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आज़ादी के 75 वर्षों बाद दलितों के मानवाधिकार एवं संघर्षों का भयावह सच

आज़ादी के 75 वर्षों बाद दलितों के मानवाधिकार एवं संघर्षों का भयावह सच

हरियाणा के रोहतक ज़िले का एक गाँव ककराणा, जो रोहतक की दक्षिण दिशा में 11 किलोमीटर की दूरी पर कलानौर तहसील का हिस्सा है।

ककराणा गाँव की, देश की राजधानी नई दिल्ली से दूरी 70 किलोमीटर है व नेशनल हाईवे 9 से दूरी 6 किलोमीटर है। इस गाँव की जनसंख्या 4500 के आस-पास व मतदाताओं की संख्या 2500 के लगभग है।

गाँव में बहुमत जाति ब्राह्मण, जो 80 प्रतिशत है। इसलिए गाँव के स्वागत गेट पर लिखा है, “ब्रह्मनगरी ककराणा में आपका स्वागत है।”

कलानौर तहसील में दलित जातियों के पास मौजूदा कृषि ज़मीन के आंकड़े चिंतनीय हैं। कृषि गणना 2015-16 के अनुसार, कलानौर तहसील में दलितों के पास 263 कृषि जोतें थीं, जो कुल 14789 कृषि जोतों का 1.77 प्रतिशत बनता है।

कलानौर तहसील में दलितों के पास मात्र 375 एकड़ ज़मीन है, जो तहसील की कुल 61355 एकड़ जमीन का 0.61 प्रतिशत है।

 ककराणा गाँव में 1455 एकड़ कृषि ज़मीन है लेकिन गाँव की दलित जाति जिसमें चमार व वाल्मीकि, जो 10 प्रतिशत के आस-पास हैं। इसके साथ ही ओबीसी जातियों में कुम्हार, नाई, लोहार, सैयामी हैं। उनके पास कृषि ज़मीन शून्य है।

वहीं दूसरी तरफ गाँव में ब्राह्मणों के पास खेती की 1455 एकड़ ज़मीन है। पिछड़ी व दलित जातियों में सरकारी जॉब भी नगण्य हैं। दलितों के पास कृषि ज़मीन ना होने के कारण उनको आजीविका के लिए तथाकथित उच्च जातियों की ज़मीनों पर मज़दूरी के लिए आश्रित रहना पड़ता है।

इसी कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी दलित शोषण का शिकार होता चला आ रहा है। इसके अलावा निर्माण मज़दूरी, प्राइवेट कंपनियों में काम या कुम्हार जाति से जुड़े कुछ परिवार खच्चर रेहड़ी से तूड़ी बेचने-खरीदने का काम करते हैं।

गाँव में 12वीं तक स्कूल है। गाँव में 2 मंदिर बने हुए हैं। इन्हीं मंदिरों के विवाद के कारण आजकल ककराणा गाँव सुर्खियों में आया हुआ है। गाँव में एक प्राचीन शिव मंदिर है। इस मंदिर में गाँव की दलित जातियों को आने की इजाजत नहीं है। दलित जातियों को मंदिर प्रवेश को लेकर गाँव में लंबे समय से तनाव बना हुआ है।

गाँव के नौजवान हेमंत उर्फ राहुल, जो प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े हुए हैं। हेमंत को भी मन्दिर में दलित होने के कारण जाने की इजाजत नहीं है। इसलिए हेमंत ने इस असमानता व अमानवीय परम्परा के खिलाफ बोलना व लोगों से बात करना शुरू किया लेकिन जैसे-जैसे ये चर्चा लोगों में बढ़ रही थी।

वैसे-वैसे बहुमत ब्राह्मण जाति में हेमंत के खिलाफ नाराजगी व गुस्सा बढ़ रहा था। हेमंत को जब सभी जगह बात करने के बाद निराशा हाथ लगी, तो उसने 2 नवंबर, 2021 को मंदिर में प्रवेश करने का ऐलान किया, जब ऐलान किया उस दिन से 2 नवंबर में 45 दिन बाकी थे।

