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क्यों महिलाओं के खाने की थाली आधी होती है

महिलाओं की शारीरिक सुंदरता की भूरी-भूरी प्रशंसा में भारतीय ही नहीं, बल्कि विश्व की हर भाषा के साहित्य में बहुत कुछ लिखा जाता रहा है। मौजूदा दौर में भी साहित्य के साथ-साथ सौंदर्य प्रतियोगिताओं का भी चलन है, जो बाज़ार के साथ अपनी साझीदारी करके नए-नए प्रतिमान गढ़ भी रहा है। हाल के दिनों में भी मिस यूर्निवर्स हरनाज संधू के कर्वी फिगर को लेकर कई कसीदे लिखे जा रहे हैं।

परंतु, महिलाओं की शरीर की सुंदरता के इन मर्सियाओं ने भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया भर में महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर असमानता का सामान्यीकरण परिवार के स्तर तक कर दिया है, जिसका असर पूरी दुनिया की आधी-आबादी की थालीयों पर भी होता है, जिसकी शायद ही कभी चर्चा होती है।

इस वजह से पूरे विश्व में आज बेटों की तुलना में बेटियों की कमी है। सयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल रिपोर्ट बताती है कि पिछले पचास दशक में पूरी दुनिया में युद्दों में उतने पुरुष नहीं मरे हैं, जितनी परिवार और समाज में असमानता के समान्यीकरण के कारण लड़कियों की मौत हुई है।

भारत के आम परिवारों में लैंगिक असमानता का समान्यीकरण का स्तर इतना गहरा है कि उसका असर भोजन करने पर भी है मगर इसपर ध्यान किसी का नहीं है। कमोबेश हर परिवार में महिलाओं पर भोजन बनाने की ज़िम्मेदारी ही नहीं, बल्कि घर के हर सदस्यों को भोजन कराने की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं पर ही होती है।

हर भारतीय परिवार में मेरे हम उम्र दोस्तों के याद में यह हिस्सा मौजूद है कि पत्नियां, बहन और बेटियां पहले पिता, पति और भाईयों के लिए खाना लगाती थीं। कभी-कभी वह सिर्फ उतना ही खा पाती थीं जितना उनके खाने के बाद बचा होता था। आज भी यह बहुत समान्य है कि चिकन बनने पर लेग पीस या मटन बनने पर मनपसंद पीस का घर के पुरुष या लड़कों के लिए ही बचाकर रखा जाता है ना कि लड़कियों के लिए!

सामान्य या आम घरों में ही नहीं, अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी घरों में भी महिलाएं इस भावना की गिरफ्त में हैं कि पुरुषों को अधिक और पौष्टिक भोजन की आवश्यकता है। वह सिर्फ इसलिए है, क्योंकि वो काम पर जाते हैं। यह बेहद दिलचस्प विरोधाभास है कि रसोई घर में सबसे अधिक वक्त बिताने वाली महिला से स्वादिष्ट भोजन ही बनाने की उम्मीद नहीं की जाती है, बल्कि मिक्सी के दौर में सिलबट्टे से दरदरे चटनी की फरमाइश होती है। स्वयं उसकी थाली में ना केवल कम रोटियां, चिकन/मटन/मछली का मनपसंद पीस तक नसीब नहीं होता है।

यूनिसेफ या अन्य संस्थान जब अपनी वैश्चिक रिपोर्ट में भारत में किशोर और 45 की उम्र वाली महिलाओं में कुपोषण के साथ-साथ खून की कमी की बात सतह पर लेकर आती है, तब लड़कियों में सुंदरता और उचित देहयष्टि के फैशन को वजन और खून में कमी का कारण बता दिया जाता है।

इस बात को कभी स्वीकार्य नहीं किया जाता है कि महिलाओं के साथ इस स्थिति का प्रमुख कारण परिवार के अंदर असमानता के समानयीकरण से है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली ही नहीं आ रही है। यह आज भी कई परिवारों में मौजूद है।

अच्छे होटल या रेस्टोरेंट में भी जब वह अपने खाने से तुलना करती है या खाने में कमी निकालती है तो आलोचना के घेरे में होती है। वज़ह यह कि शेफ रोज़ सैकड़ों लोगों का खाना बनाता है और महिलाएं केवल घर के आठ-दस लोगों का खाना बनाती हैं, उन्हें क्या मालूम होगा?

