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बिरसा मुंडा कौन थे, जानिए उनकी शहादत एवं क्रांतिकारी कार्यों के बारे में

बिरसा मुंडा कौन थे, जानिए उनकी शहादत एवं क्रांतिकारी कार्यों के बारे में

वर्ष 1895 ई. के मानसूनी मौसम में, भविष्य में धार्मिक गुरु व ईश्वर का दर्ज़ा प्राप्त करने वाले 20 वर्षीय आदिवासी युवक बिरसा अपने मुंडा समुदाय के एक हम उम्र साथी के साथ जंगल में घूम रहे थे, तभी बिरसा के शरीर के पास आसमान से एक तेज़ बिजली गिरी। 

संयोगवश उसी क्षण उसके साथी की नज़र बिरसा पर पड़ी और उस नौजवान ने देखा कि बिरसा का चेहरा अपने साधारण भूरे-काले रंग से बदल कर चमकदार लाल और सफेद रंग में बदल गया है, वो यह देखकर आश्चर्यचकित हो उठा। 

 अपने साथी द्वारा देखे गए चमत्कार का वर्णन सुनने पर बिरसा के मस्तिष्क में बाइबिल के पाठ उमड़ पड़े और उसने घोषणा की कि यह देवता द्वारा उसके लिए उद्बोधन किया गया है और साथ ही भविष्य में ऐसे और भी चमत्कार होंगे।

जंगल से घर लौटने के उपरांत बिरसा के साथी ने क्षण भर में इस घटना को सबको बता दिया और इसके बाद यह बात आग की तरह आस-पास के गाँवों में भी फैलनी लगी। 

सर्वप्रथम मुंडा समुदाय से एक स्त्री अपने बीमार बच्चे के पुनः स्वस्थ हो जाने की कामना के साथ बिरसा की शरण में आई, बिरसा ने उस बच्चे पर अपना हाथ फेरते हुए मंत्र उच्चारित करते हुए आत्मविश्वास से उस बच्चे के ठीक हो जाने की घोषणा कर दी और इसके थोड़ी देर बाद ही उस बच्चे को स्वस्थ पाकर लोगों में बिरसा के अन्दर दैविक शक्तियों के होने की बातों को बल मिल गया जिस पर अब संदेह नहीं किया जा सकता था। 

बिरसा की अलौकिकता मुंडाओं के देश के कोने-कोने में फैल गई थी और इसके परिणामस्वरूप मुंडाओं के साथ-साथ गैर-मुंडा समुदाय के लोग भी उनके गाँव में भारी तादाद में आने लगे। इसी क्रम में जब लोगों ने शिकायत की कि उसके द्वारा प्रार्थना कर देखे गए कुछ लोग अब तक रोगमुक्त नहीं हुए हैं, तो बिरसा ने उनमें श्रद्धा की कमी बताते हुए उनके संदेहों को हमेशा के लिए खामोश कर दिया।

इस घटना के उपरांत बुद्धिमान बिरसा को आभास हुआ की लोगों में पकड़ बनाए रखने के लिए उसे ठोस विश्वास और श्रद्धा की ज़रूरत पड़ेगी। वो कुछ दिनों तक मौन रहा और काफी सोचने के पश्चात अपने लोगों के समक्ष आया और लोग उसकी बातों को सुनने के लिए आतुर थे। 

बिरसा के मुख से निकले एक-एक शब्द को लोगों ने ध्यानपूर्वक सुना। बिरसा ने वहां मौजूद लोगों को बताया की उनके समुदाय के हित के लिए स्वयं सिंगबोंगा ने उनसे कहा है, “अब से वे लोग सिर्फ एक ईश्वर को ही पूजेंगे बजाय उनके अनेको बोंगाओं के, जिन्हें वो अब तक अपने परम्परागत तरीकों से पूजते आ रहे थे। वे मांसाहार जीवन को त्यागें, वे अच्छा जीवन व्यतीत करें, वे लोग सदा साफ-सफाई का ध्यान रखें एवं वे हमेशा जनेऊ धारण करें ”। 

इस प्रकार एक नए धर्म की नींव बिरसा ने रखी जो वैष्णव व ईसाईयत से प्रेरित था। आज के समय में यह बिरसाईत धर्म के नाम से प्रचलित है।

भगवान बिरसा मुंडा की जन्मस्थली के पास लगी उनकी प्रतिमा

1886 ई. में बिरसा ने जर्मन ईसाई मिशन स्कूल चाईबासा में अपना दाखिला लिया था। उससे पहले उसने बुडजो स्थित जर्मन मिशन स्कूल से शिक्षा हासिल की थी। चाईबासा में बिरसा चार वर्षों तक रहा। इस बीच उसके साथ एक रोचक घटना घटी। 

