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मनोरंजन के साथ पितृसत्ता को मज़बूत करती है फिल्म ‘पुष्पा द राइज़’

मनोरंजन के साथ पितृसत्ता को मज़बूत करती है : पुष्पा द राइज

दक्षिण भारत की फिल्मों को हिंदी फिल्मों के सितारों से सजा-धजाकर नए कलेवर में पेश करके दर्शकों का मनोरंजन किया जाता रहा था और सीमित संख्या में दक्षिण भारतीय फिल्मों को हिंदी भाषा में डब करके भी रिलीज किया जाता रहा है, इसका एक अपना दर्शक वर्ग है।

कोरोना महामारी के इन दिनों में ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर कुछ फिल्मों को दक्षिण भारतीय भाषा के साथ हिंदी में प्रस्तुत नहीं किया गया पर दर्शकों ने सब-टाइटल से फिल्मों को ना केवल समझा बल्कि उनकी काफी सराहना भी की। 

दर्शकों की यह सराहना एक बड़े बाज़ार को खोलने के साथ-साथ दक्षिण भारतीय निर्माता-निर्देशकों के लिए इशारा था कि बेहतर कन्टेट के साथ अगर उन्होंने अपनी कहानी हिंदी भाषा में सुनाई, तो उन्हें सफलता निश्चित ही मिलेगी। देश में “जय भीम” फिल्म की अपार सफलता ने यह साबित कर दिया था।

कुछ दिनों पहले अल्लू अर्जुन की आई फिल्म  “पुष्षा: द राइज” को दर्शकों ने जिस तरह पसंद किया, वह साबित करती है कि यह फिल्म सच में फ्लावर नहीं है फायर है। फिल्म में एक्शन, अभिनय, रोमांस, बदला, कॉमेडी, अमीरी-गरीबी है, ज़िन्दगी है।

इस फिल्म की कहानी के कई पात्रों की कहानी और उनका जीवन हमारे समाज के कुछ समुदायों के बेहद करीब भी है। 300 करोड़ रुपया कमाने वाली फिल्म ने हमारे मनोरंजन के लिए जो कहानी सुनाई और जिस तरह से सुनाई, वह एक अतिशयोक्ति के साथ-साथ हमारी हिप्पोक्रैसी का शानदार उदाहरण है।

क्या है पुष्षा: द राइज की कहानी?

फिल्म की कहानी बस इतनी सी है कि पुष्षा एक साधारण मज़दूर है, जो अपने शातिर दिमाग से लाल चंदन की लकड़ी का तस्कर बनता है और जैसे-जैसे उसका कद बढ़ता है ठीक वैसे-वैसे फिल्म की कहानी आगे भी बढ़ती है और पुष्पा के अतीत को भी थामे रहती है, जिसमें पुष्पा के पिता के मरने के बाद उसके सौतले भाई उसे और उसकी मां को स्वीकार नहीं करते हैं।

पिता के साथ मिलने वाली अपनी पहचान के साथ वह अपनी पहचान रखना चाहता है पर सामाजिक सोच और वर्चस्ववादी विचार हर बार उसके सामने खड़े हो जाते है। हालांकि, यह कहानी पहले पार्ट की ही है और अगले पार्ट में यह कहानी पूरी होगी जिसके लिए आपको अभी इंतज़ार करना पड़ेगा।

कहानी कई जगहों पर क्यों खटकती है?

इस फिल्म का अभिनेता जब पुलिस की आंखों में धूल झोंकते हुए लकड़ियों के लट्ठों को कभी हवा में टांग देता है, तो कभी नदी में बहा देता है और सिनेमाहाल में दर्शक ताली बजाने लगते है। पर्यावरण की चिंता में सेमिनारों, प्रतिरोधों के खिलाफ पुलिस का दमन सब एक साथ आंखों के आगे फास्ट फॉरवर्ड होने लगता है।

पहला सवाल यही आता है कि जब इतनी मुश्किल से पर्यावरण अब राजनीतिक मुद्दा बन रहा है, तो ऐसी फिल्म को और ऐसी अवधारणा को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है?

फिल्म अपनी कहानी में जहां एक तरफ अपनी कहानी में महिलाओं की हालत को बखूबी दिखाती है। वही दूसरी तरफ वह स्त्री विमर्श के वैचारिकी के बेहतरीन उभारों के सामने रास्ते का पत्थर बनकर खड़ी हो जाती है। इस फिल्म के अभिनेता पुष्पा की सारी कुठाएं इस बात की हैं कि उसकी पहचान उसके पिता के नाम से नहीं है।

उसकी माँ ने उसको किस परिस्थितियों में पाला-पोसा इसका फिल्म में कोई रेखांकन तक नहीं है? पुष्पा अपने बाप के खानदान से अपनी माँ और अपने लिए स्वीकृति चाहता है। एक अकेली माँ ने किन हालातों में पुष्पा को पाला इस पर कोई वैचारकी ही नहीं है।

फिल्म का नायक पुष्पा अपने खून पर गर्व करता है और उसको अपना ब्रांड तक कहता है, तब लगता है वह रक्त शुद्धता से अपना एक वर्चस्व चाहता है, वही वर्चस्व जो हर तरह की पितृसत्ता को मज़बूत करता है। वही पितृसत्ता जिसका शिकार बचपन से अब तक पुष्पा खुद होता रहा है। वही पितृसत्ता जहां महिलाएं सिर्फ उपभोग की एक वस्तु के समान हैं, जिसे जब चाहे, जहां चाहें अपनी प्यास बुझाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

बेशक पुष्षा: द राइज मनोरंजन करती है पर वह नायकत्व नहीं गढ़ पाती है, जिसके लोग दीवाने हो जाते हैं।


फोटो साभार- अमेज़न प्राइम ट्विटर हैंडल

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