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जय भीम: एक ज़रूरी फिल्म, जो देखी जानी चाहिए

भारतीयता के सन्दर्भ ‘जय भीम’ एक बेहद अहम नारा है, हालांकि आज भी यह नारा किसलिए है और इसका उपयोग किस तरह होना चाहिए, भारतीय समाज को यह समझना अभी बाक़ी है मगर अच्छी बात ये है कि अमेज़न प्राइम पर ‘जय भीम’ नाम की एक बेहद ज़रूरी विषय पर बनी फ़िल्म आई है।

मुझे याद नहीं आता कि भारत में अंडर प्रिविलेज्ड कास्ट के लोगों के साथ हो रहे वैधानिक अन्याय पर इस तरह की कोई फ़िल्म मैंने देखी होगी या भारत में बनी भी होगी।

जय भीम के कुछ खास सीन्स और उनके मैसेज

फ़िल्म में एक बेहद ज़रूरी सीन है, जब इस फ़िल्म का हीरो वकील, पुलिस वाले को मुद्दे की ज़मीनी सच्चाई से रूबरू कराने विक्टिम्स के पास ले कर जाता है। पुलिस वाले को एहसास होता है कि स्थिति कितनी भयावह है और वक़ील आख़िर किस वजह से इतनी सिद्दत से ये केस लड़ रहा है। डायरेक्टर इस सीन में आपसे ये डायरेक्ट गुहार कर रहा है कि अपने घर से निकलिए, जिन लोगों के साथ जाति के आधार पर अन्याय हो रहा है, उनसे बात कीजिये और तब अपनी समझ बनाइये।

केस सॉल्व करने में विज्ञान का जो उपयोग दिखाया गया है ये भी फ़िल्म का एक अहम हिस्सा है। ये हमें दिखाता है कि किस तरह वैज्ञानिक नज़रिये ने पिछले सालों में डिस्क्रिमिनेशन जैसे मुद्दों पर हमारी जस्टिस प्रोसेस को आसान बनाया है। वैज्ञानिक दौर के पहले कोई भी राजा या जज बड़ी आसानी से अपनी ताकत का उपयोग कर के कमज़ोर के प्रति अन्याय को साबित कर देता था. कमज़ोर अपनी दलील रख नहीं पाता था और रख भी लेता था तो साबित नहीं कर पाता था।

मुझे बड़ी ख़ुशी हुई ये देखकर कि इस फ़िल्म में अंततः एक जातिवादी पुलीस वाले और उसके साथियों को अपराधी बताया गया। हम ये देखकर ऊब चुके हैं कि पुलिस अंततः कुशासन की वजह से पूरी तरह मजबूर है। मजबूरी से कहीं बड़ी हमारे समाज की भेदभाव पर आधारित व्यवस्था है. इंडियन पुलीस सिस्टम ही वो टूल है जिसका अति दुरूपयोग भारत के चुने हुए अथोरिटेरियन मंत्री और ब्राह्मणवादी सामंतवादी नेता करते आये हैं।

फ़िल्म में यह भी दिखाया कि किस तरह जातिवादी समाज ने असली अपराधी को जानते हुए भी, जिस पर ज़ुल्म हो रहा है, उसकी कोई मदद नहीं की। भारत की वर्तमान राजनीति में ये बहुत साफ़ साफ़ नज़र आता है किस तरह सवर्ण संगठन सवर्ण अपराधियों द्वारा किये जाने वाले अपराधियों को बचाने के लिए आंदोलन तक कर देते हैं चाहे अपराध कितना भी जघन्य क्यों न हो।

जय भीम के अंदरूनी मुद्दे

भारत की जेलों के अंदर क़ैद लोगों में से कितने वाकई क्रिमिनल हैं? आरएसएस से बेन हटने के बाद कभी भी भारत में किसी भी अतिवादी हिंदू संगठन को बेन नहीं किया गया, जबकि हिंदू धर्म के नाम पर बने कई संगठन खुले आम माइनॉरिटी, आदिवासियों और अंडर प्रिविलेज्ड कास्ट के साथ घिनोने व्यवहार को उकसाते हुए दिखते हैं। इन संगठनों के सरगना आपको किसी सवर्ण कास्ट के लोग ही मिलेंगे. जिनका काम सवर्ण कास्ट के लोगों द्वारा किये कार्यों पर पर्दा डालना है और उन्हें किसी भी हद तक जा कर बचाना है।