एक बूढ़ी महिला ने उसके माथे की रेखाओं का निरीक्षण करने के बाद यह भविष्यवाणी की थी कि वह एक दिन बहुत बड़ा काम कर दिखाएगा और एक महान व्यक्ति बनेगा। इस अवधि में जर्मन लूथेरन और रोमन कैथोलिक ईसाईयों के भूमि आन्दोलन चल रहे थे। 

एक दिन चाईबासा मिशन में उपदेश देते हुए डॉ. नोट्रेट ने ईश्वर के राज्य के सिद्धांत पर विस्तार से प्रकाश डाला। इस उपदेश के श्रोता के रूप में बिरसा भी वहां उपस्थित था। डॉ. नोट्रोट का कहना था कि यदि वे ईसाई बने रहेंगे और और उनके अनुदेशों का अनुपालन करते रहेंगे तो उनकी छिनी हुई ज़मीन की वापसी कर दी जाएगी। इस बात का बिरसा और साथ ही सरदार समुदाय के आदिवासियों को बड़ा धक्का लगा।

बिरसा ने उसी समय डॉ. नोट्रोट और मिशनरियों की बहुत ही तीखे शब्दों में आलोचना की। इसका नतीजा यह हुआ कि बिरसा को उनके स्कूल से निकाल दिया गया। इस घटना के बाद उसने अपनी आवाज़ बुलंद की और नारा दिया “साहब साहब एक टोपी है अर्थात गोरे अंग्रेज़ और मिशनरी एक जैसे हैं।”

 सन् 1886-87 ई. में मिशनरियों से सरदारों का भी संबंध विच्छेद हो गया। उसके बाद मिशनरियों ने सरदारों को धोखेबाज कहना शुरू किया। चाईबासा में रहकर बिरसा ने उच्च प्राथमिक स्तर की शिक्षा पाई और इसके परिणामस्वरूप हिंदी और अंग्रेज़ी भाषा की थोड़ी बहुत जानकारी हासिल की। 

बिरसा हिंदी बोल लेता था किन्तु अंग्रेज़ी में बातचीत नहीं कर पाता था। बिरसा ने 1890 ई. में चाईबासा छोड़ दिया और उसके तुरंत बाद उसने जर्मन ईसाई मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी। उसने जर्मन मिशन त्याग कर रोमन कैथोलिक मिशन धर्म स्वीकार किया। वह उसके साथ कुछ दिनों तक रहा पर बाद में उस धर्म के प्रति भी उसके मन में विरक्ति आने लगी। उस ओर से वो निराश होकर अपने पुराने पारम्परिक रीति-रिवाज़ों की ओर लौट आया। 

सन 1891ई. में बंदगाँव में बिरसा की मुलाकात गैर मुंडा आदिवासी जमींदार जगमोहन सिंह के मुंशी आनंद पांड से होती है। आनंद पांड स्वांसी जाति का एक धार्मिक व्यक्ति था और इसके साथ ही वो जड़ी-बूटियों से संबंधित अच्छी जानकारी भी रखता था। 

उससे मिलकर बिरसा ने वैष्णव धर्म के प्रारम्भिक सिद्धांतों और रामायण, महाभारत की कथाओं को जाना। बिरसा ने आनंद पांड को अपना गुरू मानकर उसके साथ तीन वर्ष बिताए। इस अवधि में बिरसा ने गौड़बेड़ा, बमनी और पाटपुर आदि गाँवों का भ्रमण भी किया। भ्रमण के दौरान बमनी में एक वैष्णव साधू से उसकी मुलाकात हुई, जहां  बिरसा ने उस साधु से तीन महीने तक उपदेश सुने।

 उस साधु के उपदेशों से प्रभावित होकर बिरसा ने मांस खाना छोड़ दिया और जनेऊ धारण कर शुद्धता और धर्म परायणता का जीवन व्यतीत करने पर विशेष जोर दिया। बिरसा तुलसी की पूजा करने लगा और माथे पर चन्दन का टीका लगाना शुरू कर दिया। इस बीच बिरसा ने गो-वध को भी रूकवाया। 

इसके बाद में वह ईसाई और वैष्णव धर्म के मिश्रित प्रभाव में आकर धार्मिक आन्दोलन की ओर प्रेरित हुआ। सरदारों के भूमि संबंधी आन्दोलन के अदम्य प्रभाव ने बिरसा को मिशनरियों से भिड़ने के लिए प्रेरित किया। बिरसा ने सरदार आन्दोलन का अनुसरण किया और आनंद पांड का साथ छोड़ा। इसके बाद में उसने वन एवं भूमि संबंधी अधिकारों की मांगों को लेकर चल रहे सरदारी आन्दोलन में विशेष रूप से भाग लिया।

