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क्या होगा अगर हमने वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया?

हमारी दुनिया बड़ी तेजी के साथ बदल रही है। वर्तमान में पूरा विश्व कोरोना महामारी से त्रस्त है। मानव जीवन अस्त-व्यस्त हो चुका है। अभी के परिदृश्य में जलवायु परिवर्तन हमारे लिए अब कोई नई बात नहीं रह गई है। हमें यह पता नहीं कि भविष्य की दुनिया कैसी होगी? लेकिन इतना तय है कि अगर हम अपने जीवन-शैली को नहीं बदले तो वर्तमान से भी बुरा होगा। 

अभी हाल ही में 31 अक्टूबर से 13 नवम्बर के बीच ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन पर COP- 26 सम्मलेन का आयोजन किया गया। COP का अर्थ है ‘CONFRENCE OF PARTIES’ यानि कि सामान्य शब्दों में कहा जाए तो COP- 26 इस ग्रह पर, जलवायु सबंधित सबसे विशाल और सर्वाधिक महत्वपूर्ण सम्मेलन है।

वर्ष 1992 के पृथ्वी सम्मलेन में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) अपनाया गया था। तब से हर साल पूरे विश्व के प्रतिनिधि और संस्थाएं इस सम्मलेन में भाग लेते हैं और जलवायु सबंधित मुद्दों पर चर्चा करते हैं।

1992 से अभी तक के COP सम्मलेन के अंतर्गत UNFCCC को काफी विस्तारित किया जा चुका है। इसके अंतर्गत मुख्यतः ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की क़ानूनी मात्रा को निर्धारित किया गया है।

अगर देखा जाए तो इस साल COP- 27 होना चाहिए था मगर कोरोनो महामारी के कारण 2020 में COP- 26 का आयोजन नहीं हो सका था। इसलिए ग्लासगो सम्मलेन का नाम COP- 26 है।

आखिरकार COP- 26 इतना महत्वपूर्ण क्यों है?

यूएन महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने सम्मलेन शुरू होने के मौके पर कहा कि अगर हम अभी हवा का रुख नहीं बदले, तो पृथ्वी को बचाने का आखिरी मौका भी गवां देंगे। लेकिन उन्होंने इसे आखिरी मौका क्यों कहा? इसे समझने के लिए हमें पेरिस समझौते को समझना होगा।

वर्ष 2015 में पेरिस समझौता पारित हुआ था, जिसमे विश्व के सभी देश तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सिअस तक सीमित रखने के लिए प्रयास करने पर सहमत हुए थे। इसके साथ ही जलवायु संकट से निपटने के लिए वित्तीय संसाधनों का प्रबंध करने के लिए भी तैयार हुए थे।

पेरिस समझौते के समय एक ‘Paris Rulebook’ बनाया गया था, जिसकी समीक्षा 5 साल के बाद की जानी थी। इस तरह COP- 26 और महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि इसका आयोजन पेरिस समझौते के 5 साल बाद किया गया है। पेरिस समझौते के अंतर्गत अंतिम लक्ष्य निर्धारित था, उसे अंतिम रूप COP- 26 के अंतर्गत दिया गया है। इस तरह यह नियमों को अंतिम रूप देने का आखिरी मौका था, जिससे कि हमारा आने वाला भविष्य निर्धारित होगा।

सम्मलेन के दौरान किन-किन मुद्दों पर चर्चा हुई?

COP- 26 सम्मलेन में नेट शून्य उत्सर्जन की स्थिति को हासिल करने के लिए कोयले के प्रयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करने का निर्णय लिया गया है। सामान्य भाषा में नेट शून्य का अर्थ है कि जितनी मात्रा में हम कार्बन का उत्पादन कर रहे हैं, उतनी ही मात्रा में विभिन्न माध्यमों के द्वारा कार्बन को अवशोषित किया जाए।

अमेरिका ने अपना नेट शून्य का टारगेट वर्ष 2030 तक रखा है लेकिन वर्तमान परिद्दश्य के अनुसार, इस टारगेट को हासिल करना मुश्किल लग रहा है। चीन ने 2060 तक का टारगेट रखा है। चीन वर्तमान में CO2 का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। भारत ने भी अंततः नेट शून्य का लक्ष्य 2070 तय किया है। भारत भले ही कार्बन उत्सर्जन में आगे है मगर इसका प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन बहुत कम है।

वन सन वन वर्ल्ड वन ग्रिड

भारतीय प्रधानमंत्री ने सम्मलेन के दौरान सौर उर्जा के द्वारा पूरे विश्व को एक साथ जोड़ने के लिए ‘One sun One world One Grid’ की संकल्पना रखी, जिसका उद्देश्य पूरे विश्व को एक ग्रिड के माध्यम से जोड़कर स्वच्छ उर्जा की आपूर्ति करना है लेकिन यह योजना तभी सफल हो पाएगी, जब पूरा विश्व एक साथ पहल करेगा।

जलवायु वित्त

पेरिस समझौते के समय यह निर्धारित किया गया था कि विकसित देश संयुक्त रूप से 2020 तक विकासशील देशों को 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष जलवायु वित्त के रूप में देंगे मगर यह अभी तक अमल में नहीं लाया गया है।

हालांकि, अब COP- 26  के दौरान साल को बढाकर 2025 कर दिया गया है। जलवायु कार्रवाई और वित्त के लिए संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत मार्क कार्नी ने विश्व के सभी कॉर्पोरेट कंपनियों से आग्रह किया है कि इस धरती को बचाने के लिए वित्तीय रूप में सहायता करें।

जलवायु वित्त के अंतर्गत भी अनके चुनौतियां हैं। कई बार विकसित देश, विकासशील देशों को किसी अन्य उद्देश्य से दिए गए वित्त को भी जलवायु वित्त के रूप में जोड़ लेते हैं। जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए।

मिथेन उत्सर्जन को कम करना

इस सम्मलेन की एक सार्थक उपलब्धि यह रही कि 105 देशों ने 2030 तक अपने मिथेन उत्सर्जन को 2020 के स्तर से 30% तक कम करने का निर्णय लिया है। मिथेन गैस (CH4) ग्लोबल वॉर्मिंग के एक चौथाई हिस्से के लिए ज़िम्मेदार है। जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए मिथेन उत्सर्जन में कटौती का तकनीकी समाधान आसानी से उपलब्ध है।

नवीनतम आकलन से ऐसा अनुमान है कि औधोगिक मांस उत्पादन प्रणाली के द्वारा विश्व स्तर पर 32% मानवजनित मिथेन पशुधन से आता है। अतः मांस के उत्पादन के तरीके में बदलाव को जलवायु समाधान का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।

भारत ने अभी तक इसे समर्थन नहीं दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था में पशुधन और धान की खेती का बहुत महत्त्व है। मगर भारत भी मिथेन उत्सर्जन को कम करने के लिए अनेक कदम उठा रहा है।

निष्कर्षतः देखा जाए तो COP- 26 हमारे लिए आखिरी मौका इसलिए भी था, क्योंकि हमने अभी तक की बनाई गई नीतियों पर सही से अमल नहीं किया है। अगर यह मौका भी गंवा देते तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी एक आग के गोले के रूप में परिवर्तित हो जाएगी। इसलिए मानव को जीवन योग्य भविष्य बनाने के लिए वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना ही होगा।


नोट: YKA यूज़र आनंद कुमार साहिल की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।

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