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“महिलाएं कुर्सी तक तो पहुंच गईं लेकिन सत्ता के गलियारे से अब भी वंचित हैं”

"महिलाएं कुर्सी तक तो पहुंच गईं लेकिन सत्ता के गलियारे से अब भी वंचित हैं"

आज के समय में बात की जाती है कि लड़कियों को अब समान अवसर मिल रहे हैं लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल विपरीत होती है। आज भी गाँवों-कस्बों में महिलाओं को अपने हक की लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़ती है, क्योंकि समाज महिलाओं को उनके विवाह होने के बाद ही उन्हें सफल मानता है। 

बिहार पंचायत चुनाव की प्रत्याशी प्रियंका

बिहार के सीतामढ़ी ज़िले के सोनबरसा प्रखंड के बिशनपुर गोनाही पंचायत से ताल्लुक रखने वाली प्रियंका की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।

आज भले ही प्रियंका बिहार पंचायत चुनाव में अपने गाँव से प्रत्याशी के रुप में खड़ी हैं लेकिन उनके लिए चुनौतियां कम नहीं हैं। उनसे हुई बातचीत में प्रियंका ने बताया, “मैं एक बिल्कुल सामान्य परिवार से हूं। मुझे शुरु से ही पढ़ना पसंद था, लेकिन गाँव में ना सरकारी स्कूल थे और ना प्राइवेट। 

उस समय कुछ लोग आसपास ट्यूशन दिया करते थे, जहां जाकर मैं भी ट्यूशन पढ़ा करती थी, ताकि मुझे अक्षर ज्ञान हो सके। मेरे घर वाले मेरी पढ़ाई में ज़्यादा पैसे खर्च नहीं करने वाले थे, क्योंकि हमारे यहां लड़कियों के जन्म से ही उनके दहेज़ के लिए पैसे जमा करना शुरु हो जाता है। ऐसे में ट्यूशन की फीस भरना ही एक बहुत बड़ी बात थी।”

गाँव में महिलाओं की समस्याओं को सुनती हुई पंचायत पद की प्रत्याशी प्रियंका।

अपने गाँव की पहली 10 वीं पास लड़की

वो आगे कहती हैं कि जब मैं 8वीं कक्षा में पहुंची, उस समय ही मेरे घर में मेरी शादी की बात होने लगी थी मगर मैं शादी नहीं करना चाहती थी।

मैंने यह बात अपने बड़े भैया विशाल को बताई, जिसके बाद उन्होंने मुझे आगे की पढ़ाई के लिए सपोर्ट किया और उन्होंने ही मेरा एडमिशन बगल के शहर में करवा दिया, जहां से मैंने अपनी 10वीं की पढ़ाई पूरी की।

वे आगे बताती हैं कि मैं अपने गाँव की पहली लड़की थी, जिसने 10वीं की परीक्षा फर्स्ट डिवीज़न से पास की थी। 10वीं की परीक्षा में अच्छे अंक आने के बाद मेरा हौसला और बढ़ा, उसके बाद  2013 में, मैं अपने भैया के साथ दिल्ली आ गई और यहीं से मैंने 11वीं फिर 12वीं की परीक्षा पास की।

मिरांडा हाउस से की आगे की पढ़ाई

एक दिन जब मैं इंडिया टुडे की मैगज़ीन पढ़ रही थी, उसमें मैंने दिल्ली के अच्छे कॉलेजों की लिस्ट देखी। उसी लिस्ट में मैंने मिरांडा हाउस का नाम देखा। इस कॉलेज का नाम देखकर ही मुझे वहां पढ़ने की इच्छा होने लगी, जिसके बाद मैंने अपने भैया को इसके बारे में बताया।

उस समय मेरे भैया ने कहा कि इस कॉलेज का कट ऑफ बहुत हाई जाता है इसलिए यहां एडमिशन मिलना बहुत मुश्किल है। उनकी बातों से मेरा मन थोड़ा उदास ज़रूर हुआ लेकिन मैंने उस कॉलेज के लिए अप्लाई कर दिया।