सन 1895 ई. में बिरसा के नए धर्म के आगमन के पश्चात उसके अनुयायियों में भारी बढोतरी हुई और इसके  परिणामस्वरूप बिरसा काफी उत्साहित हो गया। उसके धर्म को मानने वालों में ना सिर्फ मुंडा तथा गैर मुंडा समुदाय के भी आदिवासी लोग थे बल्कि वो लोग भी उससे जुड़े जिन्होंने ईसाईयत कुबूल कर ली थी।

बिरसा की लोकप्रियता को देखते हुए उसके कुछ अनुयायी उसे प्रेम से “भगवान” व “धरती आबा” अर्थात विश्व के पिता कह कर पुकारने लगे। बिरसा ने एक भरी सभा में अपने अनुयायियों से यह भी कहा था कि जो लोग उनके बताए रास्ते पर नहीं चलेंगे उन पर प्रलय आएगा।

 जब बिरसा के धर्म को ना मानने वालों पर प्रलय के संकट आने की बात चारों और फैली तब ब्रिटिश हुकूमत ने अपनी ओर से सभा की निगरानी के लिए सिपाही भेजे, जिनके साथ बाद में बिरसा के अनुयायियों ने दुर्व्यवहार कर उन्हें वहां से  भगा दिया। 

कुछ दिनों की चुप्पी के बाद ब्रिटिश हुकूमत की ओर से तब के ज़िला पुलिस अधीक्षक एक रात हाथी की पीठ पर सवार होकर अपने बीस हथियार बंद सिपाहियों के साथ बिरसा के गाँव आ धमके और होशियारी से बिरसा के मुंह में रुमाल ठूस कर उसे अपने साथ बंदी बनाकर ले गए।

सुबह जब उसके अनुयायियों को बिरसा की अनुपस्थिति के बारे मालूम चला तब उन्होंने बिरसा द्वारा की गई भविष्यवाणी को स्मरण किया “ यदि कभी सरकार उन्हें बंदी बनाकर कारागृह में डाल भी देती है, तो वो सशरीर चार दिनों के पश्चात पुनः अपने गाँव चलकर लौट आएंगे और उनकी जगह जेल में एक लकड़ी का लट्ठा छोड़ आएंगे।” 

इस बात के फैलने पर पुनः लोग चलकर गाँव की ओर आने लगे, चौथे दिन फिर से लोगों को निराश होना पड़ा, जब बिरसा अपने गाँव लौट कर नहीं आया। इसी के साथ बिरसा पर विश्वास करने वाले लोगों की संख्या में भी कमी आने लग गई।

बिरसा मुंडा को जेल ले जाते समय की तस्वीर।

सन 1895 ई. के नवम्बर माह में बिरसा को ढाई वर्ष की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई लेकिन महारानी विक्टोरिया के शासनकाल की हीरक जयंती के जश्न के अवसर पर बिरसा को समय से पूर्व रिहा कर दिया गया।

जेल से छूटने के बाद ही बिरसा ने सभा बुलाई, जहां पर उसने अपने अनुयायियों से निवेदन किया कि एक संगठन फिर से खड़ा किया जाए। उसने सभा में कहा कि अपने खोए हुए अधिकारों को फिर से हासिल करने और दुश्मनों को मार भगाने के लिए संगठन बनाना आवश्यक है। अनुयायी एवं शिष्यगण दो टुकड़ियों में बांट दिए गए। एक टुकड़ी पर धार्मिक प्रचार का भार था और दूसरी विद्रोह की तैयारियों में लग गई थी।

जैसे की विद्रोह की योजना बनाई गई थी बड़ा दिन (क्रिसमस) के एक दिन पूर्व 24 दिसम्बर 1899 को आंदोलनकारियों द्वारा तीरों से हमला किया गया। सिंहभूमि ज़िले के चक्रधरपुर थाने और रांची ज़िले के खूंटी, कर्रा, तोरपा, तमाड़ और बसिया थानों के अंतर्गत विद्रोह की आग दहक उठी।

खूंटी थाने का क्षेत्र इस आन्दोलन का केंद्र था। इस आन्दोलन के सिलसिले में मुरहू एंग्लिकन स्कूल भवन पर दो तीर चलाये गए किन्तु इन तीरों से किसी को चोट नहीं लगी। सरवदा ईसाई मिशन में रात 9 बजे के बाद गोदाम में आग लगा दी गई। कुछ गाँवों में घर जलाए गए।

