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कविता: “समय की नहीं, समझ की बात है”

गुम हो गए संयुक्त परिवार
एक वो दौर था जब पति,
अपनी भाभी को आवाज़ लगाकर,
घर आने की खबर अपनी पत्नी को देता था
पत्नी की छनकती पायल और खनकते कंगन बड़े उतावलेपन के साथ पति का स्वागत करते थे।

बाऊजी की बातों का..
“हां, बाऊजी”
“जी बाऊजी” के अलावा दूसरा जवाब नही होता था।

आज बेटा बाप से बड़ा हो गया,
रिश्तों का केवल नाम रह गया।

ये “समय-समय” की नहीं,
“समझ-समझ” की बात है।

बीवी से तो दूर
बड़ो के सामने,
अपने बच्चों तक से बात नही करते थे
आज बड़े बैठे रहते हैं, हम सिर्फ बीवी से बात करते हैं।

दादाजी के कंधे तो मानो, पोतों-पोतियों के लिए
आरक्षित होते थे,
काका ही भतीजों के दोस्त हुआ करते थे

आज वही दादू-दादी
वृद्धाश्रम की पहचान हैं।
चाचा-चाची बस
रिश्तेदारों की सूची का नाम है।

बड़े पापा सभी का ख्याल रखते थे
अपने बेटे के लिए जो खिलौना खरीदा, वैसा ही खिलौना परिवार के सभी बच्चों के लिए लाते थे।

‘ताऊजी’ आज सिर्फ पहचान रह गए और छोटे के बच्चे
पता नहीं कब जवान हो गए??

दादी जब बिलोना करती थी
बेटों को भले ही छाछ दे
पर मक्खन तो केवल पोतों में ही बांटती थी।

दादी ने पोतों की आस छोड़ दी क्योंकि
पोतों ने अपनी राह
अलग मोड़ दी।

राखी पर बुआ आती थी
घर में नहीं, मोहल्ले में,
फूफा जी को
चाय-नाश्ते पर बुलाते थे।

अब बुआ जी
बस दादा-दादी के
बीमार होने पर आते हैं,
किसी और को
उनसे मतलब नहीं
चुपचाप नयन नीर बरसाकर
वो भी चले जाते हैं।

शायद मेरे शब्दों का
कोई महत्व ना हो,
पर कोशिश करना
इस भीड़ में
खुद को पहचानने की,
कि…….
हम ज़िंदा हैं या
बस जी रहे हैं।

अंग्रेज़ीं ने अपना स्वांग रचा दिया
शिक्षा के चक्कर में
संस्कारों को ही भुला दिया।

ये समय-समय की नहीं,
समझ-समझ की बात है।

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