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“कोई भी राष्ट्रीय त्यौहार इसलिए नहीं होता कि हम बस उस दिन को याद कर नागरिक होने का फर्ज़ निभाएं”

"कोई भी राष्ट्रीय त्यौहार इसलिए नहीं होता कि हम बस उस दिन को याद कर नागरिक होने का फर्ज़ निभाएं"

यह बात कुछ साल पहले की है, जब मैं दिल्ली में थी और तारीख़ थी छब्बीस जनवरी ! मैंने मन बना लिया था कि राजपथ जाएंगे और बचपन से जिस झांकी को टीवी पर देखते आ रहे हैं, उसे आज सामने से देखेंगे लेकिन हमारी ये प्लानिंग धरी रह गई, क्योंकि हमारे ग्रुप के एक साथी के अचानक इंटरव्यू की डेट आ गई और हम सब ने अपने प्रोग्राम कैंसल कर दिए।

इस उम्मीद में की अगली बार देख लेंगे ! मैं अपना उदास मन लिए कॉफी लेकर राजपथ को लाइव अपने मोबाइल में देखने लग गई कुछ देर देखने के बाद अपना मोबाइल बंद कर के सोने की कोशिश करने लगी, तभी मेरी एक दोस्त मुझे जोर-जोर से बालकनी से आवाज़ देने लगी।

मुझे कुछ हेलिकॉप्टर्स की आवाज़ें आ रही थीं, मुझे लगा सिक्योरिटी रीजनस से हो रहे हो शायद लेकिन जब मैं कमरे से बाहर गई तो नज़ारा ही कुछ और था हेलिकॉप्टर्स मानो आसमां में परेड कर रहे हों और गुलाब की पंखुडियां वो ऊपर से उड़ा रहे थे।

ये पल एक साथ ना जाने कितने इमोशन्स को खुद में समेट रहा था और मेरे मन में बार-बार बीएस एक ही धुन बज रही थी

” तेरी मिट्टी में मिल जाऊं ,गुल बनके मैं खिल जाऊं

इतनी सी है दिल की आरज़ू।”

ये एक पल में इतने शौर्य भरे थे कि एक साथ कई सारी बातें दिमाग में एक-के-बाद एक आने लगीं जैसे स्कूल में देशभक्ति के नारे लगवाना, दुकानों में तिंरगे सज जाना, जलेबी की सोंधी खुशबू और देश रंगीला पर बच्चो के डांस।

इसी बीच क्लास दस के इतिहास की किताब की वो घटना याद आने लगी जिसमें लिखा था कि आज के ही दिन साल 1929 को पंडित नेहरू ने पूर्ण स्वराज की घोषणा लाहौर में तिरंगे को फहरा कर की थी और हर क्रांतिकारी ने इसे अपना जीवन का उद्देश्य बना लिया था।

वो भी क्या पल होगा ना जिसके एक क्षण को मैं यहां गुलाब के फूलों के बीच महसूस कर पा रही थी, इतने साल बीत जाने के बाद भी और मैं जिनके घर में रहती थी, वो पाकिस्तान से आए हुए पंजाबी लोग थे उनके घर की दादी भी हमारी बातों को बड़े ध्यान से सुन रही थी मुझसे रहा नहीं गया उनसे पूछ बैठी दादी कैसा लग रहा है? आप तो पहले भी ऐसा देखती होंगी, आपको तो हर साल की आदत होगी।

दादी कुछ देर चुप रही और धीरे से हंस कर बोलीं  “हर साल आदत ही तो लगा रही हूं बेटा अपने सरजमीं को भूल जाने की, ताकि चैन से आखिरी सांस ले सकूं। लोग कहते हैं कोई भी इच्छा लेकर मरना नहीं चाहिए नहीं तो फिर से जन्म लेना पड़ता है और मैं अगला जन्म लेना नहीं चाहती ये जन्म काफी था मेरे लिए ”

जब वो बोल रही थी तब मैं एक साथ दो भारत को देख रही थी, एक जो कुर्बानी को याद कर आज़ाद हवा में जश्न मना रहा है और एक जो अब तक कुर्बानी को भूल ना सका है।

मैं कभी-कभी सोचती हूं कि कैसा होगा तब का भारत जब आज़ादी की उम्मीद जोहते-जोहते एक रोज़ जब हमें मिली होगी आज़ादी लेकिन आपको अपने ही धर्म की शर्त पर अपनी ही जमीं के बंटवारे के दर्द पर और लाखों अपनों की कब्रों पर।

खैर, ये सारी बातें मैं आज क्यों कर रही हूं आज 15 अगस्त थोड़ी है, आज तो 26 जनवरी है और आज के ही दिन हमारा संविधान लागू हुआ था और हमने अपना आत्मसमर्पण अपने देश और संविधान पर कर दिया और हम एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक देश के नागरिक हो गए पर क्या हम सच में इन वादों को दिल में जगह दे पाए हैं।

कभी-कभी लगता है हम आज भी उस नफरत की आग में जल रहे हैं जिसे लगा कर अंग्रेज़ी हुकूमत अपनी महानता के कसीदे गढ़ती है और अब तो मेरा न्यूज़ और अखबार से जी भर गया है, क्योंकि जानती हूं अभी भी हमारे देश में धर्म वो टॉप रेटेड मुद्दा है जिसे लेकर हर दिन कोई-ना-कोई नया शख्स सुर्खियों में छाया रहता है।

इन सब के बीच जब आज भी किसी बच्चे और गर्भवती महिला को सड़क किनारे तिरंगा बेचते देखती हूं, तो मेरा मन होता है उनसे माफी मांग लूं उनके हिस्से के उस भारत से उन्हें दूर रखने के लिए जो शिक्षित हो, प्रतिष्ठित हो, भूख से मौत के लिए नहीं अपनी उर्वरता के लिए जाना जाता हो ।

मैं समझती है कोई भी राष्ट्रीय त्यौहार इसलिए नहीं होता कि हम बस उस दिन को याद कर हम नागरिक होने की फर्ज़ को निभाते चले जाए बल्कि हमारा असल फर्ज़ तब पूरा होगा जब हम अपने दिल में किसी मज़हब को कमज़ोर करने के लिए नहीं नेकी की मिशाल बना कर हर दर्द हर ज़ख्म को भरेंगे और ये साबित करेंगे

“मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिंदी हैं हम वतन है हिंदुस्तान हमारा।”

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