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उत्तराखंड: 21 साल का छलावा 

ततुक नी लगा उदैख, घुणन मुनई न टेक

जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में

गिरीश चंद्र तिवारी, जिन्हें हम गिरदा के नाम से जानते हैं। वो एक जनकवि होने के साथ-साथ पटकथा लेखक, गीतकार, गायक और निर्देशक भी थे।

उनके लिखे इस गीत में उत्तराखंड वासियों को निराश न होने की बात कही गई है. यह गीत उन्हें एक आशा देता है कि एक न एक दिन आएगा जब सब ठीक हो जाएगा. सब ठीक होने की इसी आशा को लिए उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने का सपना देखा गया, जो एक लंबे आंदोलन के बाद, 9 नवंबर 2000 को सच साबित हो गया. 

हालांकि, आज 21 साल बाद, अगर इतिहास के पन्ने पलटे जाएं, तो अलग राज्य की सोच और सब ठीक हो जाने का सपना छलावा दिखता है. ऐसा क्यों है इसे समझने के लिए, हमें उस सोच को फिर से रिकैप करना होगा जिसने कोसों दूर, दुर्गम पहाड़ों पर रहने वाले वासियों को अपनी लड़ाई लड़ने के लिए मैदानी सड़कों पर उतार दिया.

क्यों बना उत्तराखंड?

दरअसल, उत्तराखंड पहले उत्तरप्रदेश में आता था. लेकिन यह इलाका उपेक्षित रहा. वजह थी उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति. उत्तरप्रदेश जहां मैदानी इलाका था, वहीं उत्तराखंड दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र था. इस राज्य की अपनी अलग संस्कृति थी, भाषा थी, बोली थी और ऐसी चुनौतियां जिसकी किसी ने सुध न ली. 

चमोली के दुर्गम पहाड़ों में रहने वाले लोगों के लिए, लखनऊ बहुत दूर था. सिर्फ दूर ही नहीं, उत्तरप्रदेश की नीतियां पहाड़ के लोगों के लिए किसी भी स्तर पर प्रासंगिक नहीं थी. स्कूल, अस्पताल, रोड, बिजली ये मूलभूत साधन दूर की कौड़ी थी.

यही वजह रही कि उत्तराखंड को अपनी पहचान दिलाने के लिए, एक कोशिश की गई और लंबे आंदोलन के बाद इसे राज्य का दर्जा मिला. 

क्या है आज की तस्वीर

राज्य बनने के बाद, तस्वीर और तकदीर दोनों बदल गई हैं. राज्य बनने से हुए बदलावों के बारे में बताते हुए हिमांतर पत्रिका के संपादक और दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में असिस्टेंट प्रकाश उप्रेती कहते हैं, 

“अगर राज्य के गठन को भौगोलिक दृष्टि से देखें, तो पहाड़ के लोगों को फ़ायदा हुआ है. जो इलाहबाद और लखनऊ की दूरी थी वह देहरादून और नैनीताल में सिमट गई. अगर इसे संवेदना के नज़रिए से देखें, तो लोगों का लगाव अपने राज्य की तरफ बन पाया और ज़्यादा गंभीरता से इसके स्टेकहोल्डर बनें. राज्य बनने से लोगों के अंदर अपनेपन का भाव पनपा है.”

हालांकि, ज़मीनी हकीकत को देखा जाए या उन आंदोलनकारियों के सपनों के उत्तराखंड की तस्वीर सिर्फ़ लगाव और अपनेपन तक सीमित रह गई है. अगर बात करें संसाधनों के बंटवारे की तो आज भी कहानी वहीं की वहीं है. इसी बात को आगे बढ़ाते हुए प्रकाश कहते हैं,

“शुरुआत से ही हम कहते थे कि हमारे संसाधनों पर लगभग लखनऊ और इलाहबाद (अब प्रयागराज) की कुछ कंपनियों का कब्ज़ा है. वह सिलसिला आज भी बदसतूर जारी है.”

इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि उत्तराखंड देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी और रुद्रपुर में सिमट चुका है, और ऐसे में इस राज्य के पहाड़ी इलाकों में बैठे लोगों के हालात में ज़्यादा फ़र्क नहीं आया है. जो हालात उनके लिए अविभाजित उत्तराखंड के दौर में थे कमोबेश वैसे ही आज भी हैं.

