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कोरोना के बाद बच्चों पर गहराता मानसिक स्वास्थ्य की महामारी का संकट

कोरोना के बाद बच्चों पर गहराता मानसिक स्वास्थ्य की महामारी का संकट

हममें से सभी लोग यह जानते हैं कि प्रतिवर्ष 14 नंबवर को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के जन्मदिन को ‘राष्ट्रीय बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 1957 में इसकी घोषणा हुई थी, लेकिन क्या आपको पता है कि वर्ष 1954 से ही संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रतिवर्ष 20 नवंबर को ‘विश्व बाल दिवस’ मनाया जाता है।

इसका उद्देश्य दुनिया भर के बच्चों के कल्याण के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं जागरूकता कार्यक्रमों को प्रोत्साहित करना है। इस वर्ष ‘विश्व बाल दिवस’ की थीम है- ‘प्रत्येक बच्चे के लिए एक बेहतर भविष्य’।

कोरोना ने बच्चों के मानसिक तनाव में किया है इजाफा

कोरोना महामारी के मौजूदा संकटकाल में किसी तरह की अनिश्चितता से निपटने और परिवार को सुरक्षित रखने के लिए तो हर कोई प्रयासरत है लेकिन इस दौरान जाने-अनजाने बच्चों की भावनात्मक ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ किया गया है।

इसका असर बच्चों के व्यवहार में देखा जा रहा है। दरअसल, कोरोना महामारी ने उम्रदराज लोगों के साथ-साथ बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर डाला है। महामारी के कारण पड़े सामाजिक व्यवधानों ने बच्चों को शारीरिक और भावनात्मक रूप से बहुत प्रभावित किया है।

ऑनलाइन क्लासेज, दोस्तों एवं रिश्तेदाराें से दूरी, होम आइसोलेशन, बाहर नहीं खेल पाना और अभिभावकों के बेवजह गुस्से एवं तनाव को झेलने की त्रासदी आदि ने उनमें गंभीर अवसाद और ऊब की भावना पैदा कर दी है। अगर ज़ल्द ही इस स्थिति को सामान्य नहीं किया गया, तो भविष्य में इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।

इस संदर्भ में यूनिसेफ की रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रेन (SoWC) 2021 : ऑन माय माइंड: प्रोमोटिंग, प्रोटेक्टिंग एंड केयरिंग फॉर चिल्ड्रेन्स मेंटल हेल्थ’ काफी चौंकाने वाली है।

रिपोर्ट के मुख्य परिणाम :

मानसिक बीमारियों से प्रभावित हो रहे हैं बच्चे

यूनिसेफ और गैलप द्वारा 2021 की पहली छमाही में 21 देशों में कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में 14 से 24 वर्ष की आयु के लगभग 14 प्रतिशत बच्चे व युवा अक्सर मायूसी, उदासी और सामान्य गतिविधियों में अरूचि महसूस करते हैं।

कोविड-19 महामारी से पहले भी भारत में पांच करोड़ बच्चे मानसिक स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के शिकार थे। इनमें से 80-90 प्रतिशत बच्चों को किसी तरह की सहायता प्राप्त नहीं हुई (इंडियन जर्नल ऑफ साइकियाट्री 2019)।

वर्ष 2020 में दुनिया भर में 10-19 वर्ष के किशोरों की संख्या 12 करोड़ थी, जिनमें से 13 फीसदी (8.9 करोड़ किशोर और 7.7 करोड़ किशोरी) से अधिक किशोर किसी-ना-किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित थे।

प्रत्येक घंटे एक स्टूडेंट कर रहा है आत्महत्या

नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो 2018-19 के अनुसार, भारत में प्रत्येक एक घंटे में एक स्टूडेंट आत्महत्या करता है, जबकि प्रतिदिन 28 ऐसे ही स्टूडेंट्स की आत्महत्या करने की सूचना मिलती है।

