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“मैं जीवन की परिस्थितियों से कभी हार मानकर रुकी नहीं”

"मैं जीवन की परिस्थितियों से कभी हार मानकर रुकी नहीं"
यह कहानी कोरोना नहीं करुणा अभियान मीटिंग 2021 पार्ट -2 के सेशन ह्यूमन लाइब्रेरी से ली गई है जिसका नाम सभी ने मिलकर “साहस की कहानी रखा था।

घर परिवार और समुदाय 

हेलो, मेरा नाम रितम है। मैं एक गाँव की लड़की हूं। वर्तमान में मैं अपना काम और पढाई दोनों ही करती हूं । मेरे दो भाई हैं और चार बहनें, मम्मी-पापा और दादा हैं। मेरे बचपन में पापा मज़दूरी का काम करते थे और उसी से घर चलाते थे।

मेरे दो बड़े भाई हैं और हम जिस समुदाय में रहते हैं, वहां लड़कियों से ज़्यादा लड़कों की पढ़ाई को मान्यता दी जाती है, क्योंकि लड़को को अपना माना जाता है। मेरे घर की परिस्थितियां ठीक नहीं थीं। घर में मम्मी और दीदी खेती करतीं और घर भी चलाती थीं। इस तरह मैंने अपनी 5 वीं कक्षा पूरी की। मेरा मिड्ल स्कूल मेरे घर से 7 किलोमीटर दूर था, लेकिन इसी तरह से मैंने मैट्रिक भी पास की।

पापा के एक दोस्त थे, जो ‘मदद’ नाम की एक संस्था चलाते थे। मैं उस संस्था से जुड़ गई। मैं संस्था की लड़कियों के साथ मीटिंग में जुड़ती। इन मीटिंगों में पढाई को लेकर,भेदभाव को लेकर जेंडर को लेकर मैंने बहुत कुछ सीखा और समझा, क्योंकि लड़कियां हमारे साथ मीटिंग में यह सब साझा करती थीं।

मैं जिस संस्था के साथ जुड़ी थी, वह स्कूल ड्रॉपआउट लड़कियों का दुबारा शिक्षा के लिए नाम लिखवाने का काम करती थी। इसी तरह का काम करते-करते मैंने अपनी 12वीं कक्षा पास की थी। 12वीं के बाद मुझे लगा कि मुझे कंप्यूटर सीखना चाहिए और मुझे सीखने का अंदर से उत्साह आया। यहां लड़कियां पढ़ती नहीं थीं, लेकिन मुझे संस्था में जाकर, मीटिंग में पढ़े-लिखे लोगों को देखकर बहुत अच्छा लगता था। 

मेरी अंदर से इच्छा होती थी कि मैं भी पढूं लेकिन मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति थी ठीक नहीं थी। मुझे स्कूल से जो छात्रवृति मिलती थी, उसे मैं जमा करके रखती थी। मैंने अपनी संस्था वालो से बात की मैं भी कंप्यूटर पढ़ना चाहती हूं, जब उनके साथ मैंने अपने इस विचार को साझा किया, तो उन्होंने सुझाव दिया कि आपको पढ़ते हुए सीखना चाहिए।

मुझे इसके लिए मेरे परिवार वालों से समर्थन नहीं मिला लेकिन मेरी मम्मी ने बहुत समर्थन किया। उन्होंने मुझे आगे पढ़ने के लिए कहा, क्योंकि पापा और भाई का मानना था कि लड़कियां कहां जाएंगी? घर से बाहर, कुछ गलत हो गया तो,समाज क्या बोलेगा।

मैं तीन महीने के लिए कम्यूटर सीखने गई और उसके बाद जब छुट्टी लेकर घर आई, तो मेरे पापा मेरे से बात नहीं कर रहे थे। मम्मी से बातचीत करके मैं फिर वापस चली गई। उसके बाद मैं जब आई मेरे पास पैसे नहीं रहते थे कि  मैं पढाई कर पाऊं, तो मैंने पापा से बोला कि “मुझे कुछ पैसे चाहिए, कुछ पास में रहें, तो अच्छा रहता हैं।”

पापा ने बोला, “मैं तो इसलिए मना कर रहा था पटना जाने के लिए फिर क्यों गई? मेरे पास पैसे नहीं हैं।” यह सुनने के बाद मैंने उनसे कभी पैसे नहीं मांगे और फिर मैंने सोचा कि अगर मुझे पढ़ना है, तो मुझे खुद ही मेहनत करनी पड़ेगी।

परिस्थितियों से हारकर कभी रुकना नहीं 

2016 में मैं YP संस्था से जुड़ी, जो व्यापक यौनिकता के स्तर पर काम करता है। मैं यहां पीयर एजुकेटर के तौर पर काम कर रही थी, तभी मदद संस्था के माध्यम से FAT में जुड़ गई। FAT में खुलकर बात करने के साथ-साथ कैमरा का काम भी सीखा। पटना में रहकर पढ़ाई की और FAT के साथ जुड़ी रही, लकड़ियों के साथ मिलना-जुलना बहुत अच्छा लगता था, एक आज़ादी महसूस होती थी।

