साफ-सफाई हमारे समाज का हमेशा से हिस्सा रही है। फिर चाहे बात कलियुग की हो, त्रेता की या फिर उससे भी पहले की। शास्त्रों के अनुसार, देवी लक्ष्मी व अन्य भगवान वहीं वास करते हैं, जहां स्वच्छता होती है।
स्वच्छता अच्छे स्वास्थ्य का पर्याय है लेकिन आज हम इतने आलसी हो चुके हैं कि अपने आसपास लगे कूड़े के ढ़ेर आदि के बारे में सोचना भी नहीं चाहते। आज इधर-उधर कूड़ा फेंककर हम कईं बीमारियों को न्यौता दे रहे हैं।
भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की प्राथमिकता में भी स्वच्छता थी लेकिन ज़रा अपने आसपास देखिए, क्या आपका मोहल्ला, शहर, राज्य, देश साफ है?
तो कौन करेगा इसे साफ या कौन रखेगा इसे साफ? निश्चित रूप से हम ही साफ रखेंगे। जब शहर हमारा है, देश हमारा है, तो इसे स्वच्छ रखने का कर्तव्य भी हमारा ही है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गाँधी जी के स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने हेतु स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। स्वच्छ भारत अभियान या स्वच्छ भारत मिशन 2014, भारत सरकार द्वारा खुले में शौच को खत्म करने और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार के लिए शुरू किया गया एक देशव्यापी अभियान है।
यह 2009 में शुरू किए गए निर्मल भारत अभियान का एक पुनर्गठित संस्करण है। स्वच्छ भारत मिशन का चरण-1 अक्टूबर 2019 तक चला। चरण-2 को चरण-1 के काम को मज़बूत करने में मदद करने के लिए 2020-21 और 2024-25 के बीच लागू किया जा रहा है।
लोगों में अपने शहर व राज्य को स्वच्छ रखने के लिए एक सोच जागृत हो, इसलिए केंद्र सरकार ने “स्वच्छ सर्वेक्षण” की शुरुआत की। स्वच्छ सर्वेक्षण (स्वच्छता सर्वेक्षण) देशभर के गाँवों, शहरों और कस्बों में स्वच्छता का एक वार्षिक सर्वेक्षण है। इसे स्वच्छ भारत अभियान के हिस्से के रूप में लॉन्च किया गया था, जिसका उद्देश्य 2 अक्टूबर 2019 तक भारत को स्वच्छ और खुले में शौच से मुक्त बनाना था।
पहला सर्वेक्षण 2016 में किया गया था, जिसमें 73 शहरों (दस लाख से अधिक आबादी वाले 53 शहर और सभी राज्यों की राजधानियां) को शामिल किया गया था। 2020 तक सर्वेक्षण में 4242 शहरों को शामिल किया गया था, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा स्वच्छता सर्वेक्षण कहा गया था। सर्वेक्षण ‘भारतीय गुणवत्ता परिषद’ द्वारा किए जाते हैं।
इस सर्वेक्षण में नंबर एक आने के लिए हर नगर निगम/स्थानीय प्रशासन अपने ज़िले में स्वच्छता अभियान के ज़रिये लोगों को स्वच्छता के प्रति जागरूक करता है।
लेकिन कई शहरों के प्रशासन ऐसे भी हैं, जो केवल स्वच्छता सर्वेक्षण के लिए ही अपने शहर में साफ-सफाई कराते हैं फिर पूरे साल शहर की स्थिति क्या है, इसपर ध्यान देना भी उचित नहीं समझते। कूड़े की समस्या हमारे देश में बहुत बड़ी है। जैसे-जैसे भारत की आबादी बढ़ रही है, वैसे-वैसे प्रतिदिन कूड़ा निस्तारण की समस्या भी बढ़ रही है।
वर्ष 2009 में, आर्थिक कार्य विभाग के ठोस अपशिष्ट प्रबंधन संबंधित स्थिति पत्र में यह बताया गया है कि भारत की शहरी आबादी पहले ही प्रतिदिन 80,000 मीट्रिक टन कचरे का उत्पादन कर रही थी। यह दर्शाता है कि 2047 तक भारत एक वर्ष में 260 मिलियन टन कचरे का उत्पादन करेगा, जिसका निपटान करने का कोई ठोस तरीका आज तक हमारे पास नहीं है।
