Site icon Youth Ki Awaaz

“लैंगिक भेदभाव, आर्थिकी एवं हमारे बिगड़ते स्वास्थ्य के लिए पर्यावरण प्रदूषण ज़िम्मेदार है”

पर्यावरण

पर्यावरण परिर्वतन की रफ्तार इस कदर बढ़ रही है कि आज वो हमारे सामने एक के बाद एक चुनौती ला रहा है। हम आए दिन देखते हैं कि कही बाढ़ तो कही पहाड़ गिर रहे हैं, कही सूखा पड़ रहा है, नदियां लुप्त हो रही हैं, तूफान आ रहे है, तो कहीं ज्वालामुखी की आग के कारण जंगल चपेट में आ रहे हैं।

प्रकृति धीरे-धीरे अपना विकराल रूप दिखा रही है और अगर हम अब भी नहीं संभले तो हमारा अंत ज़्यादा दूर नहीं है। कोविड-19 के दौरान हमने देखा कि कैसे लॉकडाउन के 3 महीनों में सब कुछ कितना सुंदर और तरोताजा लग रहा था। इससे हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि हम पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं।

आज से 10 साल पहले की मैं बात करूं तो गाँव का मौसम बहुत खुशनुमा रहता था। रात को सोने के लिए एसी, कूलर की ज़रूरत नहीं होती थी। नीम, आम, पीपल के पेड़ ही काफी होते थे, लेकिन धीरे-धीरे पेड़ो की जगह इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों ने ले ली।

गाँवों में भी अब पेड़ो की कटाई बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। वहां अब हरियाली की जगह उड़ती हुई धूल नज़र आती है। वर्षा की कमी के कारण तालाब, कुएं, नदी सूख रहे हैं और स्वच्छ पीने का पानी तक नहीं बचा है।

इन सबकी भरपाई महिलाओं को करनी पड़ रही है, क्योंकि उन्हें पीने के पानी की आपूर्ति के लिए 2 से 3 किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ रहा है। पहले की तुलना में अब धरती का तापमान तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसका नुकसान हम भारी मात्रा में उठा रहे हैं।

अगर मैं अपने गाँव और उसके आस-पास के गाँवों की बात करूं, तो इस समय वहां पानी की कमी बढ़ती जा रही है, जिससे किसानों को खेती करने में बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। अब अनाज, फल, सब्जियों का उत्पादन कैमिकल से बनी कीटनाशक दवाईयों के द्वारा किया जाता है जिससे मिट्टी की उपज कम होती जा रही है।

भिंडी जैसी सब्जियों की खेती एक बार करने के बाद खेत की ज़मीन 3 साल तक फसल करने योग्य नहीं रहती है। वर्तमान में पानी की कमी के कारण किसान खेती के लिए कीटनाशक दवाइयों का उपयोग अधिक मात्रा में कर रहे हैं, जिनके कारण कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां होने लगी हैं।

इसके साथ ही लोगों को नई-नई बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है। फल सब्ज़ियों के साथ विटामिन, प्रोटीन की जगह ज़हरीले केमिकल्स भी हमारे शरीर में जा रहे हैं, जिससे कम उम्र में ही लोगों को गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

दूसरी तरफ औद्योगिकीकरण के कारण फैक्ट्रीज से निकलने वाला गंदा कैमिकल पानी जिनका निकास तालाब, नहर, नदियों में है, किसानों द्वारा उसी पानी से ही खेतों में सिंचाई की जा रही है। अब आप सोचिए कि आप बाज़ार से अच्छी-अच्छी सब्जियां, जो आप घर ला रहे हैं, उनके साथ कितना ज़हर आपके घर आ रहा है।

