देश स्वयं के आज़ाद होने पर आज़ादी के 75वें साल में पहुंच कर अमृत महोत्सव बना रहा है, परंतु देश को आज़ाद कराने की चाहत में जिन क्रांतिकारियों ने हंसते-हंसते नादान सी उम्र में भी हंसते-हंसते फांसी के फंदे को गले लगा लिए, आज हमें उनकी स्मृतियों पर जमी समय की धूल को झाड़ने तक की फुर्सत नहीं है, हमारा यह व्यवहार देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों का त्याग करने वाले क्रांतिकारियों के प्रति बहुत तकलीफदेह है।
आज़ाद भारत ना जाने कितने ही आज़ादी के संग्राम के नायक-नायिकाओं को, जो देश की आज़ादी के लिए लिए शहीद हो गए थे, उनका इतिहास में नाम दर्ज़ नहीं कर सका जिनका नाम इतिहास में दर्ज़ है, क्योंकि उनकी शहादत ने लोगों के दिलों में आज़ादी की चिंगारी फूंक दी थी। लोक स्मृतियों में जो अमर हो गए, उनकी प्रतिमा तक का ध्यान नहीं रखा जाता है, तो मुझे देश के ऐसे दिखावे के राष्ट्रवाद पर भी शर्म आती है और अपने को देशभक्त कहने में भी।
बिहार में समस्तीपुर से मुजफ्फरपुर की तरफ आप यदि रेलयात्रा के सफर पर निकलेंगे, जो चंद घंटों का ही है, तो एक स्टेशन गुज़रता है खुदीराम बोस पूसा, जहां खुदीराम बोस गिरफ्तार किए गए थे और उनके साथी प्रफुल्ल चंद्र चाकी फरार होने में कामयाब हो गए थे। इसके बाद में वो घिर गए और गोलीबारी में मारे गए। उनके सिर बाद में खुदीराम बोस के सामने पहचान के लिए लाए गए थे, तब खुदीराम बोस ने उनको प्रणाम किया और उनकी पहचान पक्की की।
मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस नाम से एक खेल का मैदान है, जो शहर के लोगों में उनकी स्मृतियों को ज़िंदा रखे हुए है पर जिस कोठरी में खुदीराम बोस को रखा गया था,आज वह बहुत अच्छी हालत में नहीं है।
कूड़े-कचरे के पहाड़ के बीच वह फांसीघर, जहां उनको लटकाया गया था, अब वह बंद है इसलिए कोई उसे देख नहीं पाता है। पूसा रोड पर भी लोगों ने जो अपने सहयोग से खुदीराम बोस के स्मृति में बनवाई गई मूर्ति की उचित देखरेख के अभाव में जानकारी देने वाली पट्टिका टूट कर धूल-धूसरित हो गई है।
3 दिसंबर, 1889 को मिदनापुर के हबीबपुर मोहल्ले में नेडाजल इस्टेट के तहसीलदार पिता त्रैलोकनाथ और माता लक्ष्मीप्रिया देवी के घर पैदा हुए थे। उस दौर में आर्थिक और चिकित्सा की सुविधा सर्व-सुलभ नहीं होने के कारण नवजात बच्चों की मृत्यु दर अधिक हुआ करती थी। उनको जीवित रखने के लिए उनकी बड़ी बहन ने तीन मुठ्ठी चावल से उन्हें जीवित रखने के लिए खरीद लिया था।
किंग्सफोर्ड को मारने की योजना बनाई
बंगाल के नारायणगढ़ रेल्वे स्टेशन पर किए गए बम विस्फोट की घटना में वह प्रमुख रूप से शामिल थे। इसके बाद उन्होंने प्रफुल्ल चंद्र चाकी के साथ मिलकर अंग्रेज़ अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने की एक योजना बनाई। इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए, दोनों बिहार के मुजफ्फरपुर ज़िले पहुंचे और एक दिन मौका देखकर किंग्सफोर्ड की बग्गी पर बम फेंक दिया। दरअसल, उस दिन बग्गी में किंग्सफोर्ड मौजूद नहीं था और उसमें एक दूसरा अंग्रेज़ अधिकारी और उसकी पत्नी-बेटी थे, जिनकी मौके पर ही मौत हो गई।
28 फरवरी, 1906 को अंग्रेज़ी सरकार के द्वारा खुदीराम बोस को पकड़ लिया गया, लेकिन वे भागने में सफल रहे। इस घटना के दो महीने बाद फिर अंग्रेज़ी सरकार ने उनको पकड़ लिया और न्यायालय में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला, जिसका अंत उनकी फांसी की सज़ा से हुआ।
ऐसा कहते हैं कि फांसी के बाद खुदीराम बोस युवाओं में इतने प्रसिद्ध हुए कि धोती बनाने वाले जुलाहे, धोती के किनारे उनके नाम का एक चिन्ह बनाने लगे, जिसको युवा लड़के खूब पहनते थे और खुदीराम बोस से प्रेरणा लेते थे। लोकजीवन में तो उनके राख की ताबीज बच्चों को पहनाए जाने की कहानियां भी सुनाई जाती है।
खुदीराम बोस की शहादत को बांग्ला साहित्य ने काफी संजोकर रखा है। एक नहीं ऐसे कई साहित्यकार हैं, जिन्होंने समय-समय पर उनकी शहादत को अपनी रचनाओं में पुर्नजीवित किया है, जो शहर उनकी कर्मस्थली रहा और अब वहां उनकी स्मृतियां लोकजीवन में धुंधली हो रही हैं, क्योंकि उसको जीवित रखने का दायित्व जिन सरकारी और सामाजिक संस्थाओं के कंधों पर है, वह उदासीन ही नहीं बुरी तरह से लापरवाह हैं।
तभी तो “अभय” नाम की क्राइम वेबसीरिज में शहीद खुदीराम बोस की तस्वीर अपराधियों के साथ टांक दी गई थी। सोशल मीडिया पर आपत्ति दर्ज होने के बाद निमार्ता-निर्देशक को अपने तरफ से माफीनामा देना पड़ा और लोगों का गुस्सा शांत हुआ।
खुदीराम बोस की स्मॄतियों के साथ खासकर उनकी कर्मभूमि पर उनको लेकर जो उदासीनता है। वह जैसे कह रही हो आज़ाद करा दो खुदीराम बोस को सड़ चुकी उदासीन नौकरशाही से और जन-जन में फैला दो उनकी शहादत की स्मृतियां।