मन्दिर में प्रवेश करने का ऐलान करते ही गाँव में खलबली मच गई। ब्राह्मण जाति के लोग एकजुट होने लगे। हेमंत के खिलाफ झूठे प्रचार किए जाने लगे। हेमंत के ऊपर 1 करोड़ रुपये की चोरी का आरोप है, जो मामला अभी कोर्ट में विचाराधीन है, अभी हेमंत जमानत पर बाहर है। इस चोरी के आरोप को आधार बनाकर तरह-तरह की अफवाहें हेमंत के खिलाफ फैलाई जाने लगी।

 इसके साथ ही गाँव में पंचायतों का दौर शुरू हो गया। इन सभी पंचायतों में गाँव की परंपरा को ना तोड़ने का ही फैसला लिया गया व इन सभी पंचायतों में हेमंत के खिलाफ दुष्प्रचार किया गया। 

31 अक्टूबर को जब हमने फोन पर हेमंत से बात की, तो उसने हमको बताया कि इस समय गाँव में तनाव बहुत ज़्यादा बढ़ा हुआ है। दलित बस्ती पर कभी भी हमला हो सकता है। गाँव के ब्राह्मण पंचायत करके डर का माहौल बना कर दबाव बना रहे हैं।

इसके साथ ही हेमंत ने मंदिर जाने के सवाल पर कहा कि मंदिर में मेरी आस्था है या नहीं सवाल यह नहीं है। सवाल समानता व हमारे संवैधानिक अधिकारों का है। गाँव में सार्वजनिक मन्दिर जिसमें कुत्ता, बिल्ली जा सकते हैं लेकिन गांव के दलित लोगों को नहीं जाने दिया जाता है। उनके जाने से मंदिर अपवित्र हो जाता है। इसलिए मन्दिर प्रवेश उसका व उसके दलित समाज की आत्मसम्मान की लड़ाई है।

हेमंत ने हमको बताया कि मंदिर में ही, प्रवेश वर्जित नहीं है, गांव के सार्वजनिक नलकूप से पानी भरना भी हमारे लिए पूर्णतया वर्जित है। गाँव की श्मशान भूमि में भी दलितों के लिए अलग व ब्राह्मणों के लिए अलग-अलग जगहें निर्धारित की गई हैं।

बीस साल पहले गाँव के ही संजय, जो चमार जाति से ही था, ने मंदिर जाने की बात की थी, उस समय भी गाँव में हंगामा हुआ था। उसके बाद गाँव के बाहर की तरफ नए मंदिर की 2001 में नींव रखी गई थी। ये मन्दिर बजट की कमी के कारण 2017 में बनकर तैयार हुआ। नए बने मंदिर में सबको जाने की अनुमति है। संजय का परिवार उसके बाद से अपना गाँव छोड़ कर रोहतक रहने लग गया। इस समय संजय की बीमारी से मौत हो चुकी है।

इस बारे में, जब हमने 31 अक्टूबर को गाँव के सरपंच हरि भगवान से फोन पर बात की तो उन्होंने सभी आरोपों से नकारते हुए कहा कि गाँव में शांति का माहौल है। गाँव के मंदिर में सभी जातियों को प्रवेश करने दिया जाता है, सिर्फ हेमंत जो एक अपराधी है उसको मंदिर में आने से रोका गया है, क्योंकि मंदिर में बेशकीमती सोने के आभूषण हैं। 

इसलिए गाँव के मंदिर में उसके आने पर पाबंदी है। सरपंच ने मंदिर को गाँव का सार्वजनिक मंदिर होने से ही इंकार कर दिया। उसने मंदिर को कुछ ब्राह्मण परिवारों का निजी मंदिर बताया।

इसके बारे में, जब हमने काहनोर चौकी इंचार्ज सब. इंस्पेक्टर सुरेश कुमार से बात की, तो उन्होंने भी सरपंच जैसा ही जवाब दिया। उसने भी हेमंत व दलितों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने की बजाय संविधान विरोधी कार्य करने वाले लोगों का साथ दिया। सुरेश ने भी मंदिर को कुछ ब्राह्मण परिवारों का निजी मंदिर बताया।

 31 अक्टूबर को कलानौर थाने में पुलिस की मौजूदगी में पंचायत हुई, जिसमें ब्राह्मणों की तरफ से साफ बोल दिया गया, किसी भी दलित को मंदिर प्रवेश किसी भी हालात में नहीं करने दिया जाएगा, चाहे इसके लिए हमें किसी की भी लाशें बिछानी पड़ जाएं। 

