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नहीं बदली महिलाओं के परिधानों को लेकर समाज की संकीर्ण मानसिकता

नहीं बदली महिलाओं के परिधानों को लेकर समाज की संकीर्ण मानसिकता

हमारे-आपके, आपकी माँ, नानी, दादी और मौसी या कहूं किसी भी महिला के वार्डरोब में एक चीज़ सामान्य मिलेगी, वह है साड़ी, साड़ी ही एक ऐसा परिधान है, जो हर किसी के पास आसानी से मिल जाएगा।

आमतौर पर हमारे यहां महिलाएं साड़ी को हर विशेष अवसर पर पहनना पसंद करती हैं। वहीं, बॉलीवुड की अभिनेत्री विद्या बालन और सदाबहार रेखा भी हमेशा साड़ी में ही नज़र आती हैं।

साड़ी उनकी खूबसूरती में चार चांद लगा देती है लेकिन आज भी साड़ी अनेक लोगों द्वारा उपेक्षित ही मानी जाती है, क्योंकि लोगों को लगता है कि साड़ी पहनने वाली महिलाओं की सोच मॉर्डन नहीं होती है।

साड़ी पहनने पर नो एंट्री

हाल ही में दिल्ली का अंसल प्लाज़ा और यहां का अकीला रेस्टोरेंट काफी चर्चा में आया था। इस रेस्टोरेंट का वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल भी हुआ था, जिसमें एक महिला को रेस्टोरेंट में घुसने से सिर्फ इसलिए रोका जा रहा था, क्योंकि उस महिला ने साड़ी पहन रखी थी।

मतलब केवल साड़ी पहन लेने से ही, उस महिला का स्टैंडर्ड डाउन हो गया और वो एक ही पल में अंदर बैठे लोगों से निचली पायदान पर आ गई।

साड़ी कमज़ोरी की निशानी कैसे?

वेस्टर्न कल्चर को अपनाते-अपनाते लोग अब इतने अंधे हो चुके हैं कि उन्हें अपनी संस्कृति पर ही लज्ज़ा आने लगी है, साथ ही इस रेस्टोरेंट के मैनेजमेंट का कहना है कि साड़ी स्मार्ट कैज़ुअल नहीं है, जबकि साड़ी पहनने से कोई भी महिला कमज़ोर नहीं हो जाती है।

यूं भी महिलाएं क्या पहनेंगी और कैसे पहनेंगी? इसका निर्णय लेने का हक केवल महिलाओं को है मगर रेंस्टोरेंट ऑनर की बात समझ से परे है कि साड़ी पहनने वाली महिलाएं अंदर नहीं जा सकती हैं।

हालांकि, मॉर्डन होते लोगों की सोच कभी-कभी बहुत ज़्यादा मॉर्डन हो जाती है, तब उन्हें अपनी संस्कृति का ज्ञान भी नहीं बचता है।

साड़ी का है अनोखा इतिहास

साड़ी शब्द असल में संस्कृत शब्द ‘सट्टिका या शाटिका’ से आया है, जिसका अर्थ कपड़े की पट्टी होता है। साड़ी का इतिहास तस्वीरों और लेखों के साथ-साथ मुगल और ब्रिटिश काल में भी मिलता है।

पहले गुप्त या मौर्य काल में महिलाएं चित्रों में कम कपड़ों में दिखती थीं। वे नीचे धोती जैसा कपड़ पहनती थीं मगर उसे साड़ी की संज्ञा नहीं दी जा सकती थी।

पौराणिक काल और ग्रंथों में साड़ी का ज़िक्र मिलता है। एक पौराणिक कहानी नल-दमयंती की भी है, जहां राजा नल को अपनी पत्नी की साड़ी पहननी पड़ जाती है। वहीं महाभारत को कौन भूल सकता है, जिसमें भी द्रौपदी के चीर-हरण अध्याय में भी साड़ी का ज़िक्र मिलता है।

रानी लक्ष्मीबाई ने साड़ी में ही अपने बेटे को बांध लिया था और अंग्रेज़ों को धूल चटाती चली गई थीं, इसलिए साड़ी पहनने वाली महिलाओं को किसी मायने में कम आंकना कोई स्मार्टनेस नहीं है।