सिंहभूमि के पोडाहाट क्षेत्र में तीरों के प्रहार के बजाय आग लगने की घटनाएं ज़्यादा हुईं। कूट्रूगूटू में 28 जनवरी को जर्मन मिशन का गिरजाघर जला दिया गया। इस तरह की कई घटनाएं जहां-तहां घटने लगीं। बिरसा अनुयायी जोर- शोर से नारे लगाते थे “हेन्दे राम्बड़ा रे केच्चे, केच्चे, पूंडी राम्बड़ा रे केच्चे  केच्चे”। इसका मतलब यह हुआ कि काले ईसाईयों और गोरे ईसाईयों का सिर काट दो परंतु हक़ीक़त में कोई ईसाई मारा नहीं गया। कुछ ईसाई विद्रोहियों के प्रहार से घायल अवश्य हुए थे।

बिरसा के एक अनुयायी के द्वारा कोर्ट में दिए गए बयान के कुछ अंश इस प्रकार हैं ” डोम्बरी बुरु (जंगल ) में जब हम बैठक के लिए मध्य रात में पहुंचे। बैठक की जगह पहाड़ी की चोटी पर थी। वहां हम साठ या अस्सी व्यक्तियों के करीब इकट्ठे हो पाए थे।” 

बिरसा एक पत्थर पर बैठ गए, जिस पत्थर पर बिरसा बैठे थे, उस पर कपड़ा फैला हुआ था। बिरसा पूरब की ओर अपना मुंह कर के बैठे थे और बाकी लोग उसके चारों ओर बैठे थे। आधी रात तक सब लोग इकट्ठा हो गए और कुछ ही समय बाद भी चंद्रमा गुलाबी होने लगा था, तभी बिरसा ने हमसे पूछा कि हमें किन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है? 

जगई के कुदादा और तीन-चार अन्य जिनके नाम मुझे नहीं पता, उन्होंने कहा कि हम ठेकेदारों, जागीरदारों और तीमारदारों के जुल्म से पीड़ित हैं, तब बिरसा ने हमें धनुष-बाण बनाने को कहा और हम सभी ने कहा कि हम उन्हें बनाएंगे। 

बिरसा ने कहा कि उन्होंने विभिन्न हिस्सों में बैठक कर ऐसा ही आदेश दिया है और हर वो व्यक्ति जो उसके धर्म से सम्बन्धित है, हथियार बना रहा है। बिरसा ने कहा कि हथियारों का इस्तेमाल ठेकेदारों, जागीरदारों, राजघरानों, हकीमों और ईसाइयों की हत्या के लिए किया जाना था। 

इकट्ठे हुए कुछ व्यक्तियों ने पूछा कि क्या राजघराने, हकीम और ईसाई हमें मारने के लिए अपनी बंदूकों से गोली नहीं चलाएंगे? बिरसा ने जवाब दिया कि हम नहीं मरेंगे, बंदूकें और गोलियां पानी में परिवर्तित हो जाएंगी। ईसाईयों के महान पर्व तक हमें हथियार तैयार करने थे। यह बैठक मुर्गे की बांग पर टूट गई।

डोम्बारी बुरु (डोम्बारी पहाड़)

बुर्जू गाँव में एक पुलिस कांस्टेबल और चार चौकीदार बिरसा के अनुयायियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए।  सोनपुर परगना के घने जंगलों में सीज़र नामक एक जर्मन सौदागर के सिर पर गोली मार कर हत्या कर दी गई।  रांची के चर्च में तीरों की बौछार से एक बढ़ई घायल हो गया था, जो बाद में इलाज के दौरान मारा गया था। 

कुछ दिनों तक रांची में अफरा-तफरी जैसा माहौल रहा और कुछ छुटपुट घटनाएं हुईं और आशंका जताई जा रही थी कि बिरसा के अनुयायी किसी भी दिन शहर में अचानक हमला कर सकते हैं। 

7 जनवरी, 1900 ई. को यह खबर अधिकारियों तक पहुंची कि रांची में धनुष-बाण, कुल्हाड़ियों और भाले से लैस तीन सौ मुंडाओं ने खूंटी थाने पर हमला कर एक सिपाही की हत्या कर दी और कुछ घरों में आग लगा दी है। विभाग के कमिश्नर फोर्ब्स और ज़िला उपायुक्त स्ट्रेफील्ड ने एक बार फिर डोरंडा में तैनात देशी इंफैंट्री के 150 पुरुषों के साथ खूंटी की ओर तेज़ी से कदम बढ़ाना शुरू कर दिया।