यह सब पुलिस की मौजूदगी में हो रहा था, लेकिन पुलिस दलितों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने की बजाय संविधान का उल्लंघन करने वालों का चुप रह कर साथ ही दे रही थी। पुलिस ब्राह्मणों पर कार्यवाही करने की बजाए हेमंत पर ही दबाव बना रही थी कि वो मंदिर जाने के फैसले से पीछे हट जाए लेकिन दोनों पक्ष अपने फैसलों पर अडिग रहे।

2 नवंबर को जब हम गाँव में कवरेज करने पहुंचे तो गाँव से दो किलोमीटर पहले ही पुलिस ने चेक पोस्ट लगाया हुआ था। पुलिस बाहर से गाँव आने-जाने वालों से पूछताछ कर रही थी, जब इस बारे में चेक पोस्ट पर तैनात ड्यूटी ऑफिसर से बात की तो उन्होंने बताया कि मंदिर में प्रवेश करने के लिए हेमंत के समर्थन में बाहर से लोग नहीं आएं, उनको रोकने के लिए ये चेक पोस्ट बनाई गई है। 

पुलिस ने गाँव के सभी कच्चे-पक्के रास्तों पर ऐसे चेक पोस्ट बनाए हुए थे। मुझसे भी पुलिस ने पूछताछ की मेरा जनचौक न्यूज़ का पहचान पत्र देखा, जब उनको ये विश्वास हो गया कि मैं पत्रकार हूं, तब ही उन्होंने मुझे गाँव में जाने दिया। 

गाँव के 100 मीटर अंदर जाते ही बाएं तरफ एक तंग गली जा रही थी, उस गली के आखिरी में हेमंत का मकान था। घर में हेमंत की माँ, उसके पापा, छोटा भाई व बहन के अलावा उसकी चाची व चाची का लड़का मौजूद थे। वो सभी बुरी तरह डरे हुए थे।

हेमंत की माँ निर्मला ने हमें बताया कि पुलिस एक तारीख की रात 11 बजे हेमंत व उसकी बुआ के लड़के सुमित को घर से ये बोल कर लेकर गई थी कि पुलिस अधीक्षक उनसे मीटिंग करना चाहते हैं, जब सुबह DSP से फोन करके हेमंत व सुमित के बारे में मालूम किया तो DSP ने साफ-साफ जवाब देने की बजाय कहा कि मालूम करके बताऊंगा कि उन्हें कौन सा थाना इंचार्ज लेकर गया है।

हेमंत की बहन प्रिया ने बताया कि मेरे भाई पर लगाए गए सभी आरोप बेबुनियाद हैं। हम सब अपने समानता व संवैधानिक अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, जब पंचायती लोग गाँव में एकता और भाईचारे की बात करते हैं, तो फिर मंदिर में क्यों नहीं घुसने दिया जाता दलित समाज को, पानी पर भी पाबंदी क्यों है, श्मशान में भी अलग-अलग जगहें बनी हुई हैं, ऐसा क्यों? हेमंत के पिता सुरेश ने भी प्रिया की बातों पर अपनी सहमति दी।

हेमंत के चाचा के लड़के नीरज ने हमें बताया कि हमने 2 नवंबर को जातिवादी मानसिकता के खिलाफ, गाँव के प्राचीन मंदिर में जाने व सभी सामाजिक प्रतिबन्ध, जो दशकों से चले आ रहे है, उनको तोड़ने के लिए गाँव में विरोध मार्च निकालने का फैसला व मंदिर प्रवेश का ऐलान किया था, लेकिन दूसरे पक्ष ने 2 तारीख को मंदिर में परशुराम जयंती मनाने का फैसला कर दिया, जबकि 2 नवंबर के आस-पास परशुराम जयंती नहीं है।

परशुराम जयंती के नाम पर गाँव के मंदिर के सामने महिलाओं व नौजवानों को लाठी-डंडे लेकर बैठाया हुआ है। ब्राह्मणों द्वारा पुलिस बल की मौजूदगी में दलितों की बस्तियों में से गुज़रते हुए लाठी, जेली, रॉड लेकर शक्ति प्रदर्शन किया जा रहा है।