जहां मैं रह रही थी, वहां बहुत अनुशासन था और आज़ादी नहीं थी। FAT में स्क्रीनिंग करती थी और मुझे स्कॉलरशिप भी मिला था और कुछ-कुछ पैसे मिलने लगे, तो मेरी कॉपी-पेन का खर्चा निकलने लगा। 12 वीं कक्षा के बाद मैंने ग्रेजुएशन का सोचा, क्योंकि घर पर ग्रेजुएशन को लेकर किसी ने नहीं सोचा था। मैंने गौरव ग्रामीण मंच संस्था में प्रतिमा से बात की, “मैंने कंप्यूटर किया है, जो पूरा होने वाला है और ऐसे में मेरे गाँव जाने से सब रुक जाएगा, मैं पढाई करना चाहती हूं।” 

उन्होंने सुझाव दिया कि अगर सोशल वर्क करना चाहती हो तो अच्छा रहेगा और मैं TISS की पढाई करूं, क्योंकि यह चाइल्ड प्रोटेक्शन पर है।

रितम अपने काम के दौरान।

मुझे यह ठीक लगा और उनकी राय अच्छी लगी और मुझे उत्साह आया । मैंने अपने बचत से कॉलेज में दाखिला करवाया और शनिवार रविवार क्लास लेने लगी। मैंने FAT में जो जेंडर सामाजिक और लीडरशिप की बातें सीखी थीं, वह आज अपनी ज़िन्दगी में प्रयोग किया है।

मेरे घर जाने पर समुदाय के लोग बहुत बोलते थे कि मैं घूम रही हूं, इसलिए मैंने एक निर्णय लिया। FAT में खुद को समझने लगी। मेरे पास फोन नहीं था, मैंने 6-7 महीने फोन इस्तेमाल नहीं किया, संस्था के फोन से बात कर पाती थी। मेरी मौसी ने मुझे छोटा फोन दिया, तो उससे मैं अपने दोस्तों से कनेक्ट हो गई और उनसे बात करने लगी। उसके बाद मैं अपने फ़ोन में मेल पढ़ना, मीटिंग की बात करना और अच्छे से समझने लगी और संस्थाओं को लगने लगा कि मैं अब खुद से कर सकती हूं। इसलिए उन्होंने इससे आगे मेरा समर्थन नहीं किया।

मेरे परिवार में भी सिर्फ मेट्रिक तक ही मेरा सपोर्ट था, ताकि शादी हो जाए। धीरे -धीरे मैंने अपना रूम ले लिया,  क्योंकि मुझे पता चल गया था कि मेरे लिए क्या सही और क्या गलत है। मैं रूम लेकर पढ़ती थी, क्लास करती थी। मुझे पैसे की दिक्क्त होने लगी, क्योंकि मुझे किसी ने समर्थन नहीं दिया था और मैं आगे बढ़ रही थी, आवाज़ उठा रही थी, क्योंकि मैं गलत पर आवाज़ उठाती थी।

मुझ पर अचानक से लोड आ गया, क्योंकि मेरी पढाई की फीस ज़्यादा थी और मैं सोचती थी कि पैसे बचाऊं फीस के लिए या फिर खाना खाऊं? मैंने सोच लिया पढ़ना है तो मेहनत और करनी पड़ेगी और इसलिए मैंने जहां ऑनलाइन एग्जाम होते, वहां काम करने लगी और मुझे रोज़ाना के 300/- मिलते थे, जब मैं दोस्तों के साथ जाती थी, तो मेरे साथ भेदभाव करते, जैसे खाने के लिए। उनके पिता को पुलिस तो कोई जेलर था  मैं ही किसान परिवार से थी, जिसकी आर्थिक परिस्थिति ठीक नहीं थी।

मैं ये सब बातें किसी से साझा नहीं करती थी। मैं पहले ही मना कर देती थी, क्योंकि वो सब मेरे पीछे बातें करती थीं, जब FAT के साथ स्क्रीनिंग करनी होती थी, तो मैं पटना से आकर अपने ज़िले में काम करती थी, लेकिन घर नहीं आती थी, क्योंकि घर जाती  तो वे क्या सोचते, मुझे पैसे की ज़रूरत भी थी।

इसलिए बक्सर में आकर मीटिंग करती और खत्म करके चली जाती पटना, लेकिन घर नहीं जाती थी, क्योंकि आसपास के लोग बात करते जितना मम्मी से बात होती थी, तब पता चलता था फिर रात को 12 बजे भी अपने रूम पर ऑटो लेकर पटना जाती थी। इसी तरह करते -करते मैंने दूसरा साल भी पार कर लिया।