स्ट्रेफील्ड ने विद्रोहियों को चेतावनी दी कि यदि उन्होंने तुरंत आत्मसमर्पण नहीं किया तो उन पर गोलियां चलाई जाएंगी। उस समय विद्रोही बिना भयभीत हुए अड़े रहे, विरोध की भावना के साथ उन्होंने चिल्ला कर जवाब दिया कि वे लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं और इसके बाद गोलीबारी शुरू हुई और इसका जवाब विद्रोहियों ने पत्थरों और तीरों से दिया।

वो गोली का जवाब बहादुरी से तीरों से देते रहे। आखिर कितनी देर तक वे गोलियों के आगे टिक पाते इसलिए उन्हें उस समय की स्थिति को भांपते हुए अपने कदम पीछे करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं दिख रहा था।

उनके घने जंगलों में चले जाने के पश्चात जब अंग्रेज़ों ने युद्ध की स्थिति का जायजा लिया तो पाया कि चार मुंडा लड़ाके वीरगति को प्राप्त हुए और तीन घायल पाए गए साथ ही जंगल में तीन महिलाओं और एक युवक के शवों की भी प्राप्ति हुई। 

विद्रोहियों में से बहुत लोग गिरफ्तार हुए। अंतत: 3 जनवरी, 1900 ई. को बिरसा भी पकड़े गए। बिरसा को पकडवाने में जगमोहन सिंह के आदमी वीर सिंह महली का हाथ था, जो की अंग्रेज़ी हुकूमत के द्वारा रखे गए 500 रुपये के लालच में आकर उसके ठिकाने का पता अंग्रेज़ों को दे दिया था। 

बिरसा को पकड़कर रांची जेल भेज दिया गया, जहां 9 जून, 1900ई. की सुबह 9 बजे अचानक उसकी मृत्यु जेल में हो गई। ऐसा कहा जाता है कि बिरसा की मृत्यु हैजा के प्रकोप से हुई किन्तु ऐसी संभावनाएं व्यक्त की जाती रही हैं कि उसे अंग्रेज़ों द्वारा जहर दे कर मार दिया गया। इस तरह से छोटानागपुर की धरती के इस निडर सपूत का अंतकाल हो गया।

बिरसा के निधन के पश्चात अंग्रेज़ी हुकूमत के अधिकारी अब पहले से कहीं अधिक चिंतित थे। वे मुंडाओं के बीच असंतोष के लिए स्थाई समाधान सोच रहे थे। इसके परिणामस्वरूप 1908 ई. को काउंसिल में बिल को कानून का रूप देकर छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम का रूप दिया गया, जिससे की आदिवासियों के ज़मीनों की रक्षा दिकुओं (गैर आदिवासियों को कई जनजाति दिकू कहते हैं) से हो सके। 

दुर्भाग्यवश आज भी आदिवासी अपने ज़मीनों का स्वामित्व प्राप्त करने के लिए कोर्ट के चक्कर लगाते हुए दिख जाएंगे, जिनकी ज़मीनों पर आज भी दिकुओं ने अवैध रूप से कब्जा कर रखा है। आज भी आदिवासियों के लिए “अबुआ दिसुम, अबुआ राज“ (हमारे देश में हमारा राज) का नारा सपने जैसा ही है। क्या दिकु, क्या सरकारें हर कोई आदिवासियों के जल, जंगल और ज़मीन पर अपनी नज़र गड़ाए रखे हैं।

अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए फिर से आदिवासियों को ऐसे ही किसी चमत्कारिक क्रांतिकारी की आवश्यकता है, जो ना सिर्फ हमारे जल-जंगल-ज़मीन के अधिकारों के लिए लड़े बल्कि प्रकृति से सामंजस्य बैठा कर आदिकाल से चली आ रहीं हमारी परम्पराओं और इस अनूठी संस्कृति के प्रति समस्त समुदायों के लोगों को प्रेरित करे।

नोट:- यह लेख बिरसा मुंडा पर लिखी गई किताबों के गहन अध्ययन  तथा उन पर शोध कर रहे लोगों से हुई बातचीत के आधार पर लिखा गया है।

सन्दर्भ स्रोत:-

लेखक का परिचय : पंकज बांकिरा झारखंड के बंदगाँव क्षेत्र के रहने वाले हैं। वे ‘हो’ समुदाय के एक समाजसेवी हैं, उन्होंने B.Sc. (Computer) में स्नातक किया है और इस समय मनोविज्ञान की पढ़ाई कर रहे हैं।

नोट- यह लेख पहली बार आदिवासी लाइव्स मैटर पर प्रकाशित हुआ था।

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