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उत्तर प्रदेश के अयोध्या में सरकार की ‘कोरोना नीतियों’ की समीक्षा

उत्तर प्रदेश के अयोध्या में सरकार की 'कोरोना नीतियों' की समीक्षा

अयोध्या में 17 मई तक लॉकडाउन था, वहां ज़रूरी सेवाओं के अलावा बाकी सब कुछ बंद थे। इस बार कोविड ने शहरी क्षेत्रों से ज़्यादा ग्रामीण क्षेत्रों को नुकसान पहुंचाया है।

कयास लगाए जा रहे हैं कि कोविड महामारी में कमी आ रही है लेकिन हकीकत इससे उलट है, सही जानकारी के अभाव और टेस्ट कराने की प्रक्रिया में जटिलता के कारण लोग डरे हुए हैं। इस कारण लोग अपनी बीमारी को पहले छुपाते हैं और फिर जब संक्रमण अधिक हो जाता है, तब डॉक्टर के पास भागते हैं लेकिन तब तक बहुत देर हो जाती है।

सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के पर्याप्त ना होने के कारण निजी अस्पतालों पर लोगों की निर्भरता बढ़ती जा रही है। हालात ऐसे हैं कि इन निजी चिकित्सा संस्थानों ने पीएम मोदी के जुमले ‘आपदा को अवसर में बदलने’ को सच कर दिखाया है और मरीज़ों से मनमाना रेट वसूल कर रहे हैं।

अयोध्या के रीडगंज स्थित एक निजी चिकित्सालय ‘समर्पण हॉस्पिटल’ पर विजिलेंस की टीम ने मरीज़ों की शिकायत के बाद छापा मारा, जहां सिर्फ ऑक्सीजन के लिए मरीज़ों से पांच हज़ार रुपये प्रति घंटे तक लिया जा रहा था। इसके बाद इस अस्पताल के संचालकों पर कानूनी कार्रवाई पूरे ज़िले में चर्चा का केंद्र बनी रही। यह सिर्फ एक अस्पताल की बात नहीं है, ऐसा लगभग सभी निजी चिकित्सालयों द्वारा किया जा रहा है।

ग्रामीण क्षेत्रों से मरीज़ों को शहर लाने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं और 90 प्रतिशत लोग घरों में इलाज करा रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इलाज का ज़िम्मा, बिना डिग्री के डॉक्टर्स (झोला छाप) ने संभाल रखा है।

शहर से 10 किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है जलालाबाद, वहां ऐसे तीन डॉक्टर्स मरीज़ देखते हैं और मरीज़ों की संख्या तीनों जगह को मिला कर 350 से 400 प्रतिदिन है, जो आम दिनों से दस प्रतिशत अधिक है। इनमें 90 प्रतिशत मरीज़ सर्दी, जुखाम, खांसी और बुखार से पीड़ित होकर दवा ले रहे हैं।

 यह इसलिए भी हो रहा है कि मरीज़ शहर जाकर अपना टेस्ट और इलाज नहीं करा रहे हैं, क्योंकि उनके पास जाने के पैसे और साधन दोनों नहीं हैं। इसके अलावा कोविड हॉस्पिटल्स की बदहाली के किस्सों ने आम जनमानस में भ्रम की स्थिति पैदा कर दी है।

एक केस 47 वर्षीय राम किशन का है, जो फैज़ाबाद ज़िला अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में बेड नंबर 25 पर भर्ती हैं। उनका ऑक्सीजन लेवल 61 है लेकिन उनका वहां पर्याप्त इलाज नहीं हो पा रहा है, ऐसा उनके घर वालों का आरोप है।

मरीज़ के अटेंडेंट का कहना है कि मरीज़ घर का कमाने वाला अकेला व्यक्ति है, हम बहुत परेशान हैं। डॉक्टर से बात करने पर वो सही उत्तर नहीं दे रहे हैं और उनका ऑक्सीजन लेवल लगातार गिरने पर, वो डॉक्टर्स से ऑक्सीजन लगाने को कहते हैं लेकिन थोड़ी देर ऑक्सीजन लगाने के बाद फिर से हटा ली जाती है। 

इसकी शिकायत करने पर वहां का अस्पताल प्रशासन मरीज़ को दूसरे अस्पताल में रेफर करने की धमकी दे रहे हैं। यह सिर्फ एक व्यक्ति का दर्द नहीं है बल्कि ऐसे अनेकों मरीज हैं, जिनका इलाज ऐसे ही किया जा रहा है।