देश के कई शहर ऐसे हैं, जहां कूड़े के ढेर उस शहर की सुंदरता पर एक दाग जैसे लगे पड़े हैं। इनका ठोस निस्तारण तभी हो पाएगा, जब उस शहर के प्रशासन की इच्छा शक्ति प्रबल होगी। ऐसा ही एक शहर है उत्तर प्रदेश का मेरठ, जहां शहर की मुख्य सड़कों पर कूड़े के ढेर ऐसे लगे हैं, मानो इस शहर की पहचान ही यही है।
और बड़ी बात यह है कि शहर में लगे कूड़े के अधिकतर ढेर अवैध हैं और नगर निगम मेरठ इस समस्या का स्थाई समाधान करने में असफल हो रहा है। मेरठ शहर की रोहटा रोड़ जो कि मुख्य रोड़ में से एक है मगर वहां भी कूड़े का अंबार लगा हुआ है। पिछले कुछ दिनों से नहीं, बल्कि पांच से भी अधिक वर्षों से।
रोड़ के दोनों तरफ के वॉर्ड गोलाबढ़ व फाजलपुर का कूड़ा यहीं ऑन रोड़ लाकर फेंक दिया जाता है। इन वॉर्डों के गली-मोहल्लों के कूड़ा उठाने वाले अपने ठेले का कूड़ा यहीं पलट जाते हैं। निगम सफाई भी करवाता है लेकिन अगले तीन से चार दिन में स्थिति फिर वैसी ही हो जाती है।
क्या निगम को नहीं पता कि यहां कूड़ा कौन फेंक रहा है? क्या निगम नहीं चाहता कि गंदगी यहां से हटे? शायद चाहता है लेकिन कार्य करने के लिए इच्छा शक्ति भी तो होनी चाहिए! रोहटा रोड़ पर जहां यह कूड़ा पड़ा रहता है, वहां आसपास मीट व फल विक्रेताओं की दुकानें हैं। अब ज़रा सोचिए जो कीड़े-मकोड़े या मक्खियां उस कूड़े पर बैठती हैं, वहीं उन विक्रेताओं के फलों, सब्ज़ियों व मीट आदि पर बैठती हैं।
यानि वह तो खाने लायक बचा नहीं और उसी मीट, फल-सब्ज़ी को लोग लेकर जाते हैं और खाते हैं। ना निगम वो दुकानें हटवा रहा है और ना ही कूड़े का अवैध खत्ता। लोगों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए प्रशासन की प्राथमिकता उन दुकानों को हटवाना नहीं, बल्कि कूड़े के ढेर को हमेशा के लिए हटवाना होना चाहिए।
मैंने स्वयं स्थानीय प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में इसे लेकर लेख लिखे जो प्रकशित भी हुए, सिटिज़न रिपोर्टर बन इस कूड़े के ढ़ेर की रिपोर्टिंग की, जिसमें नगर निगम मेरठ से इन समाज के दुश्मन कूड़े के ढ़ेरो से मेरठ को मुक्त कराने की अपील की लेकिन अधिकारियों को कोई फर्क नहीं पड़ा।
इन्हीं कूड़े के ढ़ेर के बीच आसपास के जानवर, जैसे गौवंश, सूअर व कुत्ते आदि अपना खाना ढूंढने आते हैं। बंद पन्नियों में खाना देख वे उसे पन्नी समेत ही खा जाते हैं और कई बार मैंने कुत्ते, सूअर वहां मृत अवस्था में देखे भी हैं। शायद उनके मरने की वजह यह कूड़े का ढेर व इसमें पड़ी पन्नीयां रही होंगी. जिन्हें खाना समझकर उन बेजुबानों ने खाया होगा और वह पन्नी उनकी आंतों में जम गई होंगी, जिसका परिणाम उनकी मौत रही।
अतः नगर निगम की यह नज़अंदाज़ी ना केवल हम इंसानों के लिए खतरा बन रही है, बल्कि अब जानवर भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। मैं पुनः अपने इस लेख के माध्यम से निगम से यह अपील करना चाहूंगा कि वृहद स्तर पर शहरवासियों को घर में ही कूड़ा निस्तारण के तरीके बताएं, आवश्यकता पड़े तो इसे अनिवार्य करें व साथ ही शहर की मुख्य सड़कों और चौराहों पर लगे ये कूड़े के ढेरों को सदा के लिए हटाया जाए ताकि मेरठ कूड़ा मुक्त हो और यह दाग हमारे शहर से हटे।
नोट: सावन की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।