Site icon Youth Ki Awaaz

फेक न्यूज़ के चंगुल में फंसता आम जन और धूमिल होता इतिहास

फेक न्यूज़ के चंगुल में फंसता आम जन और धूमिल होता इतिहास

30 जनवरी, 1933 एडोल्फ हिटलर को जर्मनी का चांसलर नियुक्त किया गया था। उस समय हिटलर सत्ता के शीर्ष पर था, लेकिन जर्मनी में अभी-भी लोकतंत्र बचा हुआ था।

14 मार्च, 1933 को  एक नए मंत्रालय का गठन हुआ, उसका नाम था- ‘मिनिस्ट्री ऑफ पब्लिक एनलाइटनमेंट एंड प्रोपगेंडा’। इस मंत्रालय का एकमात्र लक्ष्य जर्मन संस्कृति और बौद्धिक जीवन के सभी पहलुओं पर नाज़ी सरकार के नियंत्रण को मज़बूत करना था, क्योंकि हिटलर मानता था कि सूचनाओं को नियंत्रित करना भी उतना ही ज़रूरी है, जितना सेना और अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करना है।

नाज़ी प्रोपगेंडा के केंद्रबिंदु के रूप में इस मंत्रालय ने जर्मनी में यहूदी विरोधी भावना को बढ़ावा देने और हिटलर को एक महान नेता के रूप में प्रस्तुत करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसी के हिस्से के रूप में 1935 में ‘ट्राइंफ ऑफ द विल’ नामक फिल्म का भी निर्माण किया गया, जो कि नाज़ी प्रोपगेंडा का सबसे बड़ा उदाहरण है।

इस तरह हिटलर ने यह साबित कर दिया कि सूचनाओं को नियंत्रित करना और उन्हें अपने हिसाब से बदलना, लोकतंत्र को तानाशाही में बदलने का पहला कदम होता है, क्योंकि सूचनाएं हमें निर्णय लेने में मदद करती हैं और ‘सही’ सूचनाएं हमें ‘सही’ निर्णय लेने में मदद करती हैं पर सही निर्णय सबके लिए सही नहीं होता, खासतौर पर उनके लिए तो बिल्कुल नही जो ‘शीर्ष’ पर बैठे हुए होते हैं।

मिसइंफॉर्मेशन, डिसइंफॉर्मेशन या फेकन्यूज़, कुछ भी कहिए सब एक ही नाम हैं, नाम बदल देने से इतिहास नहीं बदल जाता है। ऐसा माना जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है पर जर्मन फिलॉसफर ‘जॉर्ज हीगल’ कह गए हैं कि ‘इतिहास से हमने केवल यही सीखा है कि इतिहास से हमने कुछ नहीं सीखा।’

हमारा पीछे मुड़कर देखना और उससे कुछ सीखना ज़रूरी होता है, क्योंकि यही हमें वर्तमान का सही ढंग से आकलन करने में मदद करता है पर तब क्या हो जब उस इतिहास के तमाम स्रोतों में ही मिलावट कर दी जाए।

आपने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बारे में खबरें तो पढ़ी या सुनी ही होंगी, मसलन उनके पिता मोतीलाल नेहरू का असली नाम मोइनुद्दीन था या फिर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी मुस्लिम थे या फिर यह कि भारत के राष्ट्रगान को यूनेस्को ने सर्वश्रेष्ठ घोषित किया है। ऐसा हो भी सकता है कि आप इन खबरों पर विश्वास भी करते हों और अगर ऐसा है, तो ‘मुस्कुराइए जनाब’ आप ‘फेक न्यूज़’ का शिकार हुए हैं।  

हमने ऊपर जर्मनी के प्रोपेगेंडा मंत्रालय की बात की थी, उसी मंत्रालय के पहले मंत्री जोसेफ गोयबल्स ने कहा था कि ‘झूठ को बार-बार दोहराओ तो वह सच बन जाता है और सभी उस पर विश्वास करने लगते हैं।’

ये कथन हिटलर के समय से कहीं अधिक आज प्रासंगिक है और सोशल मीडिया ने इसमें बखूबी अपनी भूमिका निभाई है। व्हाट्सएप्प के ज़रिये हमें गुड मॉर्निंग और गुड नाईट के संदेशों के साथ इतिहास, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र जैसे विषयों पर भी प्रशिक्षित किया जा रहा है। 

हम एक खाली किताब हो गए हैं, जिस पर सोशल मीडिया की स्याही से गलत सूचनाओं पर आधारित इतिहास लिखा जा रहा है, वो इतिहास जो मिलावटी है।

इस इतिहास के सहारे हम ज्ञानी तो बन सकते हैं पर अपने लिए ढंग का फैसला नहीं ले सकते हैं और जब हम अपने लिए फैसला नहीं ले पाते हैं, तो कोई और हमारा भविष्य तय करता है और हमारा काम केवल उसके आदेशों का पालन करना भर रह जाता है, बिल्कुल एक रोबोट की तरह या फिर एक उन्मादी भीड़ की तरह।

इसलिए सब कुछ जान लेना ही ज़रूरी नहीं है बल्कि ज़रूरी यह है कि तथ्यों के पीछे की सच्चाई को पहचाना जाए, खोज की जाए, पढ़ा जाए और साथ ही लिखा भी जाए।

Exit mobile version