पहली, दूसरी, तीसरी और आखिरकार चौथी मेरिट लिस्ट में मेरा नाम आ ही गया, उसके बाद मैंने वहां फिलॉसिफी सब्जेक्ट में एडमिशन लिया। डीयू के अपने सफर के बारे में प्रियंका कहती हैं, “मिरांडा हाउस में एडमिशन लेना भी मेरे लिए एक सपना था, जिसने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया लेकिन वहां का माहौल अलग होने के कारण मुझे वहां थोड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।”

एक कहानी ने बदल दिया विज़न

वो आगे कहती हैं कि एक दिन जब मैं अपने भैया के साथ बैठकर अपनी यात्रा के बारे में चर्चा कर रही थी। उस दौरान ही मेरे भैया ने मुझे राजस्थान की छवि राजावत के बार में बताया, जो जयपुर के सोड़ा गाँव की सरपंच हैं और उन्होंने भी अपनी पढ़ाई दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से पूरी की है।

उनकी बातों को सुनने के बाद मुझे लगा कि उनकी कहानी भी मुझसे मिलती-जुलती है, तो मैं क्यों नहीं अपने गाँव की सरपंच बन सकती हूं? उसके बाद मैंने पंचायत के बारे में पढ़ा और उसके कार्यों के बारे में समझा। उसमें भी खासतौर से गांधी जी की कल्पना ग्राम स्वराज्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया। 

अब मेरे मन में एक सपना तो आ चुका था कि मुझे अपने गाँव जाकर कुछ बड़ा करना है लेकिन इस सपने की ओर मेरे कदम कैसे बढ़ेंगे? इसके बारे में अब एक उधेड़बुन थी। इसी बीच मैंने 2017 में मास्टर्स में एडमिशन ले लिया।

कानपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने के दौरान सर्वे करती हुई पंचायत पद की प्रत्याशी प्रियंका।

अपने आगे के सफर के बार में वो बताती हैं कि ‘मुझे साल 2017 में Youth Alliance की ओर से ग्राम्या मंथन कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर मिला, जिसके लिए मुझे अहमदाबाद जाने का मौका मिला। उस समय भी मेरे घर वालों की तरफ से दबाव था कि अब लड़की की शादी कर देनी चाहिए मगर मुझे आगे बढ़ता देखकर मेरी माँ ने मेरा हौसला बढ़ाया।’

उस कार्यक्रम में मैंने पंचायत और राजनीति के बार में जाना और लोगों के साथ अपने अनुभवों को भी शेयर किया। उसके बाद 2018 में मुझे फिर से कानपुर में टीम वर्क का हिस्सा बनने का अवसर मिला, जहां मैंने अपनी इच्छा जताई कि मुझे कानपुर में दो साल तक रहने दिया जाए, ताकि मैं गाँवों में रहकर वहां के लोगों के लिए कुछ कर सकूं।

वहां मुझे गंगादिन निबादा, खड़गपुर, बड़ी पलिया और छोटी पलिया गाँव का दायित्व सौंपा गया। यहां रहने के दौरान मैंने लोगों से बातचीत करने का सिलसिला आगे बढ़ाया और बच्चों के लिए बेहतर क्लासरुम की व्यवस्था के लिए आवाज़ उठाई।

पाठशाला से लाइब्रेरी तक सब कुछ

मैंने ‘शाम की पाठशाला’ नाम से एक प्रोजेक्ट की शुरुआत की और बच्चों के लिए कम्युनिटी लाइब्रेरी को विकसित किया और गाँवों में लोगों के लिए आंखों के ऑपरेशन के लिए कैंप भी लगवाए। ये सारी बातें, मैं यहां अभी जितनी आसानी से बोल रहीं हूं, उस समय ये सब बातें उतनी ही मुश्किल थीं, क्योंकि मैं एक लड़की थी।