क्यों यह किसी को अजीब नहीं लगता है कि जो महिलाएं अपने जीवन का अधिकतर समय रसोई में हींग-हल्दी और बेलन-तवे के साथ बिताती हैं, वे होटलों में शेफ के खाने में मीन-नेख नहीं निकाल सकती हैं?

घर के सभी सदस्यों को खिलाने के बाद स्वयं बचा-खुचा खाने से महिलाओं का स्वास्थ्य प्रभावित होता ही है। वे पति-भाई-पिता और परिवार की सुख-समुद्धि की कामना के लिए सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सवों में उपवास भी करती हैं। इसके साथ-साथ संतान उत्पत्ति की जैविक आवश्यकता भी उसकी शारीरिक काया को प्रभावित करती है।

यही नहीं, उनकी शारीरिक काया की तुलना दूसरी महिलाओं से होती रहती है, जो ज़ीरो फिगर की आशा में मानसिक शोषण तक करती है। महिलाओं के जीवन में भोजन से जुड़े इन राजनीतियों पर कभी बात ही नहीं हो पाती है ना ही यह कभी बड़े बहस का विषय बन पाती है।

वही, दूसरी तरफ महिलाओं को स्वयं कैसे दिखना है, उन्हें मांसल स्त्रियों की तरह दिखना है, सुढ़ौल या छरहरा दिखना है, पतला या नाज़ुक होना है, यह इच्छा स्वयं उनकी इच्छा से कम पुरुषों की इच्छा से अधिक प्रभावित होता है।

कम आय परिवार की महिला हो या मध्य या उच्च आय प्राप्त करने वाला परिवार, महिलाएं स्वयं के सौंदर्य के मामलों में पुरुष दास्ता से भी जुड़ी हुई हैं। हाल के दशकों में मध्यवर्गीय महिलाओं में स्वयं को चुस्त-दुरुस्थ रखने की चाह बढ़ी है। शरीर को गठिला रखने के लिए रोज़ जॉगिंग करने वाली महिलाएं ही नहीं, बल्कि टेनिस खेलती और जिम जाती हुई महिलाओं से लेकर योगा और ग्रीन टी पीने वाली महिलाओं ने भी कोमलता और सुंदरता के समीकरण को चुनौती देना शुरू किया है।

परंतु, यह आंकड़ा उन्हीं परिवारों तक सीमित है, जहां आर्थिक विषमता की चुनौती बहुत हद तक हल हो चुकी है या फिर कामकाजी महिलाओं के लिए यह ज़रूरी हो गया है कि वे स्वयं को फिट और छरहरा रखें।

देश की महिलाओं की एक बड़ी आबादी में परिवार के अंदर स्वयं को योग्य होने के संस्कृतिजन्य धारणा इतनी मज़बूती से घर बनाए हुई है कि वह परिवार के अंदर भोजन के असमान्य वितरण को जान-बूझकर स्वीकार्य करने और स्वयं आधा पेट खाने को विवश हैं। उनके पास डायटिंग या हेल्दी डाइट के बारे में सोचने का विकल्प ही नहीं है, क्योंकि वे परंपरागत धारणाओं के जकड़न में कैद होकर पहले से ही अल्पाहार कर रही हैं।

वे इस वैज्ञानिक तथ्य को कभी स्वीकार्य ही नहीं कर पाती हैं कि बच्चे पैदा करने के निर्णय के साथ उसको भी पोषण रहित भोजन की आवश्यकता है। पोषण रहित भोजन के अभाव में माँ के शरीर से प्राप्त भोजन पर निर्भर बच्चे पर क्या असर होगा, इसकी गंभीरता भी बस प्रसव काल या बच्चों का माँ का दूध पीने तक ही सीमित रहता है।

एनीमिया के हलिया रिपोर्ट ने भोजन के साथ महिलाओं की राजनीति को फिर से सतह पर लाकर पटक दिया है। भारत सरकार के 22 राज्यों में हुए सर्वेक्षण बताते हैं कि देश में कुपोषण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। महिलाओं में एनीमिया की शिकायत आम है और बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं।

सभी महिलाओं को मज़बूती और साहस की ज़रूरत है। स्वास्थ्य, शक्ति और सहनशक्ति को लेकर, इस सत्य को मंज़िल तक पहुंचने के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी है। भारत जैसे देश में इसके सफर की शुरुआत भी नहीं हुई है।

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