Site icon Youth Ki Awaaz

“अब्बू की उम्र का शौहर मिला, पीटने और साथ सोने में कोई फर्क नहीं था”

सर्दियों का मौसम, बरामदे में छोटे बहन-भाइयों के साथ खेल रही थी, तभी ‘चचा’ आए। अब्बू के दोस्त। चाय की पुकार हुई, पहुंची तो चचा अजीब ढंग से मुझे घूर रहे थे। अब्बू चुपचाप चाय सुड़क रहे थे, मैं लौट आई। उसी रात जाना कि चचा और मेरी शादी होने वाली है।

मैं 13 की थी और चचा अब्बू की उम्र के! गरीबी सिर्फ खाने की तंगी या कपड़ों पर पैबंद दिखने का नाम नहीं। गरीब की दुनिया अलग होती है। तंग गली में पानी के लिए लंबी कतारें, रातों में अक्सर भूखा सोना, छोटी-सीली कोठरी में कई जनों का साथ रहना, ऐसे कि लंबा सोएं तो पांव से पांव टकराएं।

यहां कोई पेटी नहीं होती, जिसमें तहाकर रखे कपड़े पहने जाने का इंतजार करें। अलगनी पर पसरे दो जोड़ी कपड़े ही रोज धोकर पहनने होते हैं। टीन और प्लास्टिक के चीकट हो चुके डिब्बों में रसोई होती है। इन सबके साथ एक और बात भी होती है- डर।

जिस उम्र में बच्चों के दांत टूटते हैं, हमारे ख्वाब टूट जाते हैं। जैसे मेरे! उस रात सोने गई तो अब्बू-अम्मी की खुसुर-पुसुर सुनी। अब्बू भरसक आवाज़ दबाकर बोल रहे थे लेकिन बात साफ सुनाई दे रही थी। मेरी शादी की बात हो रही थी। अम्मी रो रही थी और बार-बार कहती- तेरह साल की बच्ची है वो। सुनते-सुनते 13 साल की वो बच्ची सो गई। सुबह जागी तो अब्बू घर पर नहीं थे।

अम्मी की आंखें सूजी हुई थीं। रात की बात मेरे दिमाग में घूमने लगी। इस घर में 13 साल की तो मैं ही हूं। तब क्या मेरी शादी हो रही है! क्यों! किससे! अब्बू लौट आए थे। मैं फिरकनी की तरह दौड़ते हुए काम कर रही थी, तभी आवाज आई। अब शऊर सीख ले। शादी है थोड़े दिनों बाद।

मैं फक्क! कहना तो चाहती थी! मैं शादी नहीं करना चाहती। मुझे अभी पढ़ने दो अब्बू। मैं पढ़ना चाहती हूं। मैं रो रही थी, अम्मी से सीने से लगी हुई। अम्मी रो रही थीं, मुझे सीने से चिपटाए हुए। अब्बू बेतरह चीख रहे थे। छोटे भाई-बहन छिपकली की तरह दीवार से चिपके हुए थे।

शादी के कुछ महीने बाद ही पेट में बच्चा आ चुका था

शादी हुई, उम्र में मुझसे तीन गुने उस शख्स से जिसे मैं चाचू कहती थी। जिसके आने पर जाने कितनी ही बार मैंने चाय बनाई थी। खाना-नाश्ता परोसा था, जिसने कितनी ही बार सिर पर हाथ फेरा था, आज वो मेरे शरीर पर हाथ फेर रहा था। शादी के कुछ महीने बाद ही मेरे पेट में बच्चा आ चुका था। रसोई पकाते उल्टियां आतीं तो मुंह में दुपट्टा ठूंस लेती। रात तक पस्त हो जाती लेकिन तब तक थककर आए खाविंद की फरमाइशें आ जातीं।

