमाचल में सब ठीक है बस दूध नहीं हैं। इसके कारण जम्मू के राजा ने वहां के गुज्जरों को हिमाचल जाने का आदेश दिया, जिससे वहां की दूध की समस्या दूर हो जाए।

गुज्जर जंगलों के शौकीन थे, गुज्जर वहां गए और उन्हें वह इलाका पसंद आया। इस प्रकार लगभग तीस परिवार जम्मू से हिमाचल के लिए निकले और रहने लगे। इसी तरह हम दहेज़ में आए हुए गुज्जर हैं और बढ़ते-बढ़ते आज यहां तक पहुंच गए हैं।

जुलाई का महीना है और मानसून की बारिश अपनी चरम सीमा पर है। डैम में पानी भी भरने लगा है, गुज्जर भी एक-एक कर वापस जंगलों को ओर जा रहे हैं, जिसमें ज़ामिन जी भी शामिल हैं और उनका साथी एक कुत्ता भी, वह अपने कुत्ते के बारे में बताते हैं कि यह हमारा कुत्ता है इसका नाम ‘टाइगर’ है। यह भी हमारे साथ ही रहता है और समय-समय पर इधर-उधर घूमते रहता है। अब यह समुदाय वापस जंगलों में जा रहा है, जहां की नदियों एवं नालों में अब पानी भर गया होगा और चारा-घास भी काफी हो गया होगा।

आज यह समुदाय संसाधनों की प्राप्ति के मामले में अभी भी पीछे है। इन गुज्जरों को डैम पर रहकर यह डर है कि कहीं कोई सरकारी कर्मचारी आकर उनके आश्रय ना उखाड़ बैठे। ज़ामिन जी भी इस बात से ताल्लुक रखते हैं कि गुज्जर समुदाय का शहर तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। वह कहते हैं कि “जिस तरह शहर का बच्चा जंगल की ओर बढ़ने में घबराता है, उसी तरह हमारा बच्चा भी शहर की ओर बढ़ने में घबराता है।”

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