गाँव में माहौल बहुत ज़्यादा खराब है। हेमंत का छोटा भाई रवि जो लॉ की पढ़ाई कर रहा है, ने अपने भाई की अवैध हिरासत पर चिंता जाहिर करते हुए बताया कि गाँव में पुलिस की मौजूदगी में ही ये शक्ति प्रदर्शन हो रहा है। प्रशासन कार्यवाही करने की बजाय एक मूकदर्शक की तरह तमाशा देख रहा है।

 गाँव की पंचायत सदस्य दर्शना ने सरपंच के बयान के विपरीत बताया कि गाँव के किसी भी दलित को मंदिर में जाने की इजाजत ना कभी पहले थी और ना आज है। इसके साथ में ही श्मशान भूमि में भी अलग-अलग जगहें बनी हुईं हैं, पानी भरने पर भी एतराज किया जाता है। गाँव के माहौल पर चिंता व डर जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि गाँव का मंजर देख कर लग रहा है कि हमारे घरों पर किसी भी समय हमला हो सकता है।

चमार जाति के बहुत से लोगों ने ये कहते हुए बात करने से मना कर दिया कि अगर हमने पत्रकारों से बात की, तो हमको भविष्य में ब्राह्मणों की तरफ से समस्या आ सकती है। उन्होंने कहा कि समुंदर में रह कर हम मगरमच्छ से बैर नही कर सकते है। इसलिए ‘हमारी चुप्पी ही हमारी सुरक्षा है।’

गाँव के ही रामनिवास जाति चमार ने बताया कि मंदिर सार्वजनिक है, गाँव की पंचायत भूमि पर बना हुआ है। कुछ लोगों ने इस मंदिर को निजी बनाया हुआ है, जब मैने सवाल किया कि मंदिर में किस का प्रवेश है और किस का प्रवेश वर्जित है, तो रामनिवास ने बताया कि दलित जातियों को छोड़ सभी जातियों को जाने की अनुमति है।

 गाँव के दलित मंदिर में जाना तो चाहते हैं लेकिन उनको जाने नहीं दिया जाता है। इस डर के चलते की कहीं कोई दंगा-फसाद ना हो जाए, दलित मंदिर जाने के नाम लेने से ही डरते हैं। गाँव के माहौल पर चिंता जाहिर करते हुए उन्होंने कहा कि गाँव का माहौल डरावना बना हुआ है। पुलिस 2-3 दिन रह कर चली जाएगी, उसके बाद तो हमको इसी माहौल में रहना है इसलिए हम चुप हैं।

बस्ती के बुजुर्ग करतार सिंह जिनकी उम्र 75 साल थी, जो पेशे से राजमिस्त्री रहे हैं। उन्होंने बताया कि गाँव के बहुमत लोग हमारे खिलाफ एकजुट हैं, जिसके कारण हम सभी डरे हुए हैं। पुलिस की मौजूदगी में दलितों को डराया जा रहा है। हमारा घर से बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया है, वो सब खुले आम लठ लेकर घूम रहे हैं।

1 नवंबर को बस्ती में धमका कर दलितों से समझौते पर हस्ताक्षर करवाए गए हैं। ब्राह्मण महिलाएं भी दलितों को सुना कर बोलती हैं कि लठ मारेंगे, मन्दिर की तरफ देखा भी तो। केस करोगे तो, केस लड़ने के लिए पैसा हमने इकठ्ठा किया हुआ है। मंदिर के सवाल पर उन्होंने बताया कि न मेरे दादा कभी मंदिर में गए, ना कभी मेरे पापा गए और ना कभी मैं गया। ये ब्राह्मण समाज किसी भी दलित को भी मंदिर में जाने नहीं देते हैं। 

मंदिर किसने बनाया है व किसकी भूमि पर बना इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि पुराने समय में वहां  मस्जिद होती थी। मुस्लिमों के जाने के बाद इस मंदिर को बनवाया गया है। गाँव के अलग-अलग ब्राह्मणों ने अलग-अलग समय पर इसके अलग-अलग हिस्से को बनवाया है।

