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समाज के निचले हाशिए में समानता की एक पहल ‘एक सोच’

समाज के निचले हाशिए में समानता की एक पहल 'एक सोच'

आज भारत एक संक्रमण से गुज़र रहा है। इस संक्रमण के कई खास गुण हैं पर एक खास बात है, वह है सोच की कमी, उदासीनता। हालांकि, हताशा नहीं है, डर नहीं है, विरोध या प्रतिरोध नहीं बल्कि उदासीनता खुद के प्रति, अपने वर्तमान और भविष्य के प्रति, समाज के प्रति, शोषकों और प्रतारणा करने वालों के प्रति यानि अपनी परिस्थितियों से अरुचि जैसे सब कुछ परिस्थितियों या भगवान पर छोड़ देना।

कोई सकारात्मक बदलाव की उम्मीद नहीं करना, अपने हालातों को बदलने की कोशिश नहीं करना और अपनी परिस्थितियों से समझौता कर लेना और यह वरदान है उनके लिए जो सत्ता में हैं। कोई विद्रोह नहीं, कोई मांग नहीं हलचल है, तो सिर्फ एक बने बनाए पुराने ढर्रे पर विपक्षियों, वामपंथियों द्वारा रश्म अदायगी हो रही है। 

मज़दूर वर्ग का एक हिस्सा जीने के लिए बस कुछ पैसे मिल जाएं, तो किसी भी झंडे के तले “भीड़” बनने के लिए तैयार हैं। उनकी अपनी कोई विचारधारा जैसी चीज़ नहीं है। ‘आवारा’ शायद सही शब्द हो, ऐसे हालातों के लिए पर मज़दूर ही हैं, भिखमंगे नहीं हैं। उनमें अपार श्रम शक्ति भी है, कुछ और खास निपुणता भी है पर कोई रोज़गार नहीं है यदा-कदा मिल भी जाता है।

‘देशी’ के लिए भी कहीं-ना-कहीं उपाय हो ही जाता है। घर में पत्नी या बच्चे क्या करेंगे इसकी कोई परवाह ही नहीं है। पड़ोसी भी ऐसा ही है, इसलिए क्या सोचेगा बेमानी प्रश्न है।

इसमें कुछ हिस्सा पढ़े-लिखे लोगों का भी है पर अधिकांशतः पुराने विचारों से ही बंधे हुए हैं और दकियानूस हैं, कुछ नहीं हो सकता है यह बात हावी है इनके दिलों-दिमाग पर ये आपस में भी राजनैतिक या खुद की आर्थिक और सामाजिक विषयों पर कभी बात नहीं करते हैं।

फिल्म या खेल जगत के नायक या नायिकाओं के बारे में ज़रूर बतियाते हैं और मौके-बेमौके राजनीति पर भी चर्चा हो जाती है। खास कर दंगा-फसाद की घटनाओं पर, मॉब लिंचिंग पर, कुछ अनाज भी मुफ्त में मिलता है। उस पर भी बातें होती हैं। यह आर्थिक चर्चा है पर ‘विकास’ से परे मिलने वाला चावल काफी मोटा है और बनाने के बाद भात में दुर्गन्ध आता है, उसे आप खा नहीं सकते।  चिड़िया या जानवर को खिला देते हैं। गेहूं ठीक है। उसका आटा बना कर रोटियों में इस्तेमाल कर लेते हैं। 

वैसे, भी पढ़े-लिखे मज़दूर हैं, जो अच्छा खासा ‘वेतन’ पाते हैं। वे समाज के मध्यम वर्ग के भिन्न-भिन्न स्तर से आते हैं और ज्ञान का लबादा ओढ़े हुए महामूर्ख हैं और आज के राजनैतिक पाखंडियों की विचारधारा के प्रमुख आधार हैं।

बच्चे क्या पढ़ते हैं और क्या भविष्य है? यह बिल्कुल समझ से बाहर है। पेरेंट टीचर्स मीटिंग का नाम कभी सुना नहीं। पड़ोस की लड़कियों या स्त्रियों के बारे में भी कोई बात नहीं होती है। किसी आदर्श के कारण नहीं बल्कि शांति पूर्वक सहअस्तित्व के लिए और सभी एक जैसी ही हैं, क्या बात करेंगे और कुल मिला कर यही स्थिति है।