यदि हम राजस्थान के जमवारामगढ़ क्षेत्र की बात करें, तो वहां कृषि व मनरेगा के अलावा रोज़गार का कोई और साधन नहीं है। वर्षा ना होने के कारण लोग गाँवों से शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। कई गाँव तो खाली होने के कगार पर हैं। महंगाई ने लोगों की आर्थिक तंगी और बढ़ा दी है, जिसका असर समाज के हर तबके पर पड़ रहा है और इन सब में सबसे अधिक महिलाएं और बच्चे प्रभावित हुए हैं।

आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण कई गाँवों में लड़कियों ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी है और खेती मज़दूरी कर अपनी और अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा कर रही हैं। पुरुष रोज़गार के लिए शहरों की तरफ निकल गए हैं तो घर की पूरी ज़िम्मेदारी अकेली महिला पर आ गई है। इसके कारण वह खेती कर अपना घर भी चलाती है और अपने परिवार को भी संभालती है, तो उसका भार और अधिक बढ़ गया है। इस दौरान महिलाओं को कई बार यौन हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।

कोविड-19 के दौरान, जब मैं अपने गॉंव गई तो मैंने पहली बार अपने गाँव में युवा लोगों को देखा मुझे नहीं पता था कि मेरे गाँव में इतनी संख्या में युवा हैं। गाँव में कोई रोज़गार ना होने की वजह से सब लोग नौकरी की तलाश में शहर निकल गए हैं।

लॉकडाउन के दौरान उन लोगों को अहसास हो रहा था कि ‘वह ऐसे शहरों में रह रहे हैं, जहां पर सिर्फ प्रदूषण-ही-प्रदूषण है खासकर दिल्ली जैसे शहर में तो सांस लेना भी बहुत मुश्किल हो जाता है।’

पहले गाँव में हर घर में चूल्हे पर रोटी बनती थी, लेकिन जब से सरकार ने फ्री में गैस कनेक्शन दिया है, तो हर घर में गैस का उपयोग किया जाने लगा है और जिस धुएं से सरकार ने महिलाओं को बाहर निकाला था, उसी महंगाई ने फिर उन्हें उसी धुएं में धकेल दिया है।

जब मैंने एक गाँव में एक काकी से बात की, तो उन्होंने मुझे बताया कि ‘महंगाई इतनी हो गई है कि जितना हम कमाते हैं ना वह पैसा तो पूरा-का-पूरा गैस सिलेंडर खरीदने में ही चला जाता है, तो अगर हम गैस सिलेंडर में ही पूरा पैसा दे देंगे तो हमारे पास खाने को क्या रहेगा और अब दिक्कत यह हो गई है कि अब हमें जलाने को लकड़ियां भी नहीं मिल रही हैं, क्योंकि पेड़ कट गए हैं। हमारे आने वाले दिन इतने मुश्किल भरे होंगे, यह तो हमने कभी सोचा ही नहीं था।’

मैं अब खुद से ही सवाल कर रही हूं कि मैं क्या कर रही हूं? क्यों कर रही हूं? किस लिए कर रही हूं? पर्यावरण को प्रदूषित करने में मेरा कितना योगदान है?

जब गाँव में, मैंने काकी से बात की तो मैं खुद यह सोच रही थी कि आज पेड़ नहीं हैं और कोविड-19 के दौरान हमारे देश में ऑक्सीजन की इतनी कमी हो गई थी कि चारों ओर लाशों का ढेर लग गया था।

वर्तमान में बारिश नहीं हो रही है और सूखा पड़ रहा है, खेती नहीं हो रही है। हमने अपनी उपभोगता को इतना ज़्यादा बढ़ा लिया है कि हमने हवा को भी इतना प्रदूषित कर दिया है कि अब वह सांस लेने योग्य भी नहीं है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं।


नोट: शिप्रा गुप्ता, मास कम्युनिकेशन की स्टूडेंट हैं, YKA राइटर्स ट्रेनिंग प्रोग्राम का हिस्सा रही हैं और साथ ही ज़रूरी मुद्दों पर मुखर होकर अपनी आवाज़ बुलंद करती हैं। शिप्रा की यह स्टोरी YKA क्लाइमेट फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है।

Exit mobile version