प्रतिमा दीदी के द्वारा मैं एक और संस्था से जुड़ी जिससे मैंने अपने समुदाय में फुटबाल की एक टीम बनाई। मैंने सोचा समाज में लड़कियां प्रेरित होंगी और क्योंकि जेंडर के नियम बहुत ज़्यादा हैं और आज भी वह टीम खेल रही है।

मैं 2020 में आकर ‘ग्रुप इंडिया ऑर्गनाइज़ेशन’ में जुड़ गई। इसमें मुझे 22 गाँवों और दो ब्लॉक में काम करना था। घोड़े,खच्चर, कैसे एनिमल के लिए काम करना था। वह क्यों बीमार होते हैं, उनकी दवाइयां इलाज की जागरूगता फैलाने को लेकर। इसी बीच लॉकडाउन हो गया और उस दौरान मुझे 18,000/- रुपये मिल जाते थे।

गाँव की महिलाएं, बच्चे सब आ जाते, तो अच्छा लगता था और मेरा मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहता था, जब जनवरी आता है, तो एनिमल के मालिक चिमनी के पास आ जाते हैं। इसी वजह से कुल 27 गाँवों में काम करना पड़ता था और मैं थक जाती थी, लेकिन शनिवार-रविवार छुट्टी मिलती थी, तो अपनी पढाई और सुकून के पल और आराम कर पाती थी, लेकिन कुछ दिन बाद शनिवार-रविवार की छुट्टी खत्म हो गई अब बस एक दिन की छुट्टी है।

मुझे बारिश खत्म होते ही भट्टे पर और गाँवों में जाना पड़ता था। इसके चलते मुझे पढ़ने का समय नहीं मिलता था और मुझे रिपोर्ट भी लिखनी पड़ती थी। ऑफिस में मैं ही 22 साल की थी बाकि 40 साल के लोग थे, मुझे लोग जानते थे, तो मैंने सर को बताया कि मैं बहुत डिस्टर्ब हो रही हूं और मैं रिजाइन देना चाहती हूं। मैंने अपनी पढाई की वजह से इस्तीफा दे दिया और अभी मैं घर से आप सभी के साथ ऑनलाइन जुडी।

मुझे बहुत ज्यादा पढ़ने का शौक था । मुझे बहुत लगता था कि मैं भी बहुत पढूं और सीखूं किसी चीज़ को, क्योंकि मुझे पढ़े हुए लोगों को देखकर बहुत खुशी होती थी।

सवाल और जवाब

सवाल . पहले पापा भरोसा नहीं करते थे तो अब क्या पापा विश्वास करते हैं और आपकी क्या चुनौतियां रही हैं?

जवाब-  पहले के मुकाबले अब की स्थिति अच्छी है। अगर मेरी बहन भी हिम्मत करे, मेरी राय ली जाती है, मैं निर्णय और अपनी ज़िम्मेदारी ले सकती हूं। लोगों के मन में यह रहता है कि लड़कों से बातचीत या गलत कदम ना  उठा ले या इसके साथ कुछ हो ना जाए लेकिन मेरे अंदर सीखने का जूनून था। मेरी माँ ने इसमें बहुत साथ दिया और इसके बाद मैंने खुद को सुना और आगे बढ़ी।

सवाल . क्या आपके आसपास बदलाव आया, आपके आसपास के माहौल में?

जवाब- लॉकडाउन होने के कारण मुझे वापस पटना आना पड़ा। आज मेरी समुदाय में एक अलग पहचान है और मैं अपनी  पढाई -लिखाई का काम करती हूं और मेरे प्रति जो गलत सोचते थे, अब वो नहीं सोचते हैं और अब वो भी सोचते हैं कि उनकी लड़कियां भी निकलें और अच्छा करें। 

रितम FAT की कार्यशाला के दौरान।

जब मैं संस्था से नहीं जुड़ी थी, तो ऐसे ख्याल भी नहीं आता था कि मुझे बाहर जाकर ही पढ़ना हैं लेकिन जब संस्था से जुड़ी, तो मुझे भी लगा कि मुझे भी कुछ करना है, मुझे सपने आने लगे कि मुझे भी कुछ करना है, पढ़ना है। मैं जब संस्था से जुड़ी, तो उस समय 40 लड़कियों को लीडर भी बनाया गया, दिल्ली, पटना जाने लगी और मेरे लिए आसान हो गया अपनी ज़िम्मेदारियों, निर्णयों को लेना, मैं अपनी जिंदगी की मुखिया हूं, मैंने यह सब अपने संघर्ष एवं संस्थाओं से सीखा है।

वर्तमान में रितम पटना से दिल्ली में आकर अपनी ट्रेनीशिप कर रही हैं, जहां रितम गर्ल्स इन स्टेम टीम और सहभागियों  के साथ काम करना और अपनी समझ आगे बढ़ा रही हैं। 

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