इनसे ‘ऊपर’ (बेहतर मज़दूरी और ज़िन्दगी जीने के साधन) के मज़दूरों में कुछ भिन्नता पाई जा सकती है। ये असंगठित क्षेत्र के लोग काम ढूंढते हैं और करते भी हैं। ठेले वाले, सड़क के किनारे जूते बनाने वाले, फास्ट-फूड बेचने वाले, साइकिल के चक्कों के पंचर बनाने वाले, दूध-सब्जी बेचने वाले, बिजली-प्लम्बर-बढ़ई-नौकरानी, दूसरों के घर काम करने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले (लेबर चौक हर शहर में लगता है सुबह 6-9 बजे तक, जहां ये मज़दूर हर दिन के हिसाब से अपना श्रम शक्ति बेचने के लिए आते हैं और बिकते भी हैं।)

और फिर संगठित क्षेत्रों के और सरकारी विभागों के मज़दूर, जिन्हें महीने के अंत में “वेतन” मिलता है और इसके साथ-साथ कुछ प्रोविडेंट फंड, छुट्टियां (वेतन के साथ), इलाज़ के लिए और बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसे भी मिलते हैं।

यहीं पर तथाकथित व्हाइट कॉलर मज़दूर पाए जाते हैं, जिनकी हम अभी आगे चर्चा नहीं करेंगे पर ऐसे मज़दूरों की संख्या दिन-प्रतिदिन तेज़ी से घटती जा रही है। देश में तेज़ी से सरकारी और सार्वजनिक संपत्ति का निजीकरण धड़ल्ले से हो रहा है और ऐसे मज़दूरों का जो ‘चिंता मुक्त’ जीवन जी रहे थे, अब वह कम हो रहा है और सरकार के इन फैसलों का विरोध हो रहा है। कई बड़े ‘ऐतिहासिक’ विरोध भी हुए हैं पर एक मात्र असफल ऐतिहासिक  किसान आंदोलन को छोड़ दें, तो पिछले 7-8 वर्षों में जनविरोध असफलता की दीवार से तकादा कर ध्वस्त हो चुके हैं। 

एक सोच” जैसा नाम है, एक विचार है, जो उन इंसानों के बारे में जानकारी, आंकड़े और तहकीकात करने की कोशिश करेगा, जो समाज में सबसे नीचे हाशिए पर हैं। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक रूप से और उस पर आधारित सूचनाओं और विश्लेषणों द्वारा ही उन्हीं के बीच उनमें एक सोच का संचार करने की कोशिश करेगा। इसका एक मात्र उद्देश्य यह है कि उम्मीद और बेहतर जीने की कोशिश करना।

हां, यह भी देखना होगा कि हालत कितनी भी दयनीय और बेउम्मीद हो, प्रतिरोध ज़ारी है जैसे कुछ समय पहले एनआरसी के खिलाफ और अब किसान संघर्ष 3 फार्म बिलों के खिलाफ (जिसमें किसानों को विजय हासिल हुई है) मज़दूरों का संघर्ष, भले ही पिटे-पिटाए रास्ते पर हो।

यह बताना ज़रूरी है कि “एक सोच” कोई दल या संगठन नहीं है, कोई सदस्यता नहीं है। इसमें सम्मिलित साथियों पर कोई बाध्यता नहीं है और उनकी कोई निश्चित आमदनी नहीं है, कोई चंदा इकठ्ठा करने की कवायद भी नहीं है।

हां, यहां हर काम वैज्ञानिक और तार्किक तरीके से करने की ही कोशिश की जाती है, क्योंकि “एक सोच” यह मानता है कि इतिहास का अध्ययन मानव समाज के विकास को समझने के लिए बहुत ज़रूरी है पर मानवता वापस पीछे नहीं जा सकती है।

वर्तमान में सीखे अनुभवों, विज्ञान और तकनीकी जानकारी के साथ काम करने की ज़रूरत है, ताकि भविष्य को ज़्यादा-से-ज़्यादा अपने कंट्रोल में कर सकें और हां, एक बात और ‘एक सोच’ के साथियों के बीच भाईचारा का रिश्ता ज़रूर है।

जहां तक जनता में उदासीनता का भाव है, उसका भी निदान है, जो कठिन भले ही हो पर संभव है। ऐसे विचारकों और कार्यकर्ताओं की बहुत ज़रूरत है, जो इस संघर्ष और जन-जागरण में शामिल हों। “एक सोच” को कोई भी आहवान नहीं करता है बल्कि यदि आपको खुद महसूस हो, तो हमारी इस मुहिम में ज़रूर शामिल हों। 

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