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आज़ादी के 75 सालों बाद भी संस्कृति के रूप में कायम है दहेज़ प्रथा, क्यों?

आज़ादी के 75 सालों बाद भी संस्कृति के रूप में कायम है दहेज़ प्रथा, क्यों?

दहेज़ प्रथा की शुरुआत कहां से हुई एवं इसका ऐतिहासिक स्रोत कौन सा देश है? इस बारे में कोई ठोस प्रमाण नहीं हैं किंतु यूरोप, भारत, अफ्रीका और दुनिया के अन्य भागों में दहेज़ प्रथा का लंबा इतिहास है।

भारत में इसे दहेज़, हुंडा या वर-दक्षिणा के नाम से भी जाना जाता है तथा वधू के परिवार द्वारा नकद या वस्तुओं के रूप में, यह वर के परिवार को वधू के साथ दिया जाता है। आज के आधुनिक समय में भी दहेज़ प्रथा नाम की बुराई हर जगह फैली हुई है। दहेज़ प्रथा अभी भी हमारे देश में बहुत बड़ा अभिशाप बन कर चल रही है, जिससे कि बहुत सी लड़कियों की बिना वजह इसके चंगुल में फस जाने से जान चली जाती है। 

छोटे शहर हों या बड़े, गाँव हों या कस्बे मैंने कई जगहों पर दहेज़ को लेकर शादी जैसे पवित्र रिश्ते को चंद रुपयों के लिए टूटते देखा है। भारत देश में लड़की पैदा होने पर उसे मार देना का कहीं-ना-कही एक कारण देश की दहेज़ कुप्रथा है।

जहां लड़की को उसके जन्म से ही पराया धन, पराई अमानत कहके पुकारा जाने लगता है और यह सब शादी में दिए जाने वाले दहेज़ के करण होता चला आ रहा है, जहां देवी के अनेकों स्वरूपों को हमारे देश में पूजा जाता है ठीक उसी देश में आज भी लोगों की दहेज़ को लेकर इतनी विकृति मानसिकता का कारण मैं नहीं समझ  पाया। 

दहेज़ प्रथा की भयावहता को बयां करती प्रतीकात्मक तस्वीर।

सख्त कानून फिर भी दहेज़ लोभियों को डर नहीं 

देश की सरकार समय-समय पर महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के लिए कानून बनाती चली आ रही है लेकिन सतह पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं दिखाई देता है ।

“घरेलू हिंसा अधिनियम से पहले विवाहित महिला के पास परिवार द्वारा मानसिक एवं शारीरिक रूप से प्रताडि़त किए जाने की दशा में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498-क के तहत शिकायत करने का प्रावधान था। 

दहेज़ निषेध अधिनियम, 1961 में वर्ष 1983 में हुए संशोधन के बाद धारा 498-क को जोड़ा गया। यह एक गैर-जमानती धारा है, जिसके अंतर्गत प्रतिवादियाें की गिरफ्तारी तो हो सकती है पर पीडि़त महिला को भरण-पोषण अथवा निवास जैसी सुविधाएं दिए जाने का प्रावधान शामिल नहीं है, जबकि घरेलू हिंसा कानून के अंतर्गत प्रतिवादियाें की गिरफ्तारी नहीं होती है लेकिन इसके अंतर्गत पीडि़त महिला को भरण-पोषण, निवास एवं बच्चाें के लिये अस्थायी संरक्षण की सुविधा का प्रावधान किया गया है।”

सुप्रीम कोर्ट में दहेज़ के खिलाफ जनहित याचिका दायर

दहेज़ जैसी कुप्रथा पर रोक लगाए जाने के मकसद से और कानून को अधिक ज़िम्मेदार बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी।

सुप्रीम कोर्ट ने इस सप्ताह इस याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि ‘दहेज़ एक सामाजिक बुराई है और इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन बदलाव समाज के भीतर से आना चाहिए कि परिवार में शामिल होने वाली महिला के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है और लोग उसके प्रति कितना सम्मान दिखाते हैं।’

शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘वर्तमान में हमें महिलाओं की स्थिति पर ध्यान दिए जाने की बहुत ज़रूरत है। कानून होने के बावजूद दहेज़ जैसी सामाजिक बुराई के कायम रहने पर सुप्रीम कोर्ट ने इससे सम्बन्धित कानून पर फिर विचार करने की ज़रूरत बताई है।’

सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर याचिका को विधि आयोग के पास भेज दिया और कहा कि संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत उस तरह का कोई उपाय इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के बाहर है, जिसमें अनिवार्य रूप से विधायी सुधारों की आवश्यकता होती है। 

कैसे इस कुप्रथा को रोका जा सकता है? 

शिक्षित और अशिक्षित समाज में एक बहुत बड़ा अंतर है, ज़्यादातर दहेज़ उत्पीड़न के मामले कहीं-ना-कहीं कम पढ़े-लिखे लोगों के बीच ही देखे जाते हैं। मैं यह नही कह रहा कि शिक्षित लोग इस कुप्रथा के शिकार नहीं हैं लेकिन पढ़ाई में कमी और सामाजिक पिछड़ापन इस दहेज़ लोभी मानसिकता का कारण है।

हम अंत में यह कह सकते हैं कि सामूहिक व्यवहार की रीति के रूप मे लम्बे समय तक चलते रहने के कारण किसी प्रथा को शीघ्र समाप्त करना कठिन होता है, वह भी लोकतांत्रिक ज़रिये से, शिक्षा के प्रसार, अंतर्जातीय विवाहों के चलन तथा महिलाओं में जागरूकता के बढ़ने के साथ दहेज़ प्रथा का समाप्त होना संभव है, भले ही इसमें कुछ समय लग जाए। 

जिस तरह से हमने बाल विवाह जैसी सामाजिक कुप्रथा को खत्म किया ठीक उसी तरह हम सब अपने दृढ़ संकल्प एवं आपसी सहयोग से इस दहेज़ जैसी सामाजिक कुप्रथा को भी ज़ल्द ही अपने देश से खत्म कर देंगे। इस पोस्ट को पढ़ने वाला हर एक व्यक्ति इस संकल्प के साथ कि वह ना तो दहेज़ लेगा ना ही किसी को लेने देगा और महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ अपनी आवाज़ उठाएगा।

“जह हिन्द जय भारत”

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