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“मेरी मातृभाषा संथाली ने मुझे बहुत कुछ दिया है”

विकीपीडिया अनुसार जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है, उसे उसकी मातृभाषा कहते है। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति  की सामाजिक और भाषाई पहचान होती है। मातृभाषा यानी जिस भाषा में माँ सपने देखती है या विचार करती है, वही भाषा उस बच्चे की मातृभाषा होगी। इसलिए इसे मातृभाषा कहते हैं, पितृभाषा नहीं।

मातृभाषा पर यहां महात्मा गाँधी के विचार का उल्लेख करना उचित है। गाँधीजी अंग्रेज़ी के प्रभावी ज्ञाता तथा वक्ता होते हुए भी मातृभाषा के महत्व को समझते थे। गाँधी जी के अंग्रेज़ी ज्ञान के बारे में किसी अंग्रेज़ विद्वान ने कहा था,

भारत में डेढ़ व्यक्ति ही अंग्रेज़ी जानते हैं। एक गाँधी जी और आधे जिन्ना साहब।

गाँधीजी शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा  को महत्व देते थे। वह अंग्रेज़ी भाषा को लादने को विद्यार्थी समाज के प्रति ‘कपटपूर्ण कृति ‘ समझते थे। उनका मानना था कि भारत में 90% व्यक्ति चौदह वर्ष की आयु तक ही पढ़ते हैं, अतः मातृभाषा में ही अधिक से अधिक ज्ञान होना चाहिए।

उन्होंने 1909 में स्वराज में इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए थे। उनके अनुसार

देश के हज़ारों व्यक्तियों को अंग्रेज़ी सिखलाना उन्हें गुलाम बनाना है।

गाँधी जी शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी माध्यम के कटु विरोधी थे। उनके अनुसार विदेशी माध्यम बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का अभाव पैदा करता है। ऐसा करना देश के बच्चों को अपने ही घर में विदेशी बना देता है। किसी जगह गाँधी जी ने ऐसा भी कहा है,

यदि मुझे कुछ समय के लिए निरंकुश बना दिया जाए, तो मैं विदेशी माध्यम को तुरंत बंद कर दूंगा।

घर पर मातृभाषा बोलनेवाले बच्चे मेधावी होते हैं

मातृभाषा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के शोधकर्ताओं के अनुसार “घर पर मातृभाषा बोलनेवाले बच्चे मेधावी होते हैं”।

मैं संथाल जाति से हूं और संथाली में बोलता हूं। हम संथाल भारत के बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा, उड़ीसा और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में निवास करते हैं।

भारत के बाहर नेपाल ,बांग्लादेश ,भूटान आदि देशों में है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ रीडिंग के शोधकर्ताओं के शोध निचोड़ के अनुसार संथाल बच्चे बुद्धिमान है, क्योंकि सरकार के प्रयास के बावजूद अनेक राज्यों के संथाल बहुल अंचलों में पहली कक्षा से संथाली माध्यम में पढ़ाई अभी आरम्भ नहीं हो पायी है। हम घर में तो पूरा संथाली में बात करते हैं लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी, बांग्ला,ओड़िया, असमिया अपनाने को बाध्य हैं।

किताबें

लेखकों के लिए मातृभाषा में लिखना गर्व की बात

किसी लेखक के लिए अपनी मातृभाषा में कलम चलाना अपने आप में गर्व का विषय है। मातृभाषा में लेखन बिल्कुल शुद्ध मौलिक लेखन है। लेखक दूसरों से अनुवाद या बनी बनाई बात नहीं लिखते, उसके दिल और दिमाग में जो विचार हैं, उसे ही कलम के रास्ते कागज़ पर उतारते हैं।

मैं संथाल जाति से हूं और संथाली भाषा मेरी मातृभाषा है। साहित्य की सेवा मैं अपनी मातृभाषा से ही करता हूं। आखिर जिस भाषा में मेरी जन्मदायिनी माँ सपने देखती है, उसकी सेवा क्यों ना करूं। मेरी संथाली में मौलिक दो पुस्तकें प्रकाशित है। एक कविता संग्रह दूसरी कहानी संग्रह।

संथाली में साहित्य लिखने की परंपरा बहुत पुरानी नहीं है लेकिन लोककथा, लोकगीत, बिनती और बांखेड़ के रूप में साहित्य की काफी पुरानी परंपरा है।

संथाल परिवार और संथाली भाषा

प्रत्येक संथाल परिवार में शाम से रात्रि विश्राम तक परिवार के बड़े बजु़र्गों का अखाड़ा चलता है। बच्चे अपने दादा -दादी या नाना – नानियों से गीत और कहानियां सुनते हैं और सीखते है। इस तरह से संथाली की अलिखित अति समृद्धि साहित्य पीढ़ी दर पीढ़ी मुंह जु़बानी चली आ रही है। संथाल के पुरखे लोग कहते थे,

ओल खोन दो थुति गे सोरेसा “अर्थात” लेखन से किस्सागोई ही श्रेष्ठ होता है। इस तरह की कहानी -गीत मुंह और दिमाग में ही रचनेवाले विद्वानों और किस्सागोई से संथाल समाज भरा पड़ा है।

