सन 1962 में राचेल कार्सन नामक एक लेखिका ने ‘साइलेंट स्प्रिंग’ नामक एक पुस्तक लिखी तो पूरे दुनिया की नज़र उनकी तरफ मुड़ गई। यह कोई आम पुस्तक नहीं थी, पर्यावरण संकट जैसे संवेदनशील मुद्दे को विश्व पटल पर किसी ने पहली बार इतनी गंभीरता से रखा था, जिस समय दुनिया दो-दो विश्वयुद्ध लड़कर शीत युद्ध में प्रवेश कर रही थी। उस समय इस पुस्तक ने पर्यावरण संकट के विरुद्ध एक बौद्धिक आंदोलन की शुरुआत कर दी थी।
आज हम तर्क और विज्ञान के आधार पर बहुत आगे बढ़ चुके हैं, जिसे हम आधुनिकता की संज्ञा देते हैं लेकिन वैसी आधुनिकता का हम क्या करेंगे जो जीवन के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दे? अगर देखा जाए तो कहीं-ना-कहीं उत्तर-आधुनिकतावाद जैसी विचारधारा का पनपना इन प्रश्नों का ही परिणाम है।
1972 में नासा के अपोलो 17 ने पृथ्वी की पहली रंगीन तस्वीर ली थी। इसने हमारे पृथ्वी को एक अनंत काले विस्तार के बदले नीले संगमरमर के रूप में दिखाया था। हमें यह अहसास हुआ कि पूरे ब्रह्मांड में पृथ्वी ही हमारा एकमात्र घर है और यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम इस नीले घर की देखभाल करें।
इसके पिछले दशकों में पर्यावरणीय आपदाओं ने लोगों के मस्तिष्क पर एक बुरा प्रभाव छोड़ा था। 1962 में लंदन में वायु प्रदूषण के कारण 750 लोगों की मौत हुई थी। कैलिफोर्निया के सांता बारबरा में एक तेल रिसाव से लगभग 3500 समुद्री पक्षी मारे गए थे।
जापान में एक केमिकल कंपनी ने मिनामाटा की खाड़ी में मर्क्युरी का बहाव कर दिया था, जिस कारण लगभग 2265 लोग प्रभावित हुए थे। इस बीमारी को ही आगे चलकर मिनामाटा डिज़ीज कहा गया, जो हमारे तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करती है।
ऐसी विभिन्न आपदाओं को देखने के बाद विश्व को धीरे-धीरे यह अहसास होने लगा कि पर्यावरण संकट वास्तव में एक गंभीर मुद्दा है। अंततः 1972 में स्वीडन के स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर सयुंक्त राष्ट्र की पहली कॉन्फ्रेंस बुलाई गई जहां कई देशों के प्रमुख इकट्ठा हुए, भारत से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उस में हिस्सा लिया था।
स्टॉकहोम सम्मेलन ने अपने निर्णयों के तीन प्रमुख सेट तैयार किए। पहला स्टॉकहोम घोषणा पत्र, दूसरा स्टॉकहोम एक्शन प्लान जिसमें पर्यावरणीय ह्रास के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय उपायों और सरकारों एवं अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लिए 109 सिफारिशें शामिल थीं और तीसरा पांच प्रस्तावों का समूह था।
पहला परमाणु हथियार परीक्षणों पर प्रतिबंध जिससे रेडियोधर्मी तत्वों में गिरावट हो सकती है। दूसरा पर्यावरण डेटा पर एक अंतरराष्ट्रीय डेटाबैंक, तीसरा विकास और पर्यावरण से जुड़े कार्यों को संबोधित करने की आवश्यकता, चौथा अंतरराष्ट्रीय संगठनात्मक परिवर्तन, पांचवा एक पर्यावरण कोष का निर्माण।
लेकिन कहीं-ना-कहीं ये सारी घोषणाएं और प्रस्ताव विकसित देशों के पक्ष और विकासशील देशों के विपक्ष में थे। भारतीय प्रधानमंत्री ने इस बात को सामने रखा कि विकसित देश औद्योगीकरण की प्रक्रिया में सबसे आगे थे इसलिए उन्होंने अपने संसाधनों का समुचित दोहन किया किन्तु जब विकासशील देशों की बारी आई तो उन पर इतने सारे अंकुश क्यों? हालांकि बाद में इस मुद्दे पर भी चर्चा हुई और विकासशील देशों को कुछ रियायतें दी गईं।
स्टॉकहोम घोषणा की विरासत आगे भी जारी रही, जिसे हम 1992 के रियो अर्थ समिट में देखते हैं। इससे पूर्व 1983 में ही बर्टलैंड कमीशन ने सतत विकास की अवधारणा दे दी थी। 21वीं सदी में भी पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन पर अनेक सम्मेलन हो चुके हैं और हो रहे हैं लेकिन प्रश्न यह है कि विश्व स्तर के इतने सम्मेलनों के बावजूद क्या हमारे पृथ्वी को वापस अपना पूर्ववर्ती जीवन मिल रहा है?
हाल के दिनों में देखा जाए तो कनाडा जैसे ठंडे देश में हीट वेव का आना। तापमान वृद्धि के कारण आर्कटिक क्षेत्र में ग्लेशियर के पिघलने से समुद्र के जलस्तर में वृद्धि होना ऐसी घटनाएं द्वीपीय देशों के लिए खतरे का सूचक हैं। यूरोप में बाढ़, भारत में भूस्खलन एवं बाढ़ जैसी घटनाओं को देखकर लगता है कि हम पृथ्वी के स्वास्थ्य में उस स्तर का सुधार नहीं कर पा रहे हैं जितना हम कागज़ों में दिखाने की कोशिश करते हैं।
यह कड़वा सच है कि हम विकास और पर्यावरणीय समृद्धि एक साथ नहीं कर सकते हैं किन्तु हम पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के द्वारा टू-लेन सड़क का निर्माण ज़रूर कर सकते हैं, जो विकास के साथ-साथ पर्यावरणीय संतुलन को भी बनाए रखे।
ऐसा कहा जाता है कि इतिहास हमेशा वर्तमान से संवाद करता है। इसलिए जो समस्याएं 20वीं सदी के मध्य हमारे सामने उभरी थीं, उन्हें हमें अपने प्रत्येक क्षण के अतीत से सीख लेकर सुधारने की कोशिश करनी चाहिए।
नोट: YKA यूज़र आनंद कुमार साहिल की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।