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“पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से मानव जाति के भविष्य पर संकट”

"पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से मानव जाति के भविष्य पर संकट"

प्रकृति की खूबसूरती उसके संतुलन में निहित है। प्रकृति ने जहां एक तरफ जीव-जन्तुओं की रचना की, तो वहीं दूसरी तरफ पेड़-पौधों को भी अपने निर्माण में स्थान दिया।

प्रकृति नें इन जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की रचनाओं में अपनी खूबी झोंकते हुए इन्हें एक-दूसरे पर निर्भर कर दिया, जहां जीवन के लिए आवश्यक ऑक्सीजन के लिए हम पेड़-पौधों पर निर्भर हैं, तो वहीं अपने लिए आवश्यक कार्बन डाइऑक्साइड के लिए पेड़-पौधे हमारे ऊपर निर्भर हैं।

सृष्टि के आरम्भ में पृथ्वी पर जंगलों की भरमार थी, लेकिन धीरे-धीरे बढ़ती जनसंख्या के कारण मनुष्य को अपने जीवनयापन के लिए अधिक जगह की ज़रूरत पड़ने लगी और साथ ही घर के फर्नीचर, माचिस, कागज़ आदि की ज़रूरतों के लिए भी मनुष्य को इन्हीं पर निर्भर रहना पड़ता है जिसका परिणाम हमारे सामने पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई के रूप में सामने आया है।

इन वृक्षों की कटाई से मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं तो पूरी होती जा रही हैं लेकिन जाने-अनजाने में वह अपने लिए बड़ी आफत खड़ी करते हुए चला जा रहा है।

वनों की अंधाधुंध कटाई से हमारा पर्यावरण काफी तेज़ी से दूषित होता जा रहा है। कल-कारखानों एवं जीव-जंतुओं द्वारा निकाली गई कार्बन डाइऑक्साइड को पेड़-पौधे अवशोषित कर लेते हैं लेकिन वनों की कमी के कारण एवं कार्बन डाइऑक्साइड के अधिक उत्पादन के कारण इसका अवशोषण ना हो पाने से वह वातावरण में ही बनी रहती है, जिसका दुष्परिणाम हमारे वातावरण की गर्मी बढ़ने के रूप में सामने आता है, जिसे हम ग्लोबल वार्मिंग के रूप में जानते हैं।

ग्लोबल वार्मिंग के कारण हमें मौसम का असमान चक्र देखने को मिलता है, जो मानव जाति के लिए बिल्कुल अच्छा नहीं है। हम हर वर्ष देश के विभिन्न हिस्सों में कभी भयंकर बाढ़, तो कभी सूखे की खबरें सुनते रहते हैं, जिसमें जन-धन की अथाह हानि होती है और यह सब ग्लोबल वार्मिंग के ही नतीजे हैं।

इसके साथ ही पेड़-पौधों की अत्यधिक कटाई से वन-के-वन खत्म होते जा रहे हैं, जिसके कारण वहां रहने वाले जंगली जीव-जंतु या तो आवास के अभाव में विलुप्त होते जा रहे हैं या फिर वे मनुष्यों की बस्ती की ओर भागते हैं, जहां उनका सामना मनुष्यों से होता है जिसमें या तो वे खुद मारे जाते हैं या फिर इस भिड़ंत में मनुष्य घायल होते हैं।

प्राकृतिक आवासों के अभाव के कारण बहुत सारे ऐसे जीव-जंतु हैं, जो विलुप्ति की कगार पर खड़े हैं। अपने बचपन में जिस गौरैया को मैं अपने आस-पास चहचहाते सुना करता था, आज वह मुझे गाहे-बगाहे ही दिखती है।

यहां तक कि आमों को काटकर गिराने वाली गिलहरी भी अब मैं कम ही देख पाता हूं। यही हाल कांव-कांव करने वाले कौवे पक्षी का भी है। इन सब की घटती संख्या के पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कहीं-ना-कहीं पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई का भी योगदान है।

हमारे देश के कुछ निवासी, जिन्हें हम आदिवासी भी कहते हैं। मूल रूप से जंगलों में ही रहते आए हैं। वे जंगलों से ही अपना भोजन प्राप्त करते हैं और उसी से उनका जीवन चलता है।

इसके साथ ही वे अनादिकाल से जंगली औषधियों और पेड़-पौधों की रक्षा करते आए हैं लेकिन मनुष्य की लालची प्रवृत्ति ने उनके आवास को भी नहीं छोड़ा और विकास के नाम और उनके रहने के स्थान के जंगलों को काटा जाने लगा और जिसका परिणाम तथाकथित नक्सल जैसी समस्या के रूप में सामने आया है, जिससे आज भी हम जूझ रहे हैं।

पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से उपरोक्त समस्याएं तो आई ही हैं साथ ही इसके परिणाम स्वरूप भूमिक्षरण और मरुस्थलीकरण भी काफी तेज़ी से बढ़ा है, जो अंततोगत्वा हमारे लिए किसी भी तरह से लाभदायक नहीं है।

मनुष्य ने पेड़-पौधों की इस अंधाधुंध कटाई से अपने लिए एक बड़ी समस्या खड़ी कर ली है अगर पेड़-पौधों की कटाई का यही हाल रहा, तो आगे चलकर मानव जाति का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा। हम हर साल पेड़ों की कटाई रोकने, पर्यावरण संरक्षण आदि को लेकर विभिन्न प्रकार के सम्मेलन करते हैं।

लेकिन इन सभी सम्मेलनों का नतीजा शून्य ही रहा है। हर साल बड़े पैमाने पर होने वाले वृक्षारोपण हमें सिर्फ कागज़ों में ही दिखाई देते हैं। इसके साथ ही एक बार पौधा रोपते समय हम उसकी गिनती तो कर लेते हैं लेकिन उन पौधों में से कितने पौधे वृक्ष बने इसकी गिनती करना हम भूल जाते हैं।

यही हाल कागज़ी गंभीरता का भी है, हम कागज़ों में तो पर्यावरण संरक्षण के लिए गंभीर दिखते हैं लेकिन धरातल पर हालात इसके विपरीत रहते हैं।

हमें इस स्थिति से बाहर निकलना ही होगा और समस्त जीव-जाति की भलाई के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हम कागज़ी गंभीरता से बाहर निकलकर धरातल पर गंभीरता दिखाएं और अगर हम ज़ल्द ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो तय मानिए यह सम्पूर्ण सृष्टि के लिए एक बड़े गंभीर खतरे की बात होगी।


नोट: लेखक विवेक वर्मा, पेशे से एक शिक्षक हैं। विवेक की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।

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