बस्ती की ही दलित बुजुर्ग महिला 70 वर्षीय संतरा ने बताया की गाँव की ब्राह्मण महिलाएं कह रही हैं, इन दलितों को मार दो, इनकी सानी बना दो। मैंने कहा कि बना दो सानी, सानी भी कोई तो उठाएगा ही।

मंदिर जाने के सवाल पर उन्होंने कहा कि ना किसी ने हमको मंदिर दिखाया ना कभी देखने दिया। मंदिर के पास से भी जब हम गुज़रते हैं, तो ब्राह्मण महिलाएं बोलती हैं कि हमारा मंदिर है। किसी शादी या तीज त्यौहार पर मंदिर की पूजा करते हो या नहीं इस सवाल पर संतरा जी ने बताया कि हम दादा भईया, माता की धोक मारते व मन्दिर के बाहर गली में ही धोक-पूजा कर वापिस आ जाते हैं, मंदिर के अंदर नहीं जाने दिया जाता है।

बस्ती के ही नौजवान मज़दूर प्रदीप ने बताया कि उसने मंदिर में 15 दिन मज़दूरी का काम किया है, जब हनुमान की मूर्ति बनी, उस समय वो मंदिर में मज़दूरी का काम करते थे। उस समय किसी ने एतराज नहीं किया लेकिन मंदिर में पूजा करने का अधिकार हमें कभी नहीं दिया गया। उसने बताया कि मंदिर में बड़ा सा शिवाला है, राधा-कृष्ण, श्याम बाबा की मूर्तियां लगी हुई हैं, जिन्होंने ये मंदिर बनवाया है, उनकी अंदर अलग-अलग नेम प्लेट भी लगी हुई हैं।

प्रदीप ने ये भी बताया कि जब मज़दूर मतलब दलित से काम करवाते हैं, उसके बाद काम पूरा होते ही मंदिर को गंगा जल का छिड़काव करके शुद्ध किया जाता है।

गाँव के वाल्मीकि जाति या OBC जातियों से संबंधित परिवारों से हमारी बात नही हो सकी, क्योंकि गांव में पत्रकारों को कही भी जाने नहीं दिया जा रहा था। गांव की गलियों में लठ, जेली, रॉड लिए 15 साल से 70 साल तक के जातिवादी गुंडे सरेआम घूम रहे थे। पुलिस ये सब मूक दर्शक बनकर तमाशा देख रही थी।

पुलिस ड्यूटी ऑफिसर ऐसे गुंडों पर कार्यवाही करने की बजाय उनके घरों में बैठ कर चाय-बिस्किट का आनन्द ले रहे थे। जातिवादी गुंडों द्वारा हमें साफ बोल दिया गया, अगर इस दलित बस्ती की गली से बाहर आए तो अंजाम बुरा होगा। मूक नायक नाम से you tube न्यूज़ चलाने वाले पत्रकारों को भी धमकाया गया। उनको भी साफ-साफ बोल दिया गया कि एक भी वीडियो मत बनाना नहीं तो अंजाम ठीक नहीं होगा।

मुझे CID कर्मियों ने भी कहा कि यहां कुछ भी हो सकता है इसलिए अपनी सुरक्षा में ही बचाव है लेकिन इस सबके बावजूद हम कुछ वीडियो उस खुली दहशतगर्दी की बनाने में कामयाब रहे।

हम ककराणा गांव से रोहतक आए, वहां आकर जब हमने रोहतक पुलिस अधीक्षक उदय सिंह मीणा से फोन पर बात की व गाँव के बारे में चिंता जाहिर की, तो उन्होंने मुझे बताया की उन्होंने अभी गाँव के वीडियो देखे हैं और गाँव में माहौल एकदम शांत है।

लेकिन जब मैंने पुलिस अधीक्षक को हमारे पास मौजूद वीडियो (जिसमे ब्राह्मण समाज के लोग लाठी, जेली, रॉड लेकर दलित बस्तियों में दहशत फैला रहे थे) देखने का आग्रह किया, तो उन्होंने हमारे भेजे वीडियो देखे। वीडियो देखने के बाद पुलिस अधीक्षक ने एक घण्टे में सब ठीक करने का हमको आश्वासन दिया।