10-19 वर्ष के किशोरों की मौत का एक बड़ा कारण आत्महत्या है। इनमें से 15-19 वर्ष के किशोर-किशोरियों के मामले में सड़क दुर्घटना, टीबी तथा आपसी विवाद के पश्चात यह चौथा सबसे बड़ा सामान्य कारण है।

15-19 वर्ष की किशोरियों की दृष्टि से देखें, तो यह तीसरा सबसे बड़ा कारण है, जबकि इसी उम्र के किशोरों के मामले में यह चौथा बड़ा कारण है। पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया में आत्महत्या इस आयु वर्ग के युवाओं की मृत्यु का प्रमुख कारण है, जबकि पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका में यह दूसरा सबसे बड़ा कारण है।

कई तरीकों से झेल रहे हैं हिंसा

बाल मनोवैज्ञानिकों द्वारा आरंभिक शिक्षण अवसरों और बाल विकास में गहरा संबंध प्रमाणित किए जाने के बावजूद तीसरी दुनिया के 81 फीसदी बच्चे आज भी अपनी आरंभिक शिक्षा प्राप्त करने से वंचित हैं।

तीसरी दुनिया के 83 फीसदी बच्चे अपने अभिभावकों द्वारा हिंसक व्यवहार झेलते हैं और 22 फीसदी बच्चे बाल श्रमिक के रूप में काम करते हैं। वैश्विक स्तर पर, दुनिया भर में 15 फीसदी बच्चे कम शारीरिक भार लिए पैदा होते हैं, जिनमें से 15 फीसदी लड़कियां 18 वर्ष की उम्र से पहले मां बन जाती हैं और 29 फीसदी बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है।

समाज में व्याप्त लैंगिक मानक किशोर एवं किशोरियों के मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करते हैं। इसकी वजह से लड़कियों को जहां अपने काम, शिक्षा और परिवार में कई तरह की पाबंदियां झेलने के साथ ही निजी संबंधों में भी अपने साथी द्वारा की गई हिंसा का शिकार होना पड़ता है। वहीं लड़कों पर अपनी भावनाओं को दमित करने और मादक पदार्थों को उपयोग करने का दबाव होता है।

लड़कियों में मामले में स्थिति ज़्यादा गंभीर

वर्ष 2015-16 तथा 2018-19 में पॉपुलेशन काउंसिल द्वारा बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन एंव डेविड एंड ल्युसिल पैकर्ड फाउंडेशन के सहयोग से बिहार और उत्तर प्रदेश के 10-19 वर्ष के किशोरों तथा किशोरियों पर किए गए एक अनुदैर्ध्य अध्ययन (longitudinal study) रिपोर्ट ‘अंडरस्टैंडिंग द लाइव्स ऑफ एडोलशेंट्स एंड यंग एडल्ट्स (UDAYA)’ के अनुसार, समय के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा गंभीर होता जा रहा है।

इस अध्ययन में पता चला कि भारत में लड़कों की तुलना में लड़कियों के मामले में यह अधिक गंभीर है, जबकि विवाहित लड़कियों के संदर्भ में देखें, तो यह आंकड़े सर्वाधिक हैं। वास्तव में, किशोरों के लिंग और वैवाहिक स्थिति के अनुसार, उनके तनाव के स्रोतों में काफी विविधता देखने को मिलती हैं।

लड़कियां चाहे किसी भी उम्र की हों, उन्हें लड़कों की तुलना में अधिक विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, जिस वजह से उनमें अवसाद के अधिक मामले देखने को मिलते हैं। उस पर से कम उम्र में होने वाला विवाह उनकी स्थिति को और भी त्रासदपूर्ण बना देता है।

किशोरावस्था में विवाह, वैवाहिक हिंसा और दहेज़ प्रताड़ना आदि समस्याओं ने मानसिक स्वास्थ्य को नकारात्मक तरीके से प्रभावित किया है, खास तौर से लड़कियों के मानसिक स्वास्थ्य को। इसके अलावा चोट या शारीरिक संक्रमण भी लड़कियों के मानसिक स्वास्थ्य को गहराई से प्रभावित करते हैं।

