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“मरते हुए लोकतंत्र से जिजीविषा की उम्मीद”

कविता : लोकतांत्रिक उम्मीद

एक देश की
संसद को कीचड़ के
बीचों-बीच होना चाहिए
ताकि अपने हर अभिभाषण के बाद
संसद से निकलते ही एक राजनेता को
पुल बनाना याद रहे

एक लोकतांत्रिक कविता को
गाँव, मोहल्ले और शहर के
हर चौराहे पर होना चाहिए
ताकि जनता के बीच
आज़ादी और तानाशाही का
अंतर स्पष्ट रहे।

एक लेखक को
प्रतिपक्ष की कविता लिखने की
समझ होनी चाहिए
ताकि सिर्फ किताबों के बीच ना सिमटकर
वो मंचों की प्रसिद्धि से परे
जन-जन की आवाज़ बन सके

एक नागरिक को
अपने हक की आवाज़ का
बोध होना चाहिए
ताकि इस कागजी जम्हूरियत में
सभ्य नागरिक बनने का
अभिनय करते हुए
वो सिर्फ मौन जीवन बिताकर ना मरे।

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