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“प्लास्टिक प्रदूषण की समाप्ति के लिए हमें उचित प्रबंधन और तकनीक की ज़रूरत है”

"प्लास्टिक प्रदूषण की समाप्ति के लिए हमें उचित प्रबंधन और तकनीक की ज़रूरत है"

प्लास्टिक हम मनुष्यों को विज्ञान का वह उपहार है, जिसका हमने खूब इस्तेमाल किया, कर रहे हैं लेकिन अति किसी भी प्रकार की अच्छी नहीं होती है।

वर्तमान में प्लास्टिक हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है, जिसे हमें अपनी दिनचर्या से हटाना आज बहुत मुश्किल लगता है। प्लास्टिक विज्ञान का वरदान भले ही हो लेकिन आज यह मानव जाति और हमारे पर्यावरण के लिए एक अभिशाप साबित हो रहा है। आज पूरी धरती प्लास्टिक की गुलाम बन चुकी है, हम इसके चंगुल में फंस चुके हैं।

क्या आप जानते हैं कि प्लास्टिक का उपयोग करना पर्यावरण के साथ-साथ हमारे लिए भी कितना हानिकारक है? एक अध्ययन में चौंकाने वाला परिणाम सामने आया है, जिसमें कहा गया है कि वर्ष 2050 तक, 99 प्रतिशत समुद्र की पक्षी प्रजातियां प्लास्टिक को निगल चुकी होंगी। इसके साथ ही यह भी पता चला है कि बोतलबंद पानी में भी प्लास्टिक के सूक्ष्म कण मौजूद होते हैं यानि बोतलबंद पानी के सहारे भी हमारे पेट तक प्लास्टिक पहुंच रही है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि हम भारतीय प्लास्टिक का धड़ल्ले से इस्तेमाल तो कर रहे हैं, कचरा भी निकल रहा है लेकिन इसके निपटारण की हमारे पास कोई ठोस तकनीक अब तक नहीं है। इसी वजह से हमारे देश में आपको नाली-नालों में प्लास्टिक प्रदूषण ज़्यादा दिखाई देता है।

एक अनुमान के अनुसार, भारत में हर साल छप्पन लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है और इसके साठ फीसदी कचरे को महासागरों में प्रवाहित कर दिया जाता है। इसी को देखते हुए एक अनुमान यह भी लगाया गया है कि यदि इसी प्रकार हम महासागरों को प्रदूषित करते रहे तो वर्ष 2050 तक समुद्र आदि में जलीय जीवों से ज़्यादा आपको प्लास्टिक तैरता नज़र आएगा।

यह समस्या धीरे-धीरे बढ़ती नज़र आ रही है। यदि हम बात करें उत्तर प्रदेश सरकार की तो यह भी प्लास्टिक पर बैन लगाने में नाकाम साबित हो रही है और इसी ढ़ीले रवैये की वजह से प्रदेश के ज़िलों में भी लापरवाही बरती जा रही है। दूर कहां जाएं?

पश्चिमी यूपी का गढ़ माने जाने वाला शहर मेरठ भी आज प्लास्टिक से जंग लड़ रहा है। चाहे कितने अभियान या नियम/ आदेश दें लेकिन जैसे मेरठ प्रशासन के सिर पर तो जूं तक नहीं रेंगत़ी। यहां धड़ल्ले से पॉलीथिन इस्तेमाल होती है, पॉलीथिन जब्त करने के अभियान दो दिन चलकर ही रह जाते हैं।

शहर के दुकनदारों पर इन सब अभियानों से कोई खासा असर नहीं पडता है। शहर के मुख्य चौराहों पर कूड़े की  समस्या तो उभरती जा ही रही है लेकिन प्लास्टिक कचरे की समस्या मानो कूड़े की समस्या को टक्कर दे रही है। साप्ताहिक पैठों में खुल्लेआम फल/ सब्जी विक्रेता अपना सामान ग्राहकों को प्लास्टिक की थैलियों में देते हैं।

स्थानीय स्तर पर इसके बारे में जागरूकता केवल तब ही फैलाई जाती है, जब ऊपर से डंडा होता है। शहर की स्वच्छता पर लगे दाग ‘कूड़े के ढ़ेर’ में आपको अधिकतर कूड़ा प्लास्टिक की थैलियों में दिखाई देगा। उसी कूड़े को खाना समझ कर स्थानीय पशु थैली समेत कूड़ा खा जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है।

हाल ही में मेरठ प्रशासन द्वारा कचरे से बिजली बनाने का प्लांट लगाया तो गया है लेकिन फायदा तब है जब यह प्लांट लंबे समय तक काम करे, अधिकारी अपने निजी स्वार्थ को त्याग लोगों की जान से ना खेलें और प्लास्टिक कचरे के घर में ही निपटारण हेतु शहरवासियों को जागरूक करें।

यदि पर्यावरण हित से देखा जाए तो इस समस्या का सही समय पर निस्तारण नहीं किया गया, तो यह विकराल रूप धारण कर लेगी। पॉलीथिन धीरे-धीरे पृथ्वी को अपने अंदर खींच रही है, इसके तले हम दबते जा रहे हैं और इस  बात से ज़्यादातर लोग अनभिज्ञ हैं।

देश के प्रधानमंत्री ने भी सिंगल यूज प्लास्टिक को त्यागने की बात की थी व इसका देशवासियों से आवाहन किया था, लेकिन फिर भी लोग नहीं मान रहे हैं। कई सामाजिक संगठनों ने इसके खिलाफ मुहिम छेड़ी हुई है लेकिन फिर भी लोग प्लास्टिक को नहीं त्याग पा रहे हैं। एक प्लास्टिक बैग को पूरी तरह से मिट्टी में मिलने के लिए दशकों लग जाते हैं, सोचने का विषय है कि यह हमारे पर्यावरण के लिए कितनी हानिकारक है?

क्यों ना हम इस आज़ादी के अमृत महोत्सव (75वें वर्ष) यह संकल्प लें कि जब हम आज़ादी का शताब्दी महोत्सव मनाएंगे तो प्लास्टिक हमारे जीवन का हिस्सा नहीं होगी और इसके लिए आज से ही प्लास्टिक का बहिष्कार करना शुरू करें।


नोट: सावन की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।

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