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आइए जानते हैं कि कैसे ग्रामीण लड़कियों की आज़ादी की डोर बनी फुटबॉल

आइए जानते हैं कि कैसे ग्रामीण लड़कियों की आज़ादी की डोर बनी फुटबॉल

21वीं सदी का भारत आज भी दो हिस्सों में नज़र आता है। शहरी क्षेत्र विकसित होने के साथ-साथ यहां रहने वालों की सोच भी विकसित होती है, विशेषकर महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दों पर लेकिन इसकी अपेक्षा ग्रामीण भारत महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दों पर अब भी संकुचित सोच के दायरे में सिमटा हुआ है।

वह शिक्षा से लेकर पहनावे तक, वह महिलाओं को अंधविश्वास और संस्कृति की ज़ंज़ीरों में बांध कर रखना चाहता है। जागरूकता के अभाव में उसे चारदीवारी से बाहर निकल कर लड़कियों का स्कूल और कॉलेज जाना, नौकरी करना तथा समाज के विकास में योगदान देना धर्म और संस्कृति का अपमान नज़र आता है। पितृसत्तात्मक यह दृष्टिकोण कम साक्षरता वाले राज्यों में अधिक देखने को मिलता है।

राजस्थान भी इसी श्रेणी में आता है, जहां आज भी ना केवल महिला साक्षरता दर काफी कम है बल्कि अन्य राज्यों की अपेक्षा बाल विवाह भी अधिक होते हैं। कम उम्र में लड़कियों की शादी कर देना और दसवीं की पढ़ाई पूरी होने से पहले ही लड़कियों की पढ़ाई छुड़वा देने जैसी सोच यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक है।

कई बार समाज और संस्कृति के नाम पर लड़की के जन्म से पहले ही उसका विवाह तय कर दिया जाता है। घर में खाना बनाने, बच्चों के पालन-पोषण और यहां तक कि खेतों में काम करने के बावजूद समाज महिलाओं को दोयम दर्ज़े की मान्यता देता है और उसे कमज़ोर तथा विवेकहीन समझता है।

यही कारण है कि घर से लेकर पंचायत तक के फैसले महिलाओं की मर्ज़ी के खिलाफ लिए जाते हैं और उसका पालन करने के लिए उन्हीं महिलाओं को मज़बूर किया जाता है लेकिन बदलते वक्त के साथ अब ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की सोच में भी परिवर्तन की शुरुआत होने लगी है। अब लड़कियां गाँव में रहते हुए ना केवल उच्च शिक्षा ग्रहण करने लगी हैं बल्कि उस खेल में भी अपनी कामयाबी के झंडे गाड़ रही हैं, जिसे पहले केवल पुरुषों का खेल समझा जाता था।

इसका प्रत्यक्ष उदाहरण अजमेर के ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियां हैं, जिन्होंने ना केवल राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल में अपनी पहचान बनाई है बल्कि गाँव की अन्य लड़कियों को भी राह दिखाई है। उनके उत्साह और कामयाबी ने पितृसत्तात्मक समाज को अपनी सोच बदलने पर मज़बूर कर दिया है।

अजमेर से करीब 30 से 40 किमी दूर केकड़ी ब्लॉक के चार गाँव हांसियावास, चचियावास, मीणो का नया गाँव और साकरिया की कुछ लड़कियों ने 15 सितंबर 2016 को फुटबॉल खेलने की शुरुआत की थी। आज अपनी प्रतिभा से इनमें से कुछ लड़कियों ने राष्ट्रीय स्तर पर फुटबॉल टीम में अपनी जगह बनाई है।

इस संबंध में टीम की एक सदस्या पिंकी गुर्जर का कहना है कि यह खेल शुरू करने से पहले हमें बहुत ही रुकावटें आईं। हम गाँव की लड़कियां हैं तो वैसे भी हमारे लिए फुटबॉल खेलना तो दूर, उसके बारे में सोचना भी बहुत मुश्किल था, क्योंकि गाँवों में लड़कियों पर ज़्यादा रोकटोक की जाती है। गाँव वालों का तर्क था कि लड़कियां फुटबॉल खेलकर क्या करेंगी? आगे तो उन्हें चूल्हा ही संभालना है।

गाँव एवं हमारे परिवार में सबने मना कर दिया था, लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। हमने ठान लिया था कि हम फुटबॉल खेलेंगी। किसी प्रकार घर वालों से इजाज़त मिली। मैं खेलने जाने से पहले घर का काम करके जाती थी, ताकि वापस आएं तो घर वाले डांटे नहीं। पिंकी ने कहा कि गाँव वालों को लगता था कि अगर लड़कियां खेलेंगी तो बिगड़ जाएंगी, बेशर्म हो जाएंगी लेकिन हमने उनकी सारी धारणाओं को गलत साबित कर दिया।

हांसियावास गाँव की फुटबालर सपना का कहना है कि जब मैं सहेलियों को फुटबॉल खेलते देखती थी, तो मेरा भी बहुत मन होता था। फिर एक दिन अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि मैं अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती हूं। फुटबॉल लड़कों का खेल माना जाता है, जिसे खेल कर मैं मिसाल बन सकती हूं।

टीम से जुड़ने के बाद आने वाली रुकावटों का ज़िक्र करते हुए सपना कहती हैं कि गाँव में चर्चा तो बहुत हुई लेकिन मेरी खेल प्रतिभा ने ही गाँव वालों की बोलती बंद कर दी। वहीं टीम की एक अन्य सदस्या ममता कहती हैं कि जब से हम फुटबॉल खेलने लगे हैं, तब से हमने खुद में काफी हद तक बदलाव पाए हैं। हमारा बाहर जाने के लिए डर खुला, बोलने की झिझक दूर हुई, हिम्मत बढ़ी, गलत के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे और हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ा है।

