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सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती आदिवासी प्रथा लाह

सामाजिक समरसता को बढ़ावा देती आदिवासी प्रथा लाह

आदिवासी समाज में शुरुआत से एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना समझ कर चलने की विशेषता रही है और वह आज भी बरकरार है। हालांकि, कुछ शहरों या कहें तथाकथित आधुनिकता के कारण अब आदिवासी समाज में भी निजीकरण का भाव आने लगा है।

लेकिन कई मामलों में आदिवासी समाज में आज भी आदिवासियत ज़िंदा है, जिसमें सामूहिकता, एक-दूसरे के सुख-दुःख को अपना समझना, प्रकृति के साथ तालमेल के साथ रहना शामिल है। ढास/ लाह एक ऐसी प्रथा या जीवन शैली है, जिसके कारण आदिवासी समाज में सामूहिकता, भाईचारा एकता, सुख-दुःख में एक-दूसरे की सहायता के भाव जीवित हैं।


यह तस्वीर मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले के देओली गाँव के रहने वाले सखाराम वास्कले के घर की है, जो सुरेश डुडवे ने ली है।

ढास/ लाह

आदिवासी समाज में जब एक साथ घर बनाने, किसी के खेत को सुधारने या किसी अन्य कार्य के लिए एक से अधिक व्यक्तियों की एक साथ आवश्यकता होती है, तब सभी लोग मदद के लिए आ जाते हैं और ज़रूरतमंद व्यक्ति का कार्य सभी मिलकर कर देते हैं, इसे ही ढास या लाह कहते हैं। 

‘ढास’ राठवी भाषा का शब्द है, जबकि लाह शब्द बारेली भाषा का है, दोनों का अर्थ एक ही है।

पश्चिमी मध्यप्रदेश के बड़वानी, खरगोन, झाबुआ और अलीराजपुर ज़िले आदिवासी बाहुल्य ज़िले हैं। कुछ साल पहले तक आदिवासी समाज के लोग अपने खेतों में खेड़ने व बक्खर के लिए ढास/लाह बुलाते थे, जिसमें अपने-अपने फलिए के लोग एक-दूसरे की मदद करते थे।

इससे आसानी से एक-दूसरे की ज़मीन बीज बोने योग्य बना दी जाती थी। आधुनिक बाज़ार के कारण मशीनीकरण का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों की ओर भी पड़ा है। जहां पहले गाँव के लोग खेती के लिए बैलों का इस्तेमाल करते थे, अब वहां अधिकतर लोग ट्रैक्टर का उपयोग कर रहे हैं, फिर भी कई सारे काम ढास/ लाह के बगैर संभव नहीं हैं, इसलिए इसकी निरंतरता बनी हुई है।

घर बनाने हेतु

अभी भी लकड़ी के घर बनाने हेतु एक साथ कई सारे लोगों की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए आदिवासी समाज के लोग बारी-बारी से एक-दूसरे के नए घर बनाने या सुधारने हेतु ढास/ लाह बुलाते हैं। इससे आसानी से एक-दूसरे का कार्य हो जाता है। जिसका घर बनाना हो, वह व्यक्ति पहले दिन अपने आस-पास के लोगों को सूचना दे देता है कि मेरा नया घर बनाना है, तब प्रत्येक घर से एक व्यक्ति उसकी मदद के लिए आ जाता है।


यह तस्वीर मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले के देओली गाँव के रहने वाले सखाराम वास्कले के घर की है, जो सुरेश डुडवे ने ली है।

खाद डालने का कार्य 

आदिवासी समाज के पास पशु भी होते हैं, जिनके गोबर का इस्तेमाल, वे अपनी खेती में खाद के रूप में करते हैं। गोबर खाद को खेत में डालने हेतु भी ढास/लाह बुला ली जाती है, जिससे कम खर्चे में बारी-बारी से सभी लोगों का काम हो जाता है। इसके अलावा कुंए खोदने, पत्थरों को उठाने जैसे कई कार्य हैं, जिनके लिए ढास/लाह बुलाई जाती है।

ढास/ लाह का महत्व

 कोई भी कार्य पैसा लगाकर भी करवाया जा सकता है लेकिन उससे आदिवासी समाज में एक-दूसरे की मदद करने की भावना नहीं रहेगी। ऐसे में ढास/ लाह जैसी प्रथा, इस भावना को बनाए रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

आर्थिक दृष्टिकोण से देखें, तो पता चलता है कि गाँव में सभी प्रकार के लोग रहते हैं। कई सारे लोगों की आर्थिक स्थिति इतनी मज़बूत नहीं है कि वे अपने हर काम को पैसों से करवा सकें। ऐसे में ढास/ लाह प्रथा के माध्यम से लोग उनकी मदद कर देते हैं।

 उसे उन लोगों को स्वेच्छानुसार या अपनी स्थिति के अनुसार, एक या दो समय का भोजन कराना होता है। अगर कोई इतना भी सक्षम नहीं है, तो भोजन करना /करवाना कोई ज़रूरी नहीं है। इस प्रकार से आदिवासी समाज की आदिवासियत को बचाने में ढास/लाह प्रथा की अहम भूमिका है और हमें इस प्रथा को निरतंर बढ़ाते रहने की आवश्यकता है।


नोट: इस आर्टिकल को YKA पब्लिशर, युवानिया के लिए सुरेश ने लिखा है, जिसे YKA पब्लिशर्स प्रोग्राम के तहत प्रकाशित किया गया है। सुरेश, मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले से हैं। आधारशिला शिक्षण केंद्र के पूर्व छात्र रह चुके सुरेश अभी तमिलनाडु सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे हैं।

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