खैर, वहां काम करने के बाद मैंने अपने गाँव लौटने का मन बना लिया था। उसके बाद 27 अप्रैल, 2020 को आखिरकार मैंने पंचायत चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया और जून 2020 के आखिरी तक मेरे कदम मेरे गाँव में पड़ चुके थे और अब मुझे अपने गाँव में काम करते-करते लगभग एक साल हो गया है।

महिला मुखिया सिर्फ नाम चेहरा नहीं

इस बीच मैंने प्रियंका से उनकी चुनौतियों के बार में भी पूछा, जिस पर उन्होंने बताया, “मैं इस बार चुनाव लड़ रही हूं लेकिन मुझसे पहले भी एक महिला ही गाँव की मुखिया है, जिन्हें कोई नहीं जानता है। यहां तक की उनका नाम भी किसी को नहीं पता है, क्योंकि अब भी मुखिया पति ही होता है या अन्य किसी पुरुष का ही सत्ता पर वर्चस्व है। समाज को लगता है कि एक लड़की क्या सत्ता संभालेगी?” 

वो आगे कहती हैं कि लोगों को लगता है कि एक लड़की के लिए रोटी बनाना ही सबसे सटीक काम है और इन बातों ने महिलाओं को इतना ज़्यादा घेर लिया है कि वे अपने अधिकारों को ही भूल गईं हैं।

गाँव में आम जन के लिए लगवाए गए आंखों के कैंप में आम जन की देखभाल करती हुई पंचायत पद की प्रत्याशी प्रियंका।

हमारे गाँव में एक पीएचसी (उपकेंद्र प्राथमिक अस्पताल) तक नहीं है। अगर हमारे गाँव में देखा जाए तो समस्याएं अनगिनत हैं, जिन्हें सुधारने की बहुत ज़रूरत है।

फिलहाल हमारी टीम में चार लोग हैं, जिनमें से मैं और आलोक नागरिक संगठन ग्राम-चेतना आंदोलन के तहत चेतना चौपाल कार्यक्रम चला रहे हैं। ये हमारा दो दिवसीय प्रोग्राम होता है, जिसमें हम गाँव-गाँव घूमकर लोगों को जागरुक करने का काम करते हैं।

प्रियंका अपनी नई पारी के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। अपनी आगे की रणनीति को लेकर उन्होंने बताया कि महिलाओं को शौचालय, माहवारी जैसे मुद्दों पर जागरुक करना है। वहीं बच्चों में होने वाले कुपोषण से भी लड़ना है, गाँव की सूरत को बदलना है, ताकि गाँव से पुरुषों का रोज़गार की तलाश में होने वाला पलायन भी रुक सके।

आज महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहीं हैं लेकिन राजनीति एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जहां पुरुषों का वर्चस्व हमेशा कायम रहा है। हालांकि, राजनीति में महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने के लिए सरकार ने कदम उठाए हैं, जिससे थोड़ी-बहुत स्थिति सुधरी भी है लेकिन तह तक जाने पर हमें मालूम चलता है कि सीट भले ही एक महिला ने जीती हो लेकिन सत्ता उस महिला के सबसे करीबी पुरुष के हाथों में ही होती है।

गाँव के चौपाल कार्यक्रम में पंचायत पद की प्रत्याशी प्रियंका।

राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए बिहार सरकार ने 50 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया है। वहीं अभी बिहार में पंचायत चुनाव की लहर ज़ोरों पर है और विभिन्न प्रतिनिधि भी चुनावी मैदान में उतरे हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं।

पहले के पंचायत चुनावों में महिलाएं खड़ी भी हुईं और पंचायत में विभिन्न पदों पर आसीन भी हुईं, परंतु उनके कार्यकाल पर पुरुषों का ही प्रभाव दिखा। अब प्रियंका जैसी और महिलाएं अगर आगे आएंगी, तब ज़मीनी स्तर पर भी सुधार होते दिखेंगे, क्योंकि महिलाओं को उनकी खोई हुई शक्ति से साक्षात्कार कराना भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है।

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