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“बाल यौन शोषण पर चुप्पी नहीं, हमें आवाज़ उठानी है”

"बाल यौन शोषण पर चुप्पी नहीं, हमें आवाज़ उठानी है"

हां, आज मैं गुमसुम हूं, नाराज हूं, हताश हूं, निराश हूं, हां, नाराज हूं, नाराज हूं तुमसे, तुम सब से ।

अब पूछोगे तुम कि “नाराज हो हम से पर क्यों?” पर मैं इसका क्या जवाब दूं और कितनी बार जवाब दूं? हां, अब इसका जवाब मैं तुम्हें क्यों दूं? कितनी बार तो दे चुकी थी।

क्या अब तक ना सुनी थी कभी कोई मेरी मखमली आवाज़ एक बार सुन तो लेती कि मैं क्या कह रही हूं? सुन तो लेती कि मैं कितना दर्द समेटे जी रही हूं, सुन तो लेती कि हर रोज़ कितनी बार मर रही होती हूं मैं, मार खा रही होती हूं मैं, यौन शोषण का शिकार हो रही होती हूं मैं, एक बार अपनी इस अबोध बिटिया पर विश्वास करके तो देख लेती तुम!

ना कैसे सुनती तुम ! वक्त कहां था तुम्हारे पास मेरी बात सुनने को? वक्त कहां था तेरे पास 9 से 5 के अपने ऑफिस जॉब से, वक्त कहां था तेरे पास छुट्टियों में अपने ऑफिस फ्रेंड्स व क्लब मीटिंग / पार्टियों से, वक्त कहां था तुझे दूसरे के घरों में झांकने से, इधर-उधर की बेतुकी बातें करने से, वक्त कहां था तुझे अपने घर-परिवार को संवारने से, रोटियां गोल व कमरे साफ सुथरे करने से, क्या मैं तेरे उस घर का एक हिस्सा नहीं थी?

क्या कभी तुझे अपने खून से निर्मित गुड़िया को संवारकर उसके चेहरे के एक मुस्कान देखने की ललक ना जगी थी? हरदम हंसती, मुस्कुराती, खिलखिलाती चेहरों का दिन-ब-दिन इस तरह उतरना क्या तुझे नहीं दिख रहा था? दिन-ब-दिन सबसे अलग-थलग रहना भी क्या तुझे नहीं दिखा था?

नहीं, हमें नहीं लगता कि तुम इस उम्र में इतनी अंधी हो गई या तेरे सुनने की क्षमता में इतनी कमी आ गई नहीं, कैसे विश्वास करूं अब मैं कि तू वही मेरी माँ है।

मुझे गर्व होता था अपने दोस्तों को यह बतलाते हुए कि मैं मात्र 5 साल की उम्र में कैसे फर्राटेदार सड़कों पर साइकिल चलाना सीख गई और उसे सीखने के दौरान मुझे कहीं चोट तक नहीं आई। मेरी छाती चौड़ी हो जाती अपनी क्लास में 100 प्रतिशत उपस्थिति करने के कारण स्कूल में पुरस्कार पाते हुए, क्योंकि वो तुम थी जिसका हाथ मेरे सिर पर था। मेरे बुखार वाली रात को तेरा ना सोना व मेरे दर्द को अपने अंदर समेट लेना देखा था माँ मैंने देखा है तेरे उस निर्मल ह्रदय को।

मैं तेरे अंदर की दुर्गा के रूप से भी काफी परिचित हूं माँ मुझे आज भी बखूबी याद है कि कैसे मेरे द्वारा कुत्ते को कंकड़ मार देने पर उसका मुझ पर भड़कना व भौंकना और अपनी छाती से मुझे लगा उस कुत्ते के आगे डटकर खड़ा हो जाना देखा है माँ मैंने तू इतनी कमज़ोर भी नहीं है।

मुझे आप पर, पापा पर, परिवार पर और पूरे समाज पर कितना भरोसा था और आखिर भरोसा हो भी क्यों ना? हां जब आप सब मुझे इस खुले आसमान में उछालते थे, तो मैं कैसे खिलखिलाकर हंसती थी। मेरे मन में डर जैसा  कोई भाव ही नहीं था, क्योंकि मैं जान गई थी कि आप सब मुझे गिरने से पहले ही थाम लेंगे।  

मुझे पूरा भरोसा था कि आप सब की वजह से मैं सुरक्षित हूं और वही वो भरोसा था, जो वजह थी मेरे हंसने की, खिलखिलाने की, अपनों से लिपट जाने की और अब अब तुझे क्या हुआ? कहां गई तेरे अंदर की वो ममतामयी निर्मल हृदय की ममता, तेरा वो फौलादी दुर्गा जैसा वो अटल रूप, कहां गई वो मेरी कर्तव्यपरायणी माँ?

आखिर अब तुम चुप क्यों हो? हताश क्यों हो, क्योंकि वो अपना सगा ‘मामा, काका, चाचा, ताऊ, चाची, भाई, बाप’ है। ‘अपना’ कितना अच्छा अपने लिए उस कंस ने संज्ञा ढूंढ रखी है, एकदम से सुरक्षित लेकिन क्या?

तू अब भी उस “अपने कंस” व “अपने” घर की मान मर्यादा को बचाने के लिए अपने “खून से निर्मित” गुड़िया की  बलि ही देती रहोगी? क्या मैं इस घर की कोई मान मर्यादा नहीं हूं? बोलो अब तक तो तुम चुप ही थी। क्या अब भी मेरे लिए कुछ नहीं बोलोगी? क्या अब भी तुम चुप ही रहोगी?  

मैं भी तेरी अपनी ही हूं ना गुनाह तो उस “अपने” ने किया है लेकिन उस निर्मम और क्रूर समाज का हिस्सा होने के नाते गुनहगार, तो तुम भी कुछ कम नहीं हो माँ

खैर छोड़ो! तेरे जैसे कुछेक महिलाओं के अपने सगी-सम्बन्धियों के आगे झुक जाने, कमज़ोर हो जाने के चलते मैं पूरे स्त्री समुदाय को एक “कमजोर” की संज्ञा से कलंकित नहीं होने दूंगी। तेरे इस निष्ठुर गुमनाम से मैं अब  खुद को एक गुमशुदगी की ज़िन्दगी ना जिऊंगी।

मैं लड़ूंगी, हां, मैं लड़ूंगी अपने लिए अपने जैसे हर उस एक के लिए जिसे अपनों ने ही ठगा हो, जिनका बचपन उनके अपनों ने ही उनसे छीन लिया हो और जिनका भरोसा उनके अपनों ने ही तोड़ दिया है।

हां, मैं लड़ूंगी बिना रूके, बिना किसी की सुने अपने हर उस एक के लिए जो मुझे अपना मानता हो, सम्मान देता हो, अपने स्वतंत्र संघर्ष पूर्ण जीवन में स्थान देता हो और हां, अब लड़ना होगा मैं खुद ही लड़ूंगी।  मैं लड़ूंगी।

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