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फिल्म समीक्षा : धर्म और राजनीति के उन्माद को दर्शाती है ‘राम के नाम’

फिल्म समीक्षा: राम के नाम

श्री राम के कदमों की छाप पर वाकई में इतनी ताकत है कि उन निशानों की महक को पूजने वाला हर व्यक्ति सत्ता की छाया का हकदार हो जाता है। भले ही अयोध्या की भूमि में उन कदमों की छाप नज़र ना आए लेकिन उस ज़मीन को पूजने वालों की संख्या में अनगिनत कदमों का जमावड़ा शामिल है।

मैं नहीं जानता अयोध्या की पवित्रता मंदिर से आती है या मंदिर में बजने वाली घंटियों की आवाज़ इसकी पवित्रता बढ़ाती है? लेकिन आनंद पटवर्धन जी के निर्देशन में बनी “राम के नाम” डाक्यूमेंट्री फिल्म, उस पवित्रता के असर को दिखाती है और मंदिरों में बजने वाली उन घंटियों की मांग को भी।

यह फिल्म 16वीं शताब्दी में मुगल बादशाह बाबर द्वारा तैयार हुए बाबरी मस्जिद को तोड़कर हिन्दू राम मंदिर बनाने की मांग की ओर केंद्रित है जिसमें यह साफ-साफ झलकता है कि मंदिर के नाम पर लगी प्यास जनता के भीतर इतनी है और मानवता का कोई मोल नहीं।

19वीं शताब्दी तक अयोध्या मंदिरों से भर चुका था, जिसमें से महत्तम मंदिरों का मानना था कि श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या ही है। उस वक्त अंग्रेज़ों के पैर भारत पर जम चुके थे, लेकिन उन्हें यह डर था कि हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे से कहीं उनका तख्ता ना पलट जाए शायद इसलिए अंग्रेज़ इस अफवाह को हवा देने लगे कि मुगल बादशाह बाबर ने बाबरी मस्जिद का निर्माण राम जन्म भूमि मंदिर को तोड़कर किया था। इस अफवाह ने परोक्ष रूप से लोगों पर असर किया।

लाल झंडा जब भी उठता और अयोध्या की हवा में बहता, इतनी ऊपर उठता और इतनी रफ्तार से बहता की एक बड़े ढांचे को गिराने की हिम्मत रखता पता नहीं इस झंडे की दुश्मनी हरे झंडे से है या मुसलमानों के उस पवित्र स्थान से जहां घंटी नहीं है लेकिन यह झंडा इतना मज़बूत है कि राजनैतिक और सामाजिक शक्ति से परे हो जाए।

“राम के नाम” फिल्म राम के नाम पर ही समर्पित है, इसलिए नहीं कि इस फिल्म में राम के पक्ष पर कोई सवाल नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि उस पक्ष को सहारा देने वाली अधिकतम जनता ने अपना जीवन राम के नाम पर ही समर्पित कर दिया है। यह वही जनता है जिनकी आवाज़ बार-बार इस फिल्म में सुनाई पड़ती है। यह लोग अपने धर्म से घनिष्ठ प्रेम करते हैं और धर्म के बीच आने वाली किसी भी बाधा पर निथरना नहीं चाहते हैं। धर्म इनके अस्तित्व की पहचान बन गया है और राम इनके अस्तित्व के निर्माणदाता।

आधुनिक इतिहास यह नहीं जानता कि राम का जन्म किस शताब्दी में हुआ था, मगर आधुनिक समाज पर यह ज्ञान सवार है कि राम का जन्मस्थान अयोध्या है। इस फिल्म पर गैर-धर्मनिरपेक्ष समाज की उस स्थिति का प्रदर्शन जनता द्वारा मुखरित होता है, जब राजनैतिक शक्ति भी धार्मिक स्वभाव के नियंत्रण में उतर आती है।

10,000 किलोमीटर की वह रथ यात्रा 25 सितम्बर, 1990 से शुरू हुई जो सोमनाथ से अयोध्या तक की थी। “बच्चा-बच्चा राम का जन्मभूमि के काम का!” जैसे नारे हर किसी की ज़ुबान से निर्यात होने लगे। राजनीतिक शक्ति और उच्च जाति वर्ग के लोगों का गुस्सा अब राम-मंदिर के समर्थन पर तब्दीली हो रहा है।

कहीं जनएकत्र में “एक धर्म की अस्मिता और अहंकार के नाम पर दूसरे धर्म की अस्मिता और आस्था को आप तोड़ नहीं सकते इस बात को ध्यान में रखिए” जैसे भाषण लोगों को प्रभावित करते, तो कहीं “देश द्रोहियों सावधान जाग उठा है राम भगवान” जैसे नारे उस प्रभाव पर भी विजय हासिल करते।

सोमनाथ से चलने वाली यह रथ यात्रा राम के नाम पर देश भर के लोगों को एकत्र कर रही है। इस लोकरथ ने मन में संकल्प लिया है कि 30 अक्टूबर को यह अयोध्या पहुंचकर कारसेवा करेंगे और मंदिर वहीं बनाएंगे।

यह वह स्थिति थी, जब हिन्दू-मुस्लिम नाम पर दंगों का दिखना चरम सीमा पर था। उस समय मानो ‘हिन्दू’ शब्द का विपरीत अर्थ ‘इस्लाम’ हो। मुसलमानों के प्रति हिंदुओं की नितांत नफरत को मापने का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता था और यही नफरत अब बाबरी मस्जिद को तोड़ राम मंदिर बनाने की प्रक्रिया का कारण बन चुकी थी। 

30 अक्टूबर, 1990 के दिन यह जानना मुश्किल हो रहा था कि कौन तीर्थयात्री है और कौन मस्जिद तोड़ने आया है। अब तो सरकारी परिबद्ध उन पर भी लग गया था, जो सिर्फ तीर्थयात्री बनकर परिक्रमा करने आए थे।

कारसेवकों के नारे गूंजने लगे “हिन्दू-हिन्दू भाई-भाई, बीच में वर्दी कहां से आई?” इन लोगों के अंदर प्रशांति का ठिकाना ना था, बस नफरत और अशांत रूह इनको नियंत्रण करती। इनके दिलों-दिमाग पर बस मस्जिद मिटाने की लालसा का जूनून सवार था। लोगों की प्यास थी या भूख यह पहचानना मुश्किल है लेकिन इस स्तर पर यह स्थिति दर्द को भी अनसुना कर देने वाली थी। 

दिसंबर 1992 में कट्टरपंथियों ने बाबरी मस्जिद को तोड़ ही दिया और देशव्यापी दंगों में हज़ारों निर्दोष व्यक्तियों  की जानें गईं। राम की मर्यादा पता नहीं साबित हुई या नहीं लेकिन श्री राम के पवित्र स्थान पर रक्त की नदियों ने राम के कदमों की छाप ही मिटा डाली। इस डॉक्यूमेंट्री पर राम कहीं नहीं दिखते लेकिन राम के नाम का असर तो फिल्म के हर सीन पर था।

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