इससे सरकार के उस दावे की पोल खुल जाती है कि हमारे पास पर्याप्त मात्रा में संसाधन उपलब्ध हैं, जबकि हकीकत राम किशन के केस में पता चल जाती है कि ‘ऐसे अनेकों राम किशन अपने भाग्य के सहारे अस्पतालों में जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे हैं लेकिन उनकी सुनवाई कहीं नहीं हो रही है।’

ऐसे ही भयावह हालात हर जगह हैं। अगर हम शमशान घाटों पर अपनी नज़र डालें, तो शुरुआत में लोग मृतकों को जलाने के लिए सरयू नदी के किनारे जमथरा और अयोध्या में लाकर अंतिम संस्कार कर रहे थे, लेकिन अब साधन और महंगी लकड़ी  के कारण लोग अपने गाँव के आस-पास ही मृतकों को जला दे रहे हैं।

इससे शमशान घाटों पर लगने वाली लंबी भीड़ तो कम दिखने लगी है लेकिन यह फिर भी अन्य दिनों की अपेक्षा अधिक है। यही हाल कब्रिस्तानों का भी है, जहां सामान्य दिनों की अपेक्षा अधिक मृतक दफन किए जा रहे हैं।

इस स्थिति से लोगों को बाहर निकालने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास हो रहे हैं। हालांकि, सरकार के ये प्रयास नाकाफी ही लगते हैं, जहां सरकार द्वारा टीकाकरण और जन जागरूकता अभियान तेज़ी से चलाया जा रहा है लेकिन इसके लिए ना तो सरकार के पास पर्याप्त टीके हैं और लोगों में इन टीकों को लेकर ढेर सारे भ्रम हैं, जिनको दूर करने के प्रयास में स्वयंसेवी संस्थाएं और सामाजिक कार्यकर्ता कार्य कर रहे हैं।

आबादी के हिसाब से हर ज़िले को जितने टीके मिलने चाहिए, वो नहीं मिल रहे हैं। टीकाकरण से पहले आम जनमानस में वैक्सीन को लेकर पूरी जानकारी लोगों तक नहीं पहुंची है, जिस कारण अभी देखने में आया है कि ‘शहरी क्षेत्रों में तो टीकाकरण के लिए लोग जुट रहे हैं लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में इसको लेकर लोगों में उदासीनता और भ्रम की स्थिति बनी हुई है।’

 इसका मुख्य कारण वैक्सीन के बारे में सही जानकारी का ना होना और कोविड महामारी की गंभीरता को ना समझना भी है। यही वजह है कि अब लोग ना तो मास्क लगा रहे हैं और ना ही सही समय पर इलाज के लिए डॉक्टरी सलाह ले रहे हैं।

ऐसा देखने में आया है कि इस बार आम जनमानस में जन संगठनों की पहुंच बहुत सीमित है। इस कारण सभी लोग ऑनलाइन माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन ऐसे अनेक परिवार हैं, जिनके पास मल्टीमीडिया मोबाइल नहीं है और ना ही वो इस तकनीक से वाकिफ हैं। ऐसे में हमें तकनीकी माध्यमों के अलावा अन्य विकल्पों पर भी ध्यान देना होगा, जिससे सही जानकारी सभी तक पहुंचाई जा सके।

सामुदायिक कार्यकर्ताओं के लिए पिछली बार की तरह इस बार लोगों के बीच जा कर काम करना बहुत मुश्किल है। लोग डरे हुए हैं और संसाधन भी पर्याप्त नहीं हैं। इस बार मेडिकल इमरजेंसी जैसे हालात हैं और इन हालातों का सामना करने के लिए सामुदायिक कार्यकर्ताओं को इन सब का कोई प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है।

लेकिन फिर भी सामाजिक संगठन के लोग अपने-अपने समुदाय में लोगों से संवाद बना रहे हैं और उन तक सही जानकारी पहुंचा रहे हैं। हम सभी एकजुट होकर इस महामारी से लड़ सकते हैं लेकिन हमें सही जानकारी और बचाव के साथ सामुदायिक प्रयास करने होंगे।


नोट: इस आर्टिकल को YKA पब्लिशर, युवानिया के लिए गुफरान ने लिखा है, जिसे YKA पब्लिशर्स प्रोग्राम के तहत प्रकाशित किया गया है। गुफरान, फैज़ाबाद उत्तर प्रदेश से हैं और सामाजिक परिवर्तन शाला से जुड़े हैं। वो अवध पीपुल्स फोरम के साथ जुड़कर युवाओं के साथ उनके हक़-अधिकारों, आकांक्षाओ और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर काम करते हैं।

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