पहली महिला पायलट का परिधान भी साड़ी

इसके साथ ही पहली बार विमान उड़ाने वाली सरला ठकराल ने भी साड़ी को ही अपना परिधान बनाया था। ऐसे में तर्क दिए जा सकते हैं कि उस समय महिलाओं के पास कोई ज़्यादा विकल्प नहीं थे, लेकिन बिना विकल्प के भी महिलाओं ने अपने माथे को जीत की सुनहरी पंखुड़ियों से सजाया है और अन्य महिलाओं को आगे बढ़ने का रास्ता भी दिया है।

उससे समाज की उस सोच का भ्रम टूटा, जिसके लिए साड़ी पहनने वाली महिलाएं कमज़ोर की श्रेणी में आती हैं।

साड़ी का विस्तार

कुछ रिपोर्ट्स के अनुसार, केरल में साड़ी पहनने वाली पहली महिला कलयानी पिल्लई (1839-1909) जो कि नाटककार और कवयित्री थीं, साथ ही वो त्रावणकोर (अब त्रिवेंद्रम) के महाराजा की पत्नी थीं।

चर्चित पेंटर राजा रवि वर्मा ने उनका चित्र बनाया था, उनके द्वारा बनाई गई कई पेंटिंग्स में महिलाएं साड़ी पहने हुई थीं इसलिए तर्क दिया जाता है कि कलयानी पिल्लई ने ही केरल में पहली बार साड़ी पहनी थी।

हालांकि, इस फैक्ट को लेकर कई लोगों में मतभेद भी है, उनका मानना है कि पहले भी मलयाली महिलाएं साड़ी पहनती थीं।

साड़ी और अधिकार

पहले के समय में निचली जाति की महिलाओं को स्तन ढकने तक का अधिकार नहीं था, क्योंकि उस समय केवल साड़ी ही लपेटी जाती थी।

हालांकि, बंगाल में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में ब्रिटिश राज से पहले कई जगहों पर बिना ब्लाउज़ के साड़ी पहनी जाती थी, लेकिन विक्टोरियन ज़माने में बिना ब्लाउज़ की साड़ी पहनना खराब माना जाता था।

उसके बाद जनानदानंदिनी देनी (Jnanadanandini Debi) जो रविंद्र नाथ टैगोर के भाई सत्येंद्र नाथ टैगोर की पत्नी थीं, जिन्हें पहली बंगाली महिला माना जाता है, जिन्होंने ब्लाउज़ पहना था।

ऐसा माना जाता है कि उन्हें भी किसी बिल्डिंग में एंट्री नहीं दी गई थी, क्योंकि उन्होंने अपने ब्रेस्ट के ऊपर साड़ी लपेटी थी। उसके बाद टैगोर परिवार में महिलाओं ने साड़ी के साथ ब्लाउज पहनना शुरू किया था।

वहीं, ब्लाउज़ और पेटीकोट दोनों ही अंग्रेज़ी शब्द हैं और विक्टोरियन काल में ही ये भारतीय शब्दावली का हिस्सा बने थे।

साड़ी भी है स्मार्ट कैज़ुअल

अब बदलते समय के अनुसार साड़ी में भी अनेक प्रयोग हुए हैं और साड़ी का विस्तार होता चला गया है जैसे-जैसे बाज़ारवाद हावी होते गया, साड़ी में भी परिवर्तन होते चले गए। अब कई महंगी साड़ी हाई-स्टैंडर्ड का हिस्सा हो गई हैं, जिसे पहनना आज भी कई महिलाओं के लिए सपना है, जैसे- कांजीवरम साड़ी, सिल्क की साड़ी, हकोबा, पटोला और चंदेरी आदि।

आज भी कई लड़कियां अपने स्कूल या कॉलेज के स्पेशल दिनों पर माँ या अपने किसी प्रिय महिला की साड़ी पहनना पसंद करती हैं। आज भी ऐसी तमाम महिलाएं हैं, जो साड़ी पहनकर घर और बाहर दोनों संभाल रही हैं, साथ ही हर रोज़ नई क्रांतियां भी कर रही हैं। ऐसे में साड़ी को स्मार्ट कैजुअल ना कहना कहां की स्मार्टनेस है?

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