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मनुष्य और जानवरों के बीच के संघर्ष की कहानी है फिल्म ‘शेरनी’

फिल्म समीक्षा : शेरनी वन्यजीवों के इंसानों के साथ संघर्ष एवं समाज की पितृसत्तात्मक तस्वीर को दर्शित करती है

2021 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्म “शेरनी” मनुष्य और जानवरों के बीच के संघर्ष की कहानी है। अमित वी मसूरकर द्वारा इस फिल्म का निर्देशन किया गया है। मध्य प्रदेश के जंगलों और कान्हा नेशनल पार्क में शूट की गई, इस फिल्म में राकेश हरिदास सिनेमेटोग्राफर की भूमिका में हैं। फिल्म की पटकथा आस्था टीकू द्वारा लिखी गई है।

कई सालों के अभ्यास के बाद विद्या वेंसट (किरदार विद्या बालन) को संभागीय वन अधिकारी यानी (DFO) के रूप में फील्ड पर काम करने का मौका मिला है। वह एक नई युवा अधिकारी है और अपने फील्ड में बेहतर करने का जुनून रखती है, लेकिन सरकारी ऑफिस का ढांचा और अपनी जॉब से उसकी आकांक्षा, सड़क के दो छोरों की तरह है।

शेरनी एक बाघिन की कहानी को संजोए हुए है, जिसे वन विभाग द्वारा T-12 नाम दिया गया है और जिसका खौफ उसी इलाके में है, जहां विद्या का तबादला हुआ है। यह इलाका जंगलों से घिरा हुआ है। गाँव वाले अपने जानवरों को चराने और लकड़ी वगैरह लेने जंगल जाते रहते हैं, लेकिन कुछ समय से जंगल में बाघिन का खतरा बना हुआ है। DFO विद्या का पहला मामला इसी T-12 बाघिन से गाँव वालों को और गाँव वालों से T-12 को आज़ाद करना होता है।

विद्या के नेतृत्व में फॉरेस्ट डिपार्टमेंट अपना काम ईमानदारी से करता भी है, लेकिन आदत से मज़बूर नेता इसे एक राजनीतिक मुद्दा बना देते हैं। डिपार्टमेंट लोगों को जागरूक करने के लिए अपनी जी-जान लगा देता है, पर हर बार सत्ता का पड़ला भारी रहता है। जनता राजनेताओं की बातों पर विश्वास कर डिपार्टमेंट की बातों को अनसुना कर देती हैं और इसके परिणामस्वरूप कई ग्रामीण अपनी जान गंवा देते हैं। अंततः बाघिन (अवनि) को भी खूंखार करार देकर मार दिया जाता है।

फिल्म पितृसत्तात्मक समाज की बेड़ियों से बंधी उस महिला अफसर की कहानी भी है, जिसके अधिकारी उसका कोई साथ नहीं देते हैं और ना ही गाँव के लोग, जिन्हें बचाने की वह हर सम्भव कोशिश कर रही है। हालांकि, वह गाँव के कुछ बच्चों में एक समझ पैदा करने में ज़रूर सफल रहती है, जब सारा गाँव उनके खिलाफ होता है तब गाँव का एक वालंटियर कहता है “टाईगर है तभी तो जंगल है, और जंगल है तभी तो बारिश है, बारिश है तो पानी है और पानी है तो इंसान है”

वह जंगल की हर प्रक्रिया को प्राकृतिक तौर से बचाना चाहती थी। हालांकि, वह जानने की कोशिश करती है कि आखिरकार मुश्किल है कहां पर! फिल्म में पारंपरिक रूप से पशुओं को चराने के लिए उपयोग किए जाने वाले स्थान पर नासमझी से किए जा रहे वृक्षारोपण अभियान को रेखांकित किया गया है। यही कारण है कि जंगल जाना गाँव वालों की ज़रूरत और मज़बूरी बन गई थी।

वहीं मीडिया का इस मुद्दे पर कूदना और इस केस की बागड़ोर एक प्राइवेट शूटर के हाथ में आ जाना सिस्टम की भ्रष्टता को दिखाता है। वह बाघिन केवल अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए शिकार कर रही थी, लेकिन सिस्टम में काम कर रहे लोगों ने नियमों का बेधड़क उल्लंघन करके उसे मार दिया।

भारत में वन्यजीव संरक्षण कई समस्याओं से ग्रस्त है। वहीं पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले माचो पुरुष, जैसा कि फिल्म में शूटर पिंटू भैया को दिखाया गया है, इन समस्याओं का और भी बड़ा कारण हैं। फिल्म में महिलाओं की प्रकृति के प्रति समझ और संवेदनशीलता को भी दर्शाया गया है। यही कारण होता है कि खूंखार कहकर मार दी गई बाघिन के भूखे, बेसहारा बच्चे किसी तरह बचा लिए जाते हैं। “ट्रांसफर राज” की प्रवृत्ति को भी इस फिल्म में दर्शाया गया है कि किस तरह एक अधिकारी अपने फैसलों के लिए तरह-तरह की बेड़ियों से जकड़ा होता है।

फिल्म की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है। जंगलों की यह शूटिंग सच में वन्यजीवों के संघर्षों को दर्शाती है। पर्यावरण जागरूकता के लिए तो यह फिल्म देखी ही जानी चाहिए और साथ ही प्रकृति के नियम, नियंत्रण और संतुलन को भी इस फिल्म के माध्यम से समझा जा सकता है। वहीं फिल्म का अंत हमें फिर से एक बार उस बात को सोचने पर मज़बूर करता है कि हम प्रकृति और उसकी वन्यसंपदा का कितना सम्मान करते हैं।  

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