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फिल्म समीक्षा : पहाड़ों की सच्ची कहानी और दर्द को बयां करती है यकुलांस

फिल्म समीक्षा : पहाड़ों की सच्ची कहानी और दर्द को बयां करती है यकुलांस

सुंदर वादियां ! कभी हरे, तो कभी बर्फ की चादर से ढके सफेद पहाड़! चहचहाती चिड़ियां ! रसीले फलों से लदे पेड़! दूर कहीं बादलों के बीच से झांकता हिमालय! आंखों पर पडती उगते सूरज की सुकूनदेह किरणें ! कुछ यही छाप है मेरे मन में पहाड़ों और उत्तराखंड की। प्रकृति का यह स्वरूप जो एक नन्हे बच्चे की दंतुरित मुस्कान सा है। कुछ हिस्सा आज भी मानव हस्तक्षेप से दूर है और कुछ पिछले कुछ दशकों में हो गया है।

घर हैं पर लोग नहीं। फल हैं पर खाने वाले नहीं। बच्चे हैं पर आंगन में किलकारी नहीं। खेत हैं पर खेती करने वाले नहीं। बुज़ुर्ग हैं पर उनसे कोई बोलने वाला नहीं। कभी गाँव थे, यहां पर अब “भूतिया गाँव” हैं। यह कहानी उत्तराखंड के हर पहाड़ की है। यह दृश्य कई भाषाओं, परंपराओं, संस्कृतियों और उनसे जुड़ी कई कहानियों का दिल चीरने जैसा है। पांडवास द्वारा निर्मित और कुनाल डोबाल जी द्वारा निर्देशित “यकुलांस” पहाड़ों के इन पहलुओं को दर्शाती एक बेहद खूबसूरत फिल्म है, 28 मिनट की यह फिल्म इतनी सुन्दर है कि आंखों में ही कट जाती है।

यह एक पहाड़ में रहने वाले आम पहाड़ी पिता की कहानी है। एक बुज़ुर्ग की आंखों ने हमारी आंखें नम कर दीं और यह एहसास भी करा दिया कि कितनी ज़ल्दी हम अनुमानों की बौछार शुरू कर देते हैं। मुझे शुरुआत में ही लगने लगा कि कैमरा सही जगह नहीं है। आधी फिल्म यूं ही निकल गई तो लगा शायद निर्देशक किरदारों को पर्दे के सामने लाना ही नहीं चाहता है फिर फिल्म जब कुछ आगे बढ़ी तो लगा कि यह तो मेरी ही आंखें हैं और इससे बेहतर क्वालिटी का कैमरा और एंगल भला और कहां!

उस बुज़ुर्ग की आंखों से देखो तो लगता है कि इस भागदौड़ भरी दुनिया का आशय क्या है? गाँव में जब आपकी कोई कुशल-क्षेम पूछने वाला तक नहीं है। फल से लदे पेड़ों को कोई देखने वाला भी नहीं है। एक पल के लिए लगा कि इन्हें भी यहां से चल देना चाहिए फिर मुझे एहसास हुआ कि इस भागदौड़ भरी पाखंडी दुनिया से तो ये गाँव ही सुखी हैं पर फिर भी क्यों वीरान हैं! मुझे इसका जवाब मिला इतने सुंदर, इतने शांतिप्रद तरीके से फिर समझ में आया कि ये पहाड़ सुविधा के पैमाने से भी तो वीरान हैं वरना खुद पहाड़ में रह रहे बुज़ुर्ग ही अपने बच्चों का खुद से दूर रहना कैसे बर्दास्त कर पाते!

एक समाजशास्त्र की शिक्षार्थी होने के नाते यूं इस तरह वीरान होते गाँव का एक कारण मुझे समाज में रूतबा हासिल करने की चाह भी लगी। यह हाई-फाई कहलाने वाला शहरी समाज तो पहाड़ियों के लिए एक प्रेरणादायक समाज सा है और उस समाज का हिस्सा बनना उनकी आकांक्षा है। इस तरह समाज के बने बनाए ढांचे में फिट बैठना समाज में उठने-बैठने के लिए एक निश्चित मापदंड सा बन जाता है। अक्सर ज़्यादा जद्दोजहद करने की बजाय हवा के रुख में बहना आसान भी होता है। इसलिए भी पहाड़ों से लोग तराई की ओर आकर्षित हो रहे हैं। यहां की धक्का-मुक्की भी उन्हें आरामदायक महसूस हो रही है। मन में चाहे पहाड़ों का वही अपना घर बसता हो पर सुविधाओं का यह जाल कोसों दूर तक हमारे चारों ओर अपना चुम्बकीय क्षेत्र बनाए हुए है।

इस दुनिया में सीधा और साधारण व्यक्ति तो पहले से ही शोषण का शिकार होता आया है। इस फिल्म में भी मुझे यह पहलू देखने को मिला। नि:संदेह जानवरों की मासूमियत के सामने इंसानी मुखौटा कुछ भी नहीं है। जानवरों की आत्मीयता तो एक शांतिप्रद मौन का सुखद एहसास है। पहाड़ों में तो अब यही जानवर डूबते का तिनका हैं।

मेरे मोबाइल की स्क्रीन पर तेज़ी से चल रहे यह सभी दृश्य और यकुलांस से उत्पन्न वह आवाज़ें मेरे मन को चीर रही थीं। मेरी आंखें बिन झपके ही हर दृश्य को अपने अंदर समा लेना चाहती थीं। एक अच्छी फिल्म शायद ऐसी ही होती है जिसकी अपनी एक भाषा होती है, जो अगर बिन आवाज़ भी देखी जाए तो उसे समझना मुश्किल नहीं होता है। यकुलांस भी कुछ ऐसी ही फिल्म है, जो सिर्फ आपसे पहाड़ों और पहाड़ी जीवन की मूल समझ मांगती है।

संगीत की भूमिका भी इस फिल्म में अहम है। फिल्म के शुरू से आखिर तक दृश्यों और भावनाओं का संगीत के साथ एक बहुत बढ़िया मेल बैठाया गया है। यह पूरी फिल्म नदी के समान बह रही है और अपनी राह बना रही है। हर एक शॉट एक निशानी छोड़ रहा है। स्वेटर खोलने के वक्त सांसों का संगीत हो या लकड़ी पर चोट मारती कुल्हाड़ी, पहाड़ों के दैनिक जीवन के स्पर्श की थपकियां मन की गहराई में कहीं समाए जा रही हैं। ढोल से लेकर फलों से लदे पेड़, फोन ना मिलने से लेकर फैले दाल के दाने अपने आप में पूरी कहानी बयां कर रहे हैं।

फिल्म की सुन्दर कला को समझने के लिहाज़ से भी और पहाड़ों की सुंदरता के पीछे समाए दर्द को समझने के लिए भी यह फिल्म देखी जानी चाहिए। आखिर उत्तराखंड बनने के केवल दो दशकों में ही हम उस आंदोलन की जड़ों से बहुत दूर हो चुके हैं। हम उत्तराखंड आंदोलन की विरासत को भूल ही गए हैं। क्या उत्तराखंड के एक अलग राज्य बन जाने से वहां के आम जनमानस की सारी समस्याएं समाप्त हो गईं हैं? क्या “मी उत्तराखंडी छु” कह देना ही हमारी ज़िम्मेदारी है?

कृति अटवाल (11th)
नानकमत्ता पब्लिक स्कूल

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