इसी बात पर यो ज़िंदगी के संस्थापक और उत्तराखंड के निवासी बिमल रतूड़ी बताते हैं, 

“उत्तराखंड बनने के बाद, पहाड़ी राज्य होने के नाते संसाधन का बराबर वितरण नहीं था. इसलिए, रोज़गार के सभी साधन मैदानी ज़िलों में बढ़ने लगे और धीरे धीरे पहाड़ खाली होने लगे। हर एक राज्य अपने भौगालिक परिस्थिति के हिसाब से अपने लिए योजनायें बनाता है और उनके क्रियान्वयन के लिए प्रयास करता है पर न हम पहाड़ों में रोजगार का सिस्टम बना पाए और न ही संसाधनों को विकसित कर पाए।  देवभूमि होने के बाद भी हम एक सही सिस्टम नहीं बना पाए जिससे टूरिज्म के संसाधन विकसित होते।”

राज्य के विकास की हकीकत

अब जब बात राज्य के विकास की आती है, तो सरकारी महकमा ऑल वेदर रोड या डैम परियोजनाओं की बातें करके यह जता देता है कि राज्य का उद्धार प्रगति पर है. 

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए, पौड़ी ज़िले की निवासी और कवियित्री दीपिका घिल्डियाल का कहना है, 

“सिर्फ़ सड़के बना देने से ये साबित नहीं होगा कि उत्तराखंड, राज्य का दर्जा पाने के बाद विकसित हो गया है. बिना सूझ-बूझ सड़के बनाई जाती हैं. ध्यान नहीं रखा जाता कि पहाड़ों को किस कदर नुकसान हो सकता है. मैदानी इलाकों का विकास मॉडल किसी भी तरह पहाड़ में लागू नहीं हो सकता. यहां के लिए एक दूरगामी सोच चाहिए, जो प्रकृति और क्लाइमेट को ध्यान में रखे. वरना आपदा ग्रसित यह प्रदेश ग्रसित ही रहेगा.”

पहले नीतियां उत्तरप्रदेश केंद्रित थीं और आज देहरादून या हरिद्वार जैसे मैदानी इलाके केंद्रित. कहानी आज भी वहीं की वहीं हैं. अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए दीपिका कहती हैं,

“आपने सड़कें बना दीं, लेकिन आज भी उस सड़क तक पहुंचने के लिए गाँव में एक गर्भवती महिला को प्रसव के लिए पहाड़ चढ़ने-उतरने होते हैं. सड़क पर पहुंचने के बाद कहानी खत्म नहीं होती, कम से कम 4-5 घंटे दूर अस्पताल होते हैं जहां तक जाने के लिए साधन नहीं हैं. जैसे-तैसे अस्पताल पहुंच भी गए, तो वहां सुविधा नहीं है. ऐसे में राज्य के बन जाने से विकास हुआ या जिस राज्य का सपना देखा गया वह पूरा हुआ कहना धोखा है.”

पर्वतीय राज्य का संकल्प अधूरा

इन सारी बातों से एक सवाल उठता है कि क्या जिस सोच के साथ उत्तराखंड आंदोलन हुआ वह क्या आज सार्थक है या क्या हम उसे हासिल कर पाए? जवाब है नहीं. उस सोच तक पहुंचना तो दूर, हम शायद वह सोच वह संकल्प ही भूल गए हैं या सच कहूं, तो भुला दिए गए हैं. इसके बारे में आगे बात करते हुए प्रकाश कहते हैं, 

“हमारे आंदोलनकारियों की संकल्पना एक पर्वतीय राज्य की थी. ऐसा राज्य जिसके लोग अपनी संस्कृति के साथ कदमताल करते हुए पनपे. पहाड़ का पानी और जवानी दोनों पहाड़ के काम आए. गाँव घर खाली न हो और पलायन रुके, लेकिन राज्य बनने के बाद जैसे इसका विलोम ही हो गया.

उत्तराखंड, यहां के लोग और उन आंदोलनकारियों के साथ कहीं न कहीं मज़ाक हुआ है. किसी भी व्यवस्था के लिए राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक ढ़ांचे सुदृढ़ होने चाहिए, लेकिन इन 21 सालों में राजनैतिक गलियारों में मखौल ही उड़ा. यहां 21 सालों में 13 मुख्यमंत्री आए, दो बार राष्ट्रपति शासन लगा और लगातार लोगों को धोखा दिया गया. यह साफ दिखाता है कि राज्य की राजनैतिक व्यवस्था कितनी लचर है और ऐसे में राज्य बनाने के पीछे की मंशा आदोलनकारियों का संकल्प नहीं, सिर्फ़ कुछ लोगों का लोभ था.

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