सरकारी वक़ीलों या ज़्यादातर वक़ीलों का अंडर प्रिवेलेज्ड कास्ट और यूं कहूँ कि ह्यूमन राइट्स इशूज के प्रति रवैया भी फ़िल्म में बेहतरीन ढंग से दिखलाया गया है। हमारे भारतीय समाज की बहुत बड़ी कमी है कि संवैधानिक जागरुकता यहाँ न के बराबर है। यहाँ अच्छे इंसान होने की परिभाषा में जातिवादी न होना आता ही नहीं है बल्कि खुद को दूसरों से ऊपर समझने वाले लोग अपने जन्म, जाति, कर्म के अनुसार इसे अपना रसूख समझते हैं।

जो व्यक्ति आम रास्ते से हट कर ह्यूमन राइट्स इशूज के मुद्दों पर ज़मीनी लड़ाई लड़ते हैं, उन्हें भारत का वकील महकमा और मिडिल क्लास ड्रामेबाज़, अटेंशन सीकर या सिम्पेथाईज़र कह कर पुकारता है। जबकि आधुनिक समाज की प्रकृति के अनुसार वक़ील और पत्रकार होना ही किसी भी अन्याय के ख़िलाफ़ खड़े होने का सबसे आसान और मूलभूत तरीक़ा है। हमारे भारत के निर्माता ही नेहरू, पटेल, गांधी, अम्बेडकर चारों वक़ील थे। हमारे यहाँ समाज के बाक़ी हिस्सों से नेपोटिस्म/परिवारवाद हटाने के लिये न्याय व्यवस्था से इसका हटाना सबसे पहले ज़रूरी है। आज भी यहाँ वकील की औलाद वक़ील, जज की औलाद जज बनती है।

जय भीम की कमियां

इस फ़िल्म के ट्रेलर, पोस्टर और प्रमोशन को एकदम एक हीरो/महानायक की कहानी वाली फिल्मों की तरह बनाया गया है जैसा कि घटिया हिंदी फिल्मों में अक्सर देखा जाता है, इस फ़िल्म को पेश करने वाला मटेरियल इशू बेस्ड होता तो कई गुना बेहतर होता। जिस तरह से फ़िल्म का हीरो स्लो मोशन में एंट्री मार रहा है, उसके पीछे जैसा म्यूज़िक और लाइटिंग है, वो कई बार आपको इशू से भटका कर हीरो की कहानी देखने मजबूर करता नज़र आता है। महानायक वाली फ़िल्में चरस की तरह होती हैं, इनसे बस लोगों को खुमार चढ़ता है, ये विचारधारा पर असर नहीं डालती. हालाँकि इस तरह के विषयों पर बनी सभी फ़ेमस फिल्मों (काला, असुरन, करणन) का ट्रीटमेंट कुछ इस तरह का ही है.

जब फ़िल्म का प्रोड्यूसर ही लीड एक्टर हो या उसका रिश्तेदार फ़िल्म में किसी रोल में हो, तो अक्सर फ़िल्म के विषय के साथ ऐसी छेड़छाड़ होती है। अब डायरेक्टर वाकई इसी तरह ये ट्रीटमेंट दिखाना चाहते थे तो मैं उनकी ग़लती या कमज़ोरी मानूंगा। यह फ़िल्म एक रियल लाइफ़ केरेक्टर चंद्रू की ज़िन्दगी पर आधारित है. उनके लुक्स बड़े आम हैं, जबकि उनका चरित्र निभाने वाले को हीरो वाला मेक अप दिया गया है, ये भी सिनेमा बनाने और देखने की हमारी घटिया मानसिकता को दर्शाता है।

फ़िल्म का संगीत आप पर कोई छाप नहीं छोड़ता है इसलिए आपके कानों में ज़्यादा दिन नहीं गूंजेगा। जबकि फ़िल्म का विषय आपको यह फ़िल्म हमेशा याद रख वायेगा. अगर आपको जय भीम पसंद आये तो इसी तरह के विषयों पर बनी बेहतर फ़िल्में देखे, कोर्ट, आर्टिकल 15, शाहिद, फ़िर मिलेंगे, आक्रोश, मोहन जोशी हाज़िर हो, पार, नीचानगर, बवंडर, बेंडित क्वीन, इनमें फ़िल्म के चरित्रों का इंसानी व्यवहार के बेहद ज़्यादा करीब बनाया गया है। मुझे और खुशी होती अगर ये फ़िल्म हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट  जजों में फैले जातिवाद और केसों की इतनी बड़ी तादाद, वकीलों, जजों की कमी की वजह से हो रही देर को भी थोड़ा दर्शाती।

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