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हमारे देश में महिलाओं की वर्तमान स्थिति एवं चुनौतियां

हमारे देश में महिलाओं की वर्तमान स्थिति एवं चुनौतियां

हमारे समाज में बच्चियों को आदिशक्ति मानकर पूजा जाता है, मगर हकीकत किसी से छिपी हुई नहीं है। हमारा भारतीय समाज अपने सांस्कृतिक उत्सवों में कन्या-पूजन जैसे उत्सवों के आधार पर जो शारदीय नवरात्रों के मध्य में मनाया जाता है, उस समय वह नारी शक्ति का प्रतीक बच्चियों में आदिशक्ति दुर्गा के रूपों को पल्ल्वित और पुष्षित होते हुए तो देखता है, परंतु बालिका बचाओ और महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों पर चर्चा के दौरान हमारे समाज की सामाजिक सच्चाई के असल आंकड़े हमारे सामने आने लगते हैं, तब हमें पता चलता है कि जहां एक तरफ खान-पान से लेकर शिक्षा और कार्यों में उनके साथ भेदभाव निम्न आय समूहों में आर्थिक चुनौतियों के कारण हैं, तो दूसरी तरफ मध्य एवं उच्च वर्गों में भेदभाव आर्थिक चुनौतियां के कारण नहीं हैं।

वहां सामाजिक प्रथाओं के सामने घुटने टेकने के कारण दूसरे हैं। मध्य और उच्च वर्ग बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ जैसी कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेना, तो दूर तमाम प्रगतिशील ख्यालों के सामने उकड़ूं होकर बैठा हुआ है।

हाल के ही दिनों में ओलम्पिक और पैरा-ओलम्पिक में कामयाबी पाने वाली लड़कियों ने अपनी कहानी में इस सच्चाई को सतह पर लाने का काम किया है कि आर्थिक चुनौतियों और तंगी के कारण इन लड़कियों ने खेल में कुछ करने का मन बनाया। 

खेल की ट्रेनिंग के दौरान वहां एक टाइम का खाना और नाश्ता भी मिल जाता था। भारत के सुदूर इलाकों से कई लड़कियों की ऐसी कहानियां सामने आ रही हैं कि सामाजिक चुनौतियों के सामने घुटने टेकने से बचने के लिए उन्होंने खेल में कुछ करने के विकल्प का चुनाव किया और अब वह उस मुकाम पर हैं, जहां से वह पीछे का कुछ याद नहीं करना चाहती हैं, परंतु मध्य वर्ग और उच्च वर्ग सामाजिक मान्यताओं और चुनौतियों के आगे सबसे अधिक अपने घुटने टेक रहा है।

हमें समय रहते हुए इस वर्ग की मूल समस्या को पहचानना बहुत ज़रूरी है। अगर आज हमने यह सवाल नहीं पूछा कि लड़कियों के साथ ये भेदभाव कब तक? तो कल कही बहुत देर ना हो जाए। आज दुनियाभर में लड़कियों की सुरक्षा और सम्मान पर सवाल खड़े हो रहे हैं। हमारे देश की सरकार के स्वयं के आंकड़े बताते हैं कि 2019 में कमोबेश आठ लाख बच्चियों को जन्म से पहले ही मार दिया गया।

भारत में हाल के ही दिनों में बच्चों के जन्मदर में काफी सुधार हुआ है। भारतीय परिवार अब दो या एक ही बच्चे को प्राथमिकता दे रहे हैं, परंतु लिंगानुपात का अंतर धीरे-धीरे बढ़ता चला जा रहा है और इसे हम कहीं से भी एक अच्छी खबर नहीं कह सकते हैं।  

वर्तमान में यह प्रति हज़ार पर आठ सौ के करीब है। यह यथास्थिति यही बताती है कि आज के भारत में अपनी तमाम उपलब्धियों और बेशुमार कामयाबियों के बाद भी बेटियां आज भी बेचारी ही हैं।

अब सवाल यह है कि बच्चियों के साथ समाज के ऐसे व्यवहार के क्या कारण हैं? क्यों लड़कियों की तमाम उपलब्धियां भी सामाजिक मान्यताओं में बदलाव कर पा रही हैं? क्या यह समस्या केवल आर्थिक है या इसके और भी कारण हैं, जिसकी जड़ें काफी गहरी हैं? क्यों इतनी गहरी जड़ें हमने लड़कियों के लिए खोद रखी हैं?

इन्हीं चुनौतियों और बाधाओं को जानते-समझते हुए और समस्याओं के मूल तक पहुंचने के प्रयास में 11 अक्टूबर को अंतराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य पूरी दुनिया में सभी वर्गों के बीच बेटियों को लेकर मौजूद पूर्वाग्रहों को कम करना और बेटियों को लेकर समाज में मौजूद चुनौतियों को समझकर, बच्चियों के लिए विकासशील नीतियां बनाना है।

भारत में बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ जैसी नीतियां इस दिशा में ही उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है, जो अशिक्षित निम्न-मध्य-उच्च वर्ग परिवारों के बीच डरी हुई लड़कियों जिनको घर की चारदीवारी में रहने के लिए मज़बूर होना पड़ रहा है।

घर से शुरू होने वाले शोषण की वह इतनी आदी हो चुकी हैं कि वह अपने पर हुए अत्याचार को भी हंसकर सह लेती हैं। बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ जैसे कई कार्यक्रम जो केंद्र सरकारों और राज्य सरकारों की तरफ से चलते हैं, उसमें लड़कियों की भागीदारी बढ़ने में मौजूदा यथास्थिति में थोड़ा-बहुत बदलाव हो सकता है।

अपनी मेहनत और संघर्ष से आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों को धत्ता बताकर कामयाब हुई बेटियों की सफलता, उन लड़कियों के लिए प्रेरणादायक कहानियां हैं, जिनका आत्मविश्वास और भरोसा शोषण व अत्याचार से कुंद हो चुका है।

भारत में बच्चियों को तमाम समस्याओं से लड़ने और जागरूकता फैलाने के लिए हमें घर-परिवार और समाज में लड़कियों का मान बेटों के समकक्ष बराबर करना होगा, तभी हमारी भारतीय संस्कृति में बेटियों को आदिशक्ति दुर्गा के रूप में पूजने की हमारी परंपरा कासच्चे शब्दों में सम्मान होगा। 

समाज अगर आदिशक्ति दुर्गा पर विश्वास करता है, क्योंकि वह उनको एक शक्ति के प्रतीक के रूप में मानता है बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक फिर बच्चियों के साथ समाज में हो रहा भेदभाव, तो हमारे स्थापित आदर्शों की चूलों को हिला रहा है।

समाज के सभी वर्गों को हर स्थिति में अपने आदर्शवाद को उन्मुख बनाना ही होगा, बुराई छोटी हो या बड़ी समाज को अपने अंदर के महिषासुर का दमन करना ही होगा, तभी आदिशक्ति दुर्गा के प्रतीक के रूप में हमारी बच्चियां सच्चे शब्दों में सम्मान पा सकेंगी।

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