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जय भीम ‘देश की लचर कानून व्यवस्था एवं भ्रष्ट पुलिस प्रशासन’ की सच्चाई को उजागर करती है

जय भीम 'देश की लचर कानून व्यवस्था एवं भ्रष्ट पुलिस प्रशासन' की सच्चाई को उजागर करती है

हाल ही में जय भीम फिल्म रिलीज़ हुई और दर्शकों के सामने आते ही इसने लोगों के सामने बहुत सारे सवाल खड़े कर दिए और आम जनमानस के सामने आदिवासी समाज के साथ होती बर्बरता के बारे में बताया।

जय भीम IMDB पर सबसे ज़्यादा रेटिंग हासिल करने वाली भारतीय फिल्म है, जिसे 8.8 की रेटिंग मिली है, क्योंकि जिस तरह से देश में आदिवासियों के साथ होने वाले भेदभावों और अत्याचारों को सच्चाई के साथ इस फिल्म में दिखाया गया है और सच दिखाने की हिम्मत की गई है। वह सच आपके रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है। 

इस फिल्म की कहानी एक आदिवासी राजाकंनू के ऊपर है, जिसे एक झूठे चोरी के केस में फसा दिया जाता है और उसके साथ-साथ उसकी गर्भवती पत्नी, उसके रिश्तेदारों को पुलिस द्वारा अमानवीय तरीके से मारा-पीटा जाता है, ताकि वो गुनाह कबूल कर ले, जो उसने कभी किया ही नहीं है।

इस तरह एक दिन जेल से अचानक राजाकंनू और उसके 2 साथी गायब हो जाते हैं और राजाकंनू की पत्नी अपने पति एवं उसके साथियों का पता लगाने के लिए वकील चंद्रु की मदद लेती है।

फिल्म और समाज

यह फिल्म हमें बहुत कुछ बताती है। हम आज़ाद हैं, बेशक हम आज़ाद हैं मगर अभी भी हमारे देश में बहुत सारे समुदाय ऐसे हैं, जिन्हें अभी तक असमानता, भेदभाव, गुलामी की जंज़ीरों से आज़ादी नहीं मिली है।

ऐसे बहुत सारे दूर-दराज़ के इलाकों में रहने वाले आदिवासी समुदाय हैं, जिनके पास आज भी रहने के लिए उपयुक्त घर नहीं हैं। आज़ादी के 75 सालों के बाद भी उनके पास कोई पहचान पत्र नहीं है और ना ही उनके पास किसी तरह की अन्य सुविधा है। यहां तक कि उनके पास वोट डालने का भी अधिकार नहीं है।  

फिल्म हमारे तथाकथित आदर्श एवं सभ्य समाज में होने वाले भेदभावों, असमानता की ओर इशारा करती नज़र आती है। हमारी असफल और लचर कानून व्यवस्था की तरफ हमारा ध्यान खींचती है। हमारे समाज में जो कानून व्यवस्था है, वो सिर्फ कुछ तबके के लोगों की गुलामी करती है, निम्न वर्ग के लोगों के लिए कानून अस्तित्व में ही नहीं है। 

हमारे समाज को और कानून को डॉ.आंबेडकर के उसूलों पर चलने की आवश्यकता है। यह फिल्म हमें बताती है कि देश की कानून व्यवस्था, पुलिस एवं प्रशासन कैसे उच्च एवं सक्षम लोगों की चाटुकारिता करता है।

फिल्म हमारे समाज पर एक गहरा असर डालती है। एक तरफ तो हमें यह बताती है कि जो समाज हमें खुश और संपन्न नज़र आता है, उसकी एक डार्क साइड में कुछ ऐसे समुदाय भी हैं, जिन तक हमारे देश की आज़ादी के 75 सालों के बाद भी विकास की रौशनी की किरण पहुंच नहीं पाई है।

जो अभी भी समाज में बहुत तरह की असमानता, अमानवीयता एवं बर्बरता के शिकार होते हैं और ये रोज़ की बात है और दूसरी तरफ हमें यह भी बताती है कि बेशक हमारे इर्द-गिर्द कानून के दुश्मन हैं परन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो किसी भी कीमत पर कानून पर आम जनमानस के अस्तित्व को बचा कर रखते हैं।  

वकील चंद्रु ह्यूमन राइट्स के वकील थे और उन्होंने पूरी उम्र कभी भी ऐसे केसों के लिए कोई भी फीस नहीं ली। उन्होंने हमारे समाज को एक उम्मीद दी है कि कानून सबके लिए है और कानून की नज़र में हम सब एक समान हैं। ये फिल्म समाज के अंदर कानून के प्रति उम्मीद को जगाती है, हालात कितने भी गंभीर क्यों ना हों, कानून के सामने सब एक समान हैं। 

पुलिस कस्टडी में होती बेगुनाहों की मौत और कानून व्यवस्था का मौन होना

आज भी हमारे देश में कस्टोडियल डेथ (न्यायिक हिरासत में होने वाली मृत्यु) होती हैं यानि पुलिस कस्टडी में होने वाली मौतों पर हमें कोई नहीं बताता है और ना ही हमारे देश का कोई मेनस्ट्रीम मीडिया और ना ही देश के प्रतिष्ठित अखबार।

यह फिल्म सीधे तौर पर समाज को पुलिस की कानूनी कार्यवाही, पुलिस प्रशासन के काम करने के तरीके के बारे में एवं उसकी अमानवीय कस्टडी प्रक्रिया के बारे में बताती है और हमें जागरूक करती है। 

यह फिल्म समाज को इन सब चीज़ों के बारे में बताती और सिखाती है कि कैसे हम अपने अधिकारों को जानकर इस सिस्टम को बदल सकते हैं शायद हमारी एक छोटी सी कोशिश हमारे देश के इस भ्रष्ट कानूनी सिस्टम एवं प्रशासन को बदल दे, जिससे हमारे देश के विकास में कुछ मदद मिल सके। ‘जय भीम’ के अलावा आर्टिकल 15 और मुल्क जैसी फिल्में भी हमें समाज के दूसरे रूप से परिचित करवाती हैं। आपको ये फिल्में भी ज़रूर देखनी चाहिए।

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