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आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी महिलाएं अपने अधिकारों से क्यों वंचित हैं?

महिला

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” उपयुक्त पंक्तियां भारतवर्ष के प्रत्येक घर में किसी-ना-किसी संदर्भ में ज़रूर प्रयोग हो जाती हैं। यहां जन्म से ही लड़कियों को ऐसा महसूस कराया जाता है कि वो पुरुषों से अलग हैं, उन्हें ऐसे रहना चाहिए, ये करना चाहिए और ये नहीं करना चाहिए। ऐसे तमाम नियम कायदे कानून समझाकर, उन्हें यह एहसास करा देते हैं कि वास्तव में वे देवी की ही रूप हैं।

भारत में किसी के अस्तित्व को नकारने का सबसे आसान तरीका है, उसे मसीहा या देवता बना देना, क्योंकि ज़िन्दगी के एक पड़ाव पर हर एक शख्स कहीं-ना-कहीं नास्तिकता की ओर अपना रुख करता है और उस स्थिति में वह सीधे तौर पर ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल खड़ा करता है। नारियों को भी देवी का रूप बनाकर समाज ने उनके मानव अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

समय की पाबंदियों में जकड़कर टूटते हैं हर रोज़ ख़्वाब

ईश्वर के दर्शन बड़े दुर्लभ होते हैं, चाहकर भी आप हर वक्त ईश्वर के दर्शन नहीं कर सकते हैं और ईश्वर चाहते हुए भी आपको दर्शन नहीं दे सकते हैं, क्योंकि ईश्वर पुजारियों/ पादरियों /मौलवियों के अधीन हैं।

शायद यही वजह है कि लड़कियों के लिए भी समय की भरपूर पाबंदियां लगाई गईं, क्योंकि वो भी तो देवी का रूप हैं, तो जायज़ है कि वो भी सामाजिक शुभचिंतकों के विचारों के अधीन होंगी।

समय की पाबंदी ने नारियों को इस कदर जकड़ रखा है कि वो पंख होते हुए भी अपनी इच्छानुसार उड़ नहीं सकती हैं। वो हर रोज़ अपने सपनों को जमींदोज कर देती हैं। वो खुली हवा में लंबी उड़ान भरना चाहती हैं, परंतु आकाश में विचरण कर रहीं बाज रूपी सामाजिक पाबंदियों से डरकर, वो घोंसले से बाहर नहीं निकल पाती हैं।

शिक्षा से भी वंचित रह जाती हैं आधुनिक देवियां

अत्यधिक सम्मान भी मीठा ज़हर का रूप धारण कर लेता है, जो व्यक्ति को धीरे-धीरे खत्म कर देता है। लड़कियों को प्रदत्त यह ईश्वरीय सम्मान भी कहीं-ना-कहीं उनके लिए एक मीठे जहर का ही कार्य कर रहा है, जिसका परिणाम है कि समाज द्वारा तथाकथित संस्कृतियों एवं रीति-रिवाज़ों के नाम पर उनके अधिकारों को छीनकर, उन्हें पंगु बना दिया जाता है।

जिसके बाद वे ताउम्र अपने घर से लेकर ससुराल चले जाने तक सिर्फ-और-सिर्फ घर के कामकाज करने वाली बाई बनकर रह जाती हैं। दिनभर काम करने के बाद रात को थक हारकर अपनी किस्मत पर रोती हैं और फिर सुबह उसी दिनचर्या में लग जाती हैं।

यह सतत प्रक्रिया तब तक जारी रहती है, जब तक कोई और नई देवी अपने सपनों को बलि चढ़ाकर, यही सब कार्य करने के लिए उनके बेटे से ब्याह कर ससुराल ना आ जाए।

घर ही तो संभालना है क्या करोगी पढ़कर?

इक्कीसवीं सदी में जब दुनिया चांद पर पहुंच चुकी है। विज्ञान अपने सबसे उच्चतम विकास पर है, मेडिकल के क्षेत्र में हर रोग का इलाज हो रहा है, उस दौर में भी हमारे तथाकथित सभ्य समाज में लड़कियों के लिए यह विचार स्वीकार्य है कि तुम्हें तो घर ही संभालना है क्या करोगी पढ़कर?