यहां मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि संथाली भाषा की ध्वनियों को देवनागरी, बांग्ला, रोमन या अन्य लिपियों से स्पष्ट नहीं लिखा जा सकता है। यह समस्या काफी सालों से संथालों में थी लेकिन पंडित रघुनाथ मुर्मू ने इसका हल ढूंढ़ निकाला।

आदिवासी समुदाय

अंग्रेज़ी 1925 ई. में उन्होंने संथाली के लिए सठीक और वैज्ञानिक लिपि ‘ओलचिकी’ का खोज किया। यहां मैंने खोज शब्द का इस्तेमाल किया है, क्योंकि पंडित मुर्मू ने ही लिखा है कि उन्होंने ओलचिकी लिपि के सभी अक्षर और उसके लिए उच्चारित ध्वनि को प्रकृति से लिया है अर्थात ‘ओल चिकी’ पहले से ही था, केवल उन्होंने इसको खोज निकाला था।

लिपि और संथाली भाषा

ऐसी बात नहीं कि लिपि की खोज से पहले भी संथाली साहित्य नहीं लिखा गया है। लिपि की आवश्यकता महसूस करते हुए भी संथाली साहित्य देवनागरी ,बांला ,रोमन आदि लिपियों में लिखा गया। नॉर्वे से धर्म प्रचार के उद्देश्य से आये पी.ओ.बोडिंग साहब ने संथाली के लोकगीत और लोककथा के संग्रह को रोमन लिपि में प्रकाशित किया।

बोडिंग साहब का सबसे उल्लेखनीय काम संथाली शब्दों का संग्रह जो कि संथाली अंग्रेज़ी शब्दकोष के रूप में 8 खण्डों में प्रकाशित है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि संथाली लिखित साहित्य बोडिंग जैसे विदेशी धर्मप्रचारकों के हाथों से श्री गणेश हुआ।

संथाली साहित्य की लिखित साहित्य की युग 1854 से आरम्भ होती है लेकिन किसी संथाली और किसी मिशनरियों की सहायता के बिना 1897-98 में पहली पुस्तक की रचना माझी रामदास टुडू द्वारा हुआ, उन्होंने खेरवाल बंसो धोरोम पुथी नमक ग्रंथों की रचना की थी। यह एक धर्म ग्रन्थ है।

उसके बाद 1936 में पॉल झुझार सोरेन ने ‘ ओनोड़हें बाहा डालवाग ‘नामक पुस्तक की रचना की जो एक कविता संग्रह है। इस तरह से यह कहा जा सकता है कि संथाली लिखित साहित्य की परंपरा डेढ़ सौ साल की भी नहीं हुई है।

संथाली साहित्य की उन्नति

सही मायने में देखा जाए तो 1897 से अब तक संथाली साहित्य ने काफी उन्नति किया है हर साल सैकड़ों की संख्या में साहित्य की अनेक विधाओं में पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है ,पत्रिका भी बहुत सारी निकल रही है। पत्रिका के माध्यम से नये लेखकों और रचनाओं से परिचय होता है।

1925 में  पंडित रघुनाथ मुर्मू द्वारा संथाली के लिए वैज्ञानिक लिपि ओलचिकि की खोज, 1988 में अखिल भारतीय संथाली लेखक संघ की स्थापना, 2003 में भारतीय संविधान में संथाली भाषा का 8वीं अनुसूची में अंतरभुक्तकरण, 2006 से संथाली भाषा के लिए भी साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान का आरम्भ होना और सन 2016 में जुवान ओनोलिया नामक संथाली भाषा साहित्य की अंतरा्ट्रीय संस्था की स्थापना आदि ऐसी घटनाएं हैं, जिसने संथाली साहित्य के विकास में ईंधन की तरह काम किया।

पंडित रघुनाथ मुर्मू

अब संथाली में बहुत अच्छा-अच्छा साहित्य लिखा जा रहा है। संथाली से अन्य भाषाओं में और अन्य भाषाओं से संथाली में साहित्य का अनुवाद हो रहा है। मैंने पहले ही उल्लेख किया है कि किसी लेखक के लिए अपनी मातृभाषा में साहित्य रचना एक गर्व का विषय है। संथाली साहित्य के महान साहित्यकार पंडित रघुनाथ मुर्मू ने लिखा है,

आमाग ओड़ाग लागिद
आमाग दुवार लागिद
जांहाय दो बाय नेला
आमगेम नेला

अर्थात आपने घर और द्वार परिवार से इतर दूसरा व्यक्ति दिखेगा नहीं,अपने को ही देखना पड़ेगा। यहां पर भी अपनी मातृभाषा में लेखन खुद को ही करना पड़ेगा, इसके लिए दूसरा कोई आएगा नहीं।

बांग्ला के साहित्यकार माइकेल मधुसूदन दत्ता पहले अंग्रेज़ी में लिखते थे लेकिन ईश्वर चंद्र विद्यासागर के समझाने पर और मातृभाषा में ही साहित्य रचने लगे और उसे ख्याति अपनी मातृभाषा पर रचने पर ही हुई।

मातृभाषा मातृदुग्ध समान यह सर्वविदित है। वर्तमान में श्याम सी टुडू ,लाल चांद सोरेन, परिमल हांसदा, अनपा मार्डी, सुचित्रा हांसदा, मायनों टुडू, रानी मुर्मू, गुहिराम किस्कू जैसे युवा लेखकों के कलम से संथाली साहित्य लगातार समृद्ध हो रहा है।

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