अम्मी मिलने आतीं तो फल लाया करतीं। निकला हुआ मेरा पेट देखकर रो-रो पड़तीं। फिर दुआ करतीं कि बच्चा सेहतमंद हो, जचपन (बच्चे के जन्म के बाद मां का शुरुआती वक्त) बिना तकलीफ बीते। मेरे भीतर पढ़ने की ख्वाहिश अब थोड़ी धुंधली पड़ रही थी। उसकी जगह डर ले रहा था।

एक रोज़ डर सच हो गया, बच्चा गिर चुका था

अम्मी का गांव जंगल के बीचों-बीच था। वहां अक्सर जंगली जानवर आया करते। अम्मी बताती थीं कि गांव में कोई भी ऐसी मुसीबत आने पर ज़ोर-ज़ोर से ढोल बजाया जाता ताकि सबको खबर लग जाए। मैंने कभी अम्मी का गांव नहीं देखा था। लेकिन अब मेरे दिल में वही अनदेखा गांव रहने लगा। हर वक्त जैसे कुछ जोरों से बजते हुए मुझे चेतावनी देता रहता। एक रोज डर सच हो गया। बच्चा गिर चुका था।

डॉक्टर ने शौहर से कहा- “बच्ची है, इसकी देह अभी बच्चे के लिए तैयार नहीं। घर लौटी तो उसने बेदम पीटा। मैं पिटती रही। बिना चीखे-रोए। बच्चा खोकर मैं बड़ी हो चुकी थी। वो बच्चा, जिसे मैं कभी जन नहीं सकी। जिसके गालों पर कभी प्यार नहीं किया। जिसका कभी माथा नहीं चूम सकी। उस बच्चे की बेतरह याद आती।

15 की उम्र में मैं बच्चा खो चुकी औरत बन चुकी थी

मैंने दोबारा पढ़ने की ठानी। लुक-छिपकर ही सही। एक रोज वो शहर से बाहर था। मैं पूरी बेफिक्री से अपनी किताबें पसारकर बैठ गई। तभी खटका हुआ, और इससे पहले कि मैं किताबें छिपा सकूं, वो भीतर था। छोटी-छोटी सिकुड़ी हुई आंखें माजरा समझते हुए और सिकुड़ गई थीं। उसने पीटना शुरू किया। हाथों से, पैरों से, छड़ी से, रसोई के बर्तनों से। हांफते हुए उसका मुंह और बुढ़ा गया था। थक कर रुका तो खाने की फरमाइश कर दी। मैं कपड़े संभालते उठी और बिना चोटें देखे थाली परोस दी।

अब बारी थी साथ सोने की। ये लगभग रोज की बात हो गई। पीटना और साथ सोने में न उसे कोई फर्क लगता था, न मुझे। भरे पेट सुख की डकार मारते हुए उसने कहा- बीवी की जगह घर होती है। उसे किताबें नहीं, शौहर का दिल पढ़ना चाहिए। आइंदा तुम पढ़ती दिखी तो जान से जाओगी।

मैं मां के घर लौट आई। शौहर ने पहले तो धमकियां दीं, फिर तलाक दे दिया। 15 की उम्र में मैं बच्चा खो चुकी तलाकशुदा औरत बन चुकी थी। अब्बू नाराज थे। अम्मी से कहा- इसने खानदान की इज्जत गंवा दी। बकरी जैसी मासूम और सहमी रहने वाली अम्मी इस बार मेरे साथ थीं। तनकर कहा- एक बार तुमने अपने मन की कर ली। अब इसे छुआ भी, तो मैं बच्चों के साथ चली जाऊंगी।

दिनों तक अब्बू और मेरे बीच अबोला रहा। एक दोपहर वो अचानक आए। हाथ में एक लिफाफा था। झेंपते हुए लिफाफा मुझे दिया। चमकते हुए दो पेन, हरदम दहाड़ने वाले अब्बू का चेहरा आंसुओं से धुला हुआ था। धीरे-धीरे बोले- अगले साल तुझे स्कूल जाना है। पढ़ने की तैयारी शुरू कर।

Exit mobile version