यह विचार कहीं-ना-कहीं नारी सशक्तिकरण और समानता के अधिकार के साथ हमारे आदर्श समाज का सबसे भद्दा मज़ाक है। मगर दुर्भाग्यवश भारत में यह मज़ाक सबको स्वीकार है और अधिकांश घरों में यह लागू भी किया जाता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में ज़्यादा पिछड़ी हुई हैं देवियां 

ऐसा प्रायः सुना और पढ़ा जाता है कि गाँव के लोगों के अंदर प्रेम और सहानुभूति शहरी लोगों की तुलना में कहीं ज़्यादा होती है। ऐसा वास्तव में, मैंने कई दफा अनुभव भी किया है, मगर नारियों के मामले में उनकी भी प्रेम और सहानुभूति समाप्त हो जाती है। यह भी हमारे समाज का कड़वा सच है।

ग्रामीण क्षेत्रों में कई लड़कियों को पढ़ाई से इसलिए वंचित रख दिया जाता है, क्योंकि वह अपने ही किसी क्लास के लड़कों से बात कर लेगी और बिगड़ जाएगी। ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को शिक्षा से इसलिए दूर रखा जाता है कि पढ़-लिख लेगी तो अपने मन से भागकर किसी लड़के से शादी कर लेगी।

ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को शिक्षा से इसलिए भी दूर रख दिया जाता है, क्योंकि वह पढ़-लिख लेगी तो अपने अधिकारों को जान जाएगी और अपने अधिकारों के लिए पुरुष प्रधान समाज के खिलाफ बगावत शुरू कर देगी। इन्हीं तमाम कारणों का परिणाम है कि जहां शहरी क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के लिए महिलाओं का नामांकन 22 प्रतिशत है, तो वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च शिक्षा के लिए नामांकन मात्र 5 प्रतिशत है।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ आंदोलन भी बस बेटी बचाओ तक रह गया सीमित

वक्त के साथ कुरीतियां और रीति-रिवाज़ बदल जाते हैं, ऐसा हम शुरू से ही इतिहास में पढ़ते आ रहे हैं कि बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह ऐसी तमाम कुरीतियां थीं, जो समय के साथ समाप्त हो गईं।

लेकिन हमारे समाज में नारी शिक्षा की समस्या आज भी ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि देश की सरकारों ने कोशिश नहीं की, परंतु उनकी कोशिशें कागज़ों से उतरकर ज़मीन पर आ ही नहीं पाईं।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “आप किसी राष्ट्र में महिलाओं की स्थिति देखकर, उस राष्ट्र के हालातों को बता सकते हैं।”

यह सम्भव है कि यह उनके मन की पीड़ा थी, जो शब्दों के माध्यम से निकल पड़ी मगर यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि आज़ादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी राष्ट्र के हालात ज्यों-के-त्यों हैं और सरकारें आज भी बेटियों को पढ़ाने से पहले उन्हें बचाने का नारा दे रही हैं।

देवी के रूप के बजाय सिर्फ नारी मानकर ही उन्हें पढ़ा लिखा दिया जाए तो संवर सकता है उनका जीवन

नारी सम्मान जायज है और होना भी चाहिए लेकिन उनके सम्मान में करुणा के भाव छुपे हों तो यह कहीं-ना-कहीं एक चिंता का विषय है।

जब एक तरफ हम समानता के अधिकारों की बात करते हैं और दूसरी तरफ नारी है तो वह कमज़ोर होगी की अवधारणा अपने मन में बनाकर चलते हैं, तो कहीं-ना-कहीं हम समानता के अधिकार का उपहास उड़ा रहे होते हैं।

यदि हम विश्व साक्षरता दर की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार, औसत साक्षरता दर 79.7% जबकि भारत में महिला साक्षरता दर 64.46 % है, जो औसत से भी काफी कम है।

हम आंकड़ों की बात करें तो 2018 के आंकड़ों के अनुसार, 15 से 18 आयुवर्ष की 39.4% लड़कियां किसी भी शिक्षण संस्थान में नामांकित नहीं हैं। वे या तो घर के कार्यों में लगी हुई हैं या फिर भिक्षाटन करके अपना जीवन यापन कर रही हैं।

भारत में 145 मिलियन महिलाएं आज भी पढ़ने-लिखने में असमर्थ हैं। आज़ादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी यह आंकड़े काफी डरावने हैं। यदि वास्तव में समाज नारी सशक्तिकरण और नारी सम्मान को लेकर गंभीर है, तो यह अति आवश्यक हो जाता है कि लड़कियों को देवी का रूप बनाने के बजाय उन्हें पढ़ा लिखाकर सशक्त बनाया जाए और उनके समानता के अधिकारों की रक्षा की जाए।

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नोट- कृष्ण कांत त्रिपाठी, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम सितंबर-नवम्बर 2021 बैच के इंटर्न हैं। वर्तमान में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हॉस्पिटैलिटी एवं मैनेजमेंट कोर्स में अध्ययनरत हैं। इन्होंने इस आर्टिकल में, वर्तमान में समाज में महिलाओं की दयनीय स्थिति एवं उनके सशक्तिकरण पर प्रकाश डाला है।

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