इस अध्ययन में पाया गया है कि जिन लड़कियों को जननांगीय संक्रमण की समस्या थी, उनमें तुलनात्मक रूप से अवसाद के गंभीर लक्षण देखने को मिले।

अलग-अलग है लड़के-लड़कियों के अवसाद की वजह

वर्ष 2018–19 में 18-22 वर्ष के लड़कों पर किए गए अध्ययन में पाया गया है कि उनके अवसाद का प्रमुख कारण रोज़गार संबंधी तनाव (बेरोजगारी, अच्छी नौकरी का मिलना, जॉब की वजह से पढ़ाई छूट जाना) और शिक्षा संबंधी तनाव (किन्हीं कारणों से बीच में पढ़ाई छूट जाना, असफलता का भय, परीक्षा का भय) है।

इसी उम्र की अविवाहित लड़कियों में पढ़ाई संबंधी तनाव, बीमारी, चोट, किसी करीबी की मृत्यु तथा तुलनात्मक रूप से अधिक पाबंदी झेलना है। वहीं इसी उम्र की विवाहित लड़कियों में घरेलू हिंसा, बच्चों के लालन-पालन का तनाव, गर्भपात, बच्चे की मौत अथवा गर्भधारण की अक्षमता अवसाद की सबसे अहम वजहें हैं।

सभी बच्चे नहीं साझा कर पाते हैं अपनी परेशानियां

मानसिक स्वास्थ्य पर कोविड-19 संक्रमण के प्रभावों को लेकर एक व्यापक शोध किया गया है। शोध में प्राप्त परिणाम दर्शाते हैं कि इस दौरान बच्चों और किशोरों में तनाव एवं चिंता का स्तर काफी बढ़ गया है।

ऐसे बच्चों के अभिभावकों, खास कर कम उम्र की माताओं पर भी ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है, जहां तक मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर किसी से सहायता लेने की बात है, तो भारत में अवसादग्रस्त मात्र छह फीसदी लड़के और दो फीसदी लड़कियां ही मानसिक स्वास्थ्यकर्मियों से मदद लेने की आस रखते हैं।

यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, किशोर उम्र के ज़्यादातर बच्चे मानसिक स्वास्थ्यकर्मियों की सहायता लेने के बजाय पारिवारिक सदस्यों से सहायता लेना पसंद करते हैं। औसतन 15-24 वर्ष के 83 फीसदी युवा इस बात से सहमत हुए हैं कि मानसिक परेशानियों से जूझने या उनसे उबरने का सबसे बढ़िया तरीका दूसरों के साथ उन परेशानियों को शेयर करना या फिर उनसे निजात पाने के लिए किसी की सहायता लेना है।

केवल 15 फीसदी युवाओं का मानना है कि मानसिक परेशानियां व्यक्तिगत होती हैं और इनसे हर किसी को खुद ही निपटना चाहिए।

किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित 21 देशों में किए गए इस अध्ययन से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, केवल भारत ही एक ऐसा देश है, जहां 41 फीसदी किशोर अपनी परेशानियों को किसी के साथ शेयर करने में यकीन रखते हैं।

अवसादग्रस्त बच्चों के पहचान में आने वाली बाधाएं

ऐसे बच्चों की सटीक पहचान ना होने की एक बड़ी वजह रोज़गार, शिक्षा या अन्य कारणों से होने वाला पलायन (8% लड़के और 5% लड़कियां) या फिर उनकेे माता-पिता/अभिभावकों द्वारा इस संबंध में की गई मनाही (4% लड़के और लड़कियां) है। इसके बावजूद बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य सुरक्षा पर निवेश करने की व्यापक मांग के बावजूद इसके लिए निवेश नगण्य या ना के बराबर है।

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