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खुद में बचपन बचाए रखना ही कला है, जीवन है

खुद में बचपन बचाए रखना ही कला है, जीवन है

बच्चों के लिए जीवन कुछ और नहीं बल्कि मौज-मस्ती है। मुझे याद है जब मैं बच्चा था, तब खेलकूद ही मेरे लिए जीवन था।

उस वक्त केवल जीना और जीते रहना ही जीवन नहीं था। उस वक्त तो नटखटपन भी जीवन था और शायद इसीलिए मनुष्य सबसे खुश और सबसे दुखी प्राणी है, क्योंकि वो जीवन में जीवन खोजता रहता है जबकि जीवन खोजने की चीज़ नहीं है बल्कि जीवन जी लेने की चीज़ है। खोज में तनाव है जबकि उन्मुक्तता में मज़ा है।

बच्चे उन्मुक्त होते हैं, उन्मुक्त बच्चों को डांट-डपटकर खोज में लगा दिया जाता है! डिग्री की खोज, जॉब की खोज, पैसों की खोज, रुतबे की खोज और ना जाने क्या-क्या? खोज ज़रूरी भी है लेकिन खोज उन्मुक्त भाव से हो जैसे रवींद्रनाथ टैगोर ने खुद में साहित्यकार को खोजा, आइंस्टीन ने खुद में वैज्ञानिक को, चाणक्य ने खुद में कूटनीतिज्ञ को, सचिन तेंदुलकर ने खुद में क्रिकेटर को, अशोक खेमका ने खुद में प्रशासक को, लता मंगेशकर ने खुद में गायिका को और रवीश कुमार ने खुद में एक पत्रकार को खोजा।

खोजना स्वार्थ भाव से होगा, तो जीवन से मज़ा दूर जाता रहेगा और बच्चे कभी मज़े से दूर होते हैं क्या? नहीं! क्योंकि बच्चों में स्वार्थ नहीं होता है। स्वार्थ होता भी है, तो मज़ा के लिए और मज़ा होता है तो खुद को उन्मुक्त भाव से व्यक्त करने के लिए।

सचिन तेंदुलकरजब बच्चे होंगे और मज़ा चाहते होंगे, तो वह बैट-बॉल पकड़ते होंगे ना कि कलम? लेकिन इसी मज़े ने उन्हें क्रिकेट का भगवान बना दिया। ऐसा नहीं है कि परिस्थितियां अपनी भूमिका नहीं निभाती हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ परिस्थितियां ही तय करती हैं। जीवन को परिस्थितियों पर छोड़ना वैसा ही है, जैसे किसी नाव को समुद्र में छोड़ना!

संकुचित अर्थ में जीवन जीवित दशा को कहते हैं, वहीं विस्तृत अर्थ में जीवन वही है, जो एक बच्चा जी रहा होता है। दोस्त-यार, खेल-कूद, हुर्र-फुर्र और नटखटपन की चाशनी में आनंद के उस पार जाते हुए बच्चों में ही जीवन है जब वही बच्चा बड़ा हो जाए, तो रुचि के अनुसार किसी एक क्षेत्र में आगे बढ़ना जीवन हो जाता है।

यहां कहने का मतलब साफ है कि आप उस्तरा पकड़ने वाले को कुदाल पकड़ा दीजिए, तो ना केवल फसल का नाश होगा बल्कि वह अपना भी पैर काट सकता है जैसे आप जावेद अख़्तर से गीत नहीं गववा सकते और अरिजीत सिंह से गाना नहीं लिखवा सकते, क्योंकि बच्चे को पता होता है कि वह क्या कर सकता है? जिसमें मन ना लगे वह उस काम को छुएगा तक नहीं! इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें पढ़ने से छूट दे दी जाए। हां, उतना पढ़ा दीजिए कि वह स्वनिर्णय सही ले पाए। क्या बनना है इसमें जीवन नहीं है, बच्चे क्या बनना चाहते हैं? इसमें जीवन है।

हम जब बच्चे होते हैं, तब कलाकार होते हैं। कलाकारी हमारी सभी क्रियाओं में दिखती है मगर जैसे-जैसे बड़े होते हैं, सभी क्रियाओं में अजीब सा उदासीपन हावी होने लग जाता है। हम जीवन को कुछ और मान बैठते हैं।

वहीं समाज, परिवार और हमारे अपने लोग हमें जीवन को कुछ और मानने के लिए बाध्य कर देते हैं, तब हमारा कलाकार हमसे गायब हो जाता है। ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जो विपरीत परिस्थितियों में भी परिस्थिति और परिवार से लड़कर अपने अंदर के कलाकार को बचाए रखते हैं जैसे अपने अंदर के लेखक को बचाए रखा था मुंशी प्रेमचंद ने! यूं भी हर वो काम जो अदा या सलीके के साथ किए जाए वह कला है और उसे करने वाले कलाकार हैं।

मेरे हिसाब से अपने-अपने क्षेत्र में हर सफल व्यक्ति जो अपने कार्यों से संतुष्ट है, कलाकार है। जीवन को जितना एक बच्चा समझता है, उतना बड़े कहां समझ पाते हैं? जिस उद्देश्य/लक्ष्य के लिए जीवन नीरस हो जाता है, उससे बेहतर को हम हासिल कर सकते हैं बशर्ते समझने में स्वार्थ ना हो बल्कि समझने में उन्मुक्त भाव हो।

स्वार्थी मनुष्य के लिए जीवन बोझिल है, वहीं उन्मुक्त हृदय वाले मनुष्य के लिए जीवन से सहज/सरल कुछ भी नहीं! अपने मूल रूप में जीवन बहुत सहज और सरल है। हर वो इंसान जो मज़े में है, भले ही वह कोई भी कार्य करे, जो खुद के अंदर एक बचपन को ज़िन्दा रखे हुए है, जिसका जीवन सुकून है, जीवन ज़बरदस्ती कुछ हासिल करना नहीं है।

जीवन खुद में मौजूद एप्टीट्यूड के अनुसार, दुनिया में मौजूद वैसे ही सिस्टम को आकर्षित कर लेना है। हमें सब कुछ चाहिए लेकिन एप्टीट्यूड के अनुसार जटिलताओं से बच्चे दूर भागते हैं, जीवन भी जटिलताओं से दूर हो जाता है।

बच्चे पारदर्शी होना चाहते हैं, जीवन को भी पारदर्शिता पसंद है। जीवन रस है और बच्चों से ज़्यादा रस कौन दे पाता है भला! जीवन यानि फुदकता हुआ बचपन/लड़कपन।

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