पुलिस अधीक्षक की कार्यवाही के बाद गाँव में माहौल शांत हुआ व गाँव के ब्राह्मणों की तरफ से ही मंदिर के रेडियो से अनाउंस किया गया कि गांव के सभी नागरिक चाहे वो किसी भी जाति से हैं, वो मंदिर में आ सकते हैं। पुलिस अधीक्षक को दिखाने के लिए कुछ दलितों को मंदिर में प्रवेश कराने का भी ड्रामा किया गया। 

यह रिपोर्ट लिखे जाने तक एक बार के लिए गाँव में माहौल शांत हो चुका था। हेमंत व सुमित को पुलिस ने छोड़ दिया था। इस पूरे मामले के बाद हरियाणा में एक बार फिर दलितों के हालात, उनके संवैधानिक अधिकार, जातीय उत्पीड़न, सत्ता व प्रशासन का दलित जातियों के मुद्दों पर व्यवहार व सामाजिक न्याय पर चर्चा चल निकली है।

हरियाणा के लगभग सभी छद्म दलित एक्टिविस्ट को भी ककराणा गाँव के मसले ने उनके चेहरे से झूठा नकाब उतार दिया है, जिस समय हेमंत व उसके परिवार व गाँव के दलितों को दलित एक्टिविस्ट के साथ की बहुत ज़रूरत थी ठीक उस समय वे उनके साथ खड़े होने की बजाय हेमंत को ही मन्दिर प्रवेश के मसले पर भला-बुरा कह रहे थे।

एक बसपा नेता तो हेमंत के घर 3 तारीख को गया सबसे पहले तो उसने परिवार के लोगों को ऐसे फैसलों के लिए भला-बुरा कहा फिर भविष्य के लिए बहन मायावती के हाथ मज़बूत करने की बात की, क्या ऐसे नेता दलितों का साथ देंगे?

कालाराम मन्दिर सत्याग्रह 2 मार्च, 1930 को भीमराव आम्बेडकर द्वारा अछूतों के मन्दिर प्रवेश के लिए चलाया गया आंदोलन था। नासिक के कालाराम मन्दिर में यह सत्याग्रह हुआ था, क्योंकि भारत देश में हिन्दुओं में ऊंची जातियों को जहां जन्म से ही मन्दिर प्रवेश का अधिकार था, लेकिन हिन्दू दलितों को यह अधिकार प्राप्त नहीं था।

इस सत्याग्रह में करीब 15 हज़ार दलित लोग शामिल हुए थे, जिनमें से ज़्यादातर महार समुदाय के थे और अन्य चमार समुदायों से थे। महिलाओं की इसमें भारी संख्या थी। 5 वर्ष 11 महीने एवं 7 दिन तक यह सत्याग्रह चला था।

भीमराव आम्बेडकर ने कहा था, “हिन्दू इस बात पर भी विचार करें कि क्या मन्दिर प्रवेश हिन्दू समाज में दलितों के सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का अन्तिम उद्देश्य है? या उनके उत्थान की दिशा में यह पहला कदम है? यदि यह पहला कदम है, तो अन्तिम लक्ष्य क्या है? यदि मन्दिर प्रवेश अन्तिम लक्ष्य है, तो दलित वर्गों के लोग उसका समर्थन कभी नहीं करेंगे। दलितों का अन्तिम लक्ष्य है सत्ता में भागीदारी।’’

ककराणा गाँव की घटना कोई पहली घटना नहीं है और ना नहीं कोई आखिरी घटना है। यह सदियों से चली आ रही जातीय नफरत के खिलाफ संघर्ष है, जब आप अपने आस-पास नज़र घुमा कर महसूस करेंगे, तो आपको ऐसी जातीय नफरत महसूस हो जाएगी। 

हरियाणा तो ऐसी जातीय नफरतों के लिए गिनीज बुक में नाम दर्ज़ करवाने की लाइन में खड़ा है। दुलीना, हरसौला, गोहाना, मिर्चपुर, भगाना, डाबड़ा, भाटला, ककराणा ऐसी तमाम जगहें हैं, जहां जातीय नफरत ने अपना जहर उगला है व दलितों को अपनी जातीय नफरत का शिकार बनाया है।

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