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“भावनाएं कुछ और नहीं बल्कि सक्रिय हार्मोन्स का भाषिक प्रस्तुतीकरण हैं”

"भावनाएं कुछ और नहीं बल्कि सक्रिय हार्मोन्स का भाषिक प्रस्तुतीकरण हैं"

दिल से जिसने दुनिया देखी, उसने जी भर जीवन जिया! दिल क्यों? दिमाग में तर्क होता है और दिल में भाव/रस! तर्क ज़रूरी है लेकिन केवल तर्क नीरसता को पैदा करता है। गणित में केवल तर्क चलते हैं, जीवन में तर्क के समानांतर भाव/रस भी चल रहे होते हैं, तभी हमें आनंद की अनुभूति हो रही होती है। जीवन के लिए स्वस्थ मस्तिष्क चाहिए, तो एक खुशबूदार दिल भी। 

नेक दिल इंसान कभी किसी को दुःख नहीं पहुंचाता है। किसी को आहत करना जीवन नहीं है, किसी को आहत होने से बचाए रखना जीवन है। किसी की बात ना तो दिल पर लेनी चाहिए और ना ही अपनी बातों से किसी के दिल को ठेस पहुंचानी चाहिए।

दिमाग ठेस को तर्क-वितर्क कर सकता है, दिल ठेस से विह्वल हो उठता है और हां, यदि आपके अंदर सहानुभूति हो, तो शायद ही कोई आपसे नाराज़ हो पाए! दरअसल सहानुभूति को महसूस करते ही हमारा व्यवहार बाकी दुनिया के लिए सहज लगने लगता है।

जीवन को दिल से जीना चाहिए, ताकि छल की इंट्री दिल में ना हो। दिमाग किसी घटना को डिकोड करते हुए फैक्ट को खोजता है जबकि दिल फैक्ट पर कम ध्यान देता है। दिल सबसे ज़्यादा भाव पर ध्यान देता है। यदि सही भाव से कुछ गलत घटित हो भी जाए, तो जीवन मस्त रहता है जबकि गलत भाव से भले ही कुछ सही घटित हो जाए तो भी लेने के देने पड़ जाते हैं। दिल घटना को नहीं देखता है, दिल इरादे को देखता है, इरादे में गलत अथवा सही का भाव निहित होता है।

जीवन में हमारी अधिकतर समस्याओं की नींव गलत बोल होते हैं। मेरा तो मत है-दिमाग से सोचना चाहिए और दिल से बोलना चाहिए। दिल गलत सोच सकता है जबकि दिमाग नहीं, दिमाग तर्क में मचलकर गलत बोल सकता है जबकि दिल नहीं।

यदि हमारी सभी ज्ञानेन्द्रियों का सदुपयोग किया जाए, तो हमारे जीवन में उलझन ही ना हो। भावनात्मक कंट्रोल दिल के पास होता है इसलिए विपत्ति में वही व्यक्ति सूझबूझ दिखा पाते हैं, जो दिमाग के मैसेज को दिल से छानकर प्रस्तुत करते हैं। दिमाग और दिल में जितना ज़्यादा संतुलन होगा- व्यक्ति का व्यक्तित्व उतना ही ज़्यादा बेहतरीन होगा।

अक्सर आप सुनते होंगे कि हमें भावनाओं की कद्र करनी चाहिए। भावनाएं कुछ और नहीं बल्कि सक्रिय हार्मोन्स का भाषिक प्रस्तुतीकरण हैं। वाद-संवाद में इन बारीकियों को ध्यान रखना होता है। वक्ता को चाहिए कि वह हार्मोन्स के मैसेज को पहले दिमाग से गुज़ारे, उसके बाद दिल से छान ले, तब पुनर्विचार कर प्रस्तुत करे। श्रोता की भूमिका सुनने के साथ-साथ धैर्य रखने की भी होती है। 

ना हो विवाद तो बेहतरीन हो जीवन! ना तर्क हावी हो और ना अति-भावुक हो मन तो बेहतरीन हो, जीवन या तो नदी की तरह स्वच्छंद बहाव हो या फिर संतुलन ऐसा हो कि ना तो दिमाग का पलड़ा भारी हो और ना ही दिल का तो बेहतरीन हो जीवन! ना हो अहंकार-ईर्ष्या और घृणा तो क्यों ना बेहतरीन हो जीवन! कहीं ऐसा तो नहीं कि जीवन का मतलब स्नेह, लगाव, भाईचारा और सहअस्तित्व है?

दिल का मर्म दिमाग तक जाए और दिमाग की बुद्धिमत्ता दिल तक आए तो क्यों न हो बेहतरीन जीवन!

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