भारत के सीजेआई (मुख्य न्यायाधीश) एनवी रमन्ना ने साफ और कड़े शब्दों में कहा, “टीवी डिबेट अधिक प्रदूषण फैला रहे हैं।”
टीवी पर होने वाली डिबेट दूसरे आयामों से ज़्यादा प्रदूषण पैदा कर रहे हैं। वे समझ नहीं पाते हैं। बयानों को संदर्भ से बाहर कर दिया जाता है। हर किसी का अपना एजेंडा है। सीजेआई द्वारा यह टिप्पणी दिल्ली के वायु प्रदूषण में किसानों के पराली जलाने के प्रतिशत के विवाद के संदर्भ में की गई है।
सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली के बिगड़ते वायु प्रदूषण से संबंधित मामले की सुनवाई में भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ‘वायु प्रदूषण में पराली जलाने में योगदान के बारे में सोमवार को दिए गए उनके बयान को मीडिया में गलत तरीके से चलाया गया।’ इस संबंध में उनके खिलाफ ‘गैर जिम्मेदाराना और भद्दे बयान’ दिए गए हैं।
वहीं ज़्यादातर लोगों ने उनके इस बयान की सकारात्मक समीक्षा की है। यहां मामला बुद्धिजीवी वर्ग का आता है, जिनकी सोच और व्यवहार दोनों छन के सामने आते हैं। जस्टिस रमन्ना द्वारा दिए गए इस बयान में सौ फीसदी सच्चाई है और निष्पक्षता की बात है।
टीवी के ऑनलाइन डिबेट्स हों या फिर किसी न्यूज़ रूम का दृश्य हर जगह ये बहस अपनी नैतिकता के प्रांगण को तोड़ती हुई आगे बढ़ रही है। इन डिबेट्स में सरलता, नैतिकता तो नदारद हैं ही साथ-की-साथ लोगों की जान का भी जोखिम है।
12 अगस्त, 2020 को भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा और उनके साथ डिबेट्स में शामिल कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी के हार्ट अटैक से हुए निधन ने मानवतावादी समाज को सकते में डाल दिया था। इंसानियत को शर्मसार करने वाली इस घटना ने ना केवल राजनीतिक क्षेत्रों को शर्मसार किया बल्कि मनुष्य की मानवता पर भी सवाल उठाए।
ऐसे कैसे आप डिबेट्स में किसी को इस हद तक पहुंचा देते हैं, जहां इंसान की मृत्यु हो जाती है? ये कैसा समाज है और ये किस तरफ जा रहा है? ये बहुत ही दुःख और दिल को तार-तार कर देने वाले दृश्य हैं, जो आजकल आम होते जा रहे हैं।
वहीं राजीव त्यागी की पत्नी संगीता ने पिछले साल यूथ की आवाज़ से अपनी बात साझा करते हुए कहा था, “मेरे और मेरे बेटे धनंजय के सामने हमने उनको मरते हुए देखा है, जब भी उनकी डिबेट्स होती थी, तो हम उस कमरे में नहीं बैठते थे। हम बराबर वाले कमरे में बैठे थे और लगातार टीवी पर चल रही डिबेट्स देख रहे थे।
हम बार-बार उनके पानी पीने और उनकी बेचैनी को हम देख रहे थे, तो क्या डिबेट्स करने वाले इस बात को महसूस नहीं कर रहे होंगे? मैंने देखा मेरे पति जब असहज महसूस कर रहे थे, तो संबित पात्रा जी उनको उकसाने में लगे हुए थे। ऐसा लग रहा था ये एक डिबेट नहीं बल्कि किसी को मारने की प्लानिंग चल रही है। आज डिबेट्स स्क्रिप्ट के मुताबिक होने लगी हैं। इसका साफ सीधा परिणाम किसी की मौत भी हो सकता है जो कि मेरे पति के साथ हुआ।”
दुर्भाग्यवश राजीव त्यागी जी ने टॉक्सिक डिबेट्स के चलते अपनी जान गंवा दी। ऐसा पहले भी होता था मगर जब से भाजपा सरकार की नीतियां समाज में प्रेषित हुई हैं, तब से हमने बहुत कम बार इंसानियत का चेहरा देखा होगा शायद इस पार्टी के पास ना केवल मानवता, समझ, भाईचारे जैसे विश्वासों की बेहद कमी है बल्कि इसके सदस्यों में अमर्यादित व्यवहार की अधिकता देखी जाती है।
सुप्रीम कोर्ट के वकील और कांग्रेस के नेशनल स्पोकपर्सन जयवीर शेरगिल का कहना है, “आज टीवी डिबेट्स तथ्य पर नहीं बल्कि शोर-शराबा, व्यक्तिगत हमले और तड़का लगाने वाले अखाड़े का रूप ले चुकी हैं। इन ज़हरीले टीवी डिबेट्स में सत्य उजागर नहीं होता बल्कि सनसनी फैलाई जाती है।
भड़काऊ डिबेट्स और ज़हरीली होती मीडिया की वजह से आज हम डिबेट्स के नाम से ही डरने लगे हैं। अक्सर शाम को आप घर में ऑफिस से थके हारे आते हैं और मन बहलाने के लिए टीवी खोलते हैं और फिर अगर न्यूज़ चैनल खोल लिया, तो आपको वहां असलियत में कोई डिबेट्स नहीं दिखेगी बल्कि चीख, पुकार, चिल्लाना, एक-दूसरे पर कीचड़ उठाना, लड़ाई, झगड़े आदि ही दिखेंगे।”
कई बार लोगों से एक हास्यास्पद व्यंग्य सुनने को मिलता है कि ‘आजकल के डिबेट्स ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे मुम्बई की चाल में पानी भरने को लेकर झगड़ा कर रहीं दो औरतें आपस में मारपीट पर उतर आती हैं और बाकी के लोग देख कर मज़े करते हैं और उनका मखौल बनाते हैं।’
उच्चतम न्यायालय को टीवी डिबेट के कंटेंट पर नज़र रखने के लिए एक कमेटी का गठन करना चाहिए, नहीं तो इस सरकार के रहते हुए ना जाने कितने राजीव त्यागी जैसे लोगों को अपने जान की बाज़ी लगानी पड़ेगी। डिबेट्स का असली मतलब बहस होता है, जिसमें नैतिकता और नरम लहजा इस्तेमाल किया जाता है और फिर अपनी बात विपक्ष के सामने रखी जाती है।