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कविता : भूख बनाम सरकारी इश्तिहार

कविता : भूख बनाम सरकारी इश्तिहार

वो खूबसूरत थी
किसी रंगीन पत्रिका की तरह
पर उसकी आंखों में एक भूख थी
भूख, जो खूबसूरती के बावजूद
देह को हाथ फैलाने पर मज़बूर कर दे

वह किसी गंवार आदमी के
साथ शहर आई होगी
उसे शहर में जीने का सलीका नहीं आता
इसलिए उसने चुना, चुपचाप हाथ फैलाना
मेट्रो टनल की सीढ़ियों पर
सरकारी इमारतों के नीचे
घनी आबादी वाली बस्तियों में
राजधानी के चौराहों पर

अंत में उसे जब भरपेट
अनाज नहीं मिला होगा
तो उसने चुना
अपनी देह को फैलाना
शहर की संकरी गली के
किसी कोठे में
उछलते शरीर के नीचे
उसने चुना मर्द जात का
पेट भरकर
अपनी भूख मिटाना

उसका जुर्म बस इतना था
कि उसने नहीं पढ़ा
अखबार और रंगीन पत्रिकाओं में
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ के
सरकारी इश्तिहार

क्योंकि वो किसी गंवार आदमी
के साथ शहर आई थी।

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