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कविता: “बेफिक्र बचपन जब खौफज़दा हो जाए”

बेफिक्र बचपन जब खौफज़दा हो जाए,

उम्र नहीं वो कि खुद भी समझ पाए।

हर छुअन को अनदेखा करना,

बिना जाने ही यूं पल-पल का मरना।

बड़ों वाले खेल से हुआ परिचय,

चाहने लगी फिर बढ़ूं ना कभी मैं।

 

ना भाता था मुझको उसका कमरे में आना,

या फिर उसका प्यार से मुझे हाथ लगाना।

भोली थी मैं, गुड बैड टच कहां था पता,

यकीन मानो पर ना थी, उसमें मेरी कोई खता।

बच्ची थी मैं तब ना मुझको

इतना सिखाया गया था,

अपने तुमसे बहुत प्यार करते हैं

बस यही बताया गया था।

 

ऐसा नहीं था कि कोशिश नहीं की,

पर छोटी थी तो समझी नहीं गई,

बोलती थी घर में नहीं हैं वो लगते अच्छे,

सब हंसकर कहते थे कि कितने मासूम हैं हमारे बच्चे।

 

यही होता है बड़ों का प्यार,

ये मैंने अब मान लिया था।

धीरे-धीरे चुप रहना भी,

तब तक मैंने जान लिया था।

उम्र बढ़ी और अक्ल बढ़ी जब,

तब ये बात समझ आई,

जहां बचपन से फंसी हूं मैं,

वो तो है गहरी खाई।

 

एहसास होने पर भी,

अब किसको क्या मैं बताऊंगी,

सालों की चुप्पी तोड़ी तो,

गलत मैं ही कहलाऊंगी।

 

इसी बात का फायदा उठाकर,

कोशिश की उसने फिर एक बार,

पर देखकर मेरा मनोबल,

गया उसका दुस्साहस हार।

हौसले को देख वो मेरे,

गया था ज़रूर डर,

ज्ञात था उसको भी ये,

ना कहूंगी मैं किसी से मगर।

 

परिवार का सोचकर,

मैंने ये बात थी छुपाई,

पर जब छोटी को हाथ लगाया,

तब मैं चुप ना रह पाई।

कहने को तो इस बात को,

काफी साल गए गुज़र,

पर किसी के मज़े के लिए,

मेरा बचपन गया बिखर।

 

आज भी रात अंधेरे में,

चौंककर उठ जाती हूं,

बोलते-बोलते अचानक यूंही,

चुप सी मैं हो जाती हूं।

खुद को ना बचा सकी तो,

किसी और का बचपन ही बचाऊं मैं,

नहीं है परवाह भले ही फिर,

गलत ही क्यों ना ठहराऊं मैं।

 

काश कि कोई मुझे भी समझता,

बचपन मेरा बच जाता।

अपने भी गलत हो सकते हैं,

गर कोई जो ये समझा जाता।

बशर्ते वो घर में,

अब भी खुला घूमता है,

पर ना हिम्मत अब उसमें

कि किसी को घूरता है।

 

अबोध बचपन घर में मुस्काता जो अब है,

वही मेरी खुशियों का इकलौता सबब है।

 

अब जीती हूं उनमें मैं भी अपना बचपन,

जिसको तरसता रहा मेरा मन।

कई देखते हैं शक की नज़र से,

तो कुछ जताते हैं हमदर्दी भी मुझसे,

आते जाते कहते हैं पीड़िता बेचारी,

कोई तो ये समझे कि मैंने हिम्मत ना हारी।।

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