इन लड़कियों के हौसले और हिम्मत के पीछे इनके अभिभावकों का सबसे अहम रोल है जिन्होंने ना केवल अपनी बेटियों की इच्छाओं का पूरा सम्मान किया और उन्हें अपने सपनों को पूरा करने की आज़ादी दी बल्कि गाँव वालों के ताने और दबाबों के आगे भी नहीं झुके।

फुटबॉलर सपना की माँ किशनी देवी कहती हैं कि मुझे बचपन से पढ़ने के साथ-साथ खेलने का भी बहुत शौक था, लेकिन ना केवल घर और आसपास बल्कि हमारे स्कूल में भी लड़कियों का किसी खेल में भाग लेने को बुरा समझा जाता था। कहीं भी सहयोग नहीं मिलने के कारण मैं अपने सपने को पूरा नहीं कर सकी लेकिन मैं अपनी बेटी के साथ ऐसा नहीं होने दूंगी।

उसके खेलने का सपना ज़रूर पूरा होगा। वहीं फुटबॉलर पिंकी की माँ लाली देवी भी अपनी बेटी पर गर्व करते हुए कहती हैं कि वह खेल के साथ-साथ पढ़ाई में भी अव्वल आती है। वह कहती हैं कि मैं भी खेलना और पढ़ना चाहती थी, परन्तु मेरे पिता जी मुझे बाहर नहीं जाने देते थे। मै हमेशा घर में ही रहती थीं और घर के काम करती थी। मेरी शादी भी ज़ल्दी ही कर दी गई थी और ससुराल भेज दिया था, लेकिन मैं चाहती हूं कि मेरी तरह मेरी बेटी ना रहे। इसलिए मैं हमेशा उसका साथ देती हूं।

दरअसल, इन लड़कियों की इस उड़ान में साथ दिया महिला जन अधिकार समिति ने, जो अजमेर के आसपास के गाँवों की महिलाओं और किशोरियों के सर्वांगीण विकास और सशक्तिकरण पर काम करती है। इस समिति की सचिव इंदिरा पंचोली लड़कियों की फुटबॉल टीम शुरू करने के पीछे के विचारों को साझा करते हुए बताती हैं कि सामाजिक परिवेश और सदियों से चली आ रही परंपरा के कारण लड़कियां डर और सहम कर रहा करती थीं।

वह कुछ बोलने से भी झिझकती थीं, लेकिन संस्था ने उनके अंदर की प्रतिभा को उभारने का प्रयास शुरू किया और एक ऐसे खेल से जोड़ने की पहल की, जिसे केवल पुरुषों का एकाधिकार समझा जाता था।

इसी के साथ फुटबॉल टीम बनाने की शुरुआत हुई। हालांकि, संस्था की इस पहल का ना केवल गाँव में बल्कि लड़कियों के स्कूल में भी विरोध किया गया। वह भागदौड़ करने वाली किसी भी गतिविधियों से लड़कियों को दूर रखना चाहते थे, लेकिन संस्था और लड़कियों के मज़बूत इरादों के आगे उन्हें झुकना पड़ा।

वह बताती हैं कि अब गाँव वालों के नज़रिये में बदलाव आने लगा है। अब वे ना केवल लड़कियों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित करने लगे हैं बल्कि इससे जुड़ी हर गतिविधियों में सहयोग भी करते हैं। पंचायत के माध्यम से लड़कियों को प्रैक्टिस करने के लिए मैदान और किट भी उपलब्ध कराए जाते हैं। यहां तक कि गाँव के लड़के भी अब उनकी मदद करते हैं।

इंदिरा पंचोली ने बताया कि लड़कियां फुटबॉल के ज़रिये गाँव से बाहर निकली हैं। संस्था द्वारा अजमेर में कैंप लगाए गए जिसमें कोच उन्हें फुटबॉल की बारीकियां सिखाते हैं। फुटबॉल खेलने के कारण लड़कियां उच्च शिक्षा ग्रहण भी करने लगी हैं जिससे उन्हें कई सरकारी योजनाओं का लाभ भी मिला है। उन्हें देखकर गाँव की अन्य लड़कियां भी मेहनत करने लगी हैं।

इसकी शुरुआत में चारों गाँव की कुल मिलाकर 80 लड़कियां थीं, जो अब बढ़कर 100 से भी ज़्यादा हो गई हैं। अभी गाँव हांसियावास में इसकी शुरुआत में 30 लड़कियां थीं, जो बढ़कर अब 50 हो गई हैं। वहीं चाचियावास गाँव में भी 20 से बढ़कर 40 लड़कियां इस खेल से जुड़ गई हैं। इनमें से तीन लड़कियों का चयन राष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ है।

वहीं एक लड़की को इस खेल की वजह से ₹50000 रुपये की छात्रवृत्ति मिली है। यह देखकर गाँव के लोग भी दंग रह गए हैं। बहरहाल, अब इन ग्रामीण लड़कियों ने मिलकर अपनी आवाज़ बुलंद की है कि हमें गौना नहीं, गोल (लक्ष्य) चाहिए, शिक्षा चाहिए। इसका अर्थ यह है कि लड़कियां ससुराल नहीं जाना चाहती।

वे पढ़ाई और खेल के माध्यम से अपने सपनों और लक्ष्य को पूरा करना चाहती हैं। फुटबॉल के माध्यम से इन लड़कियों ने अब अपनी आज़ादी की डोर पकड़ ली है और उस बुलंदी की ओर उड़ चली हैं, जहां से वह अपना और अपने गाँव का नाम दुनिया के नक्शे पर उभार सकें।

नोट- यह आलेख अजमेर, राजस्थान से पूजा गुर्जर ने चरखा फीचर के लिए लिखा है।

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