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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की आज़ादी एवं मानवाधिकारों के लिए सावित्रीबाई फुले का संघर्ष

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महिलाओं की आज़ादी एवं मानवाधिकारों के लिए सावित्रीबाई फुले का संघर्ष

भारत जब अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था, तब देश में महिला मानवाधिकारों की एक बहस की शुरुआत सावित्रीबाई फुले ने की थी। सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला शिक्षिका ही नहीं वरन वह पहली महिला मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं, उन्होंने अपने जीवनकाल में, देश में उस समय महिला शिक्षा की बात की जब हमारा समाज महिला शिक्षा के बारे में चर्चा करना भी पाप समझता था, तब सावित्री बाई ने 1852 में महिलाओं के लिए प्रथम महिला विद्यालय की स्थापना की। 

उस वक्त उन्हें समाज की कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा था, लोग उन पर कीचड़ फेंका करते थे और उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था। उन्होंने अपने प्रथम महिला विद्यालय के प्रथम सत्र में 80 से अधिक ब्राह्मण लडकियों को शिक्षित करने का कार्य किया और इस कार्य में फातिमा शेख जैसी मुस्लिम महिलाओं ने उनके हर कदम पर उनका साथ दिया। 

उनका अपना कोई पुत्र नहीं था, तब उन्होंने एक ब्राह्मण लड़के को गोद ले कर उसे पढ़ा कर डाक्टर की डिग्री दिलवाई। उन्होंने अपने जीवनकाल में कई सामाजिक बुराइयों के खिलाफ खुल कर बोला ही नहीं बल्कि उसके लिए उन्होंने प्रयास भी किया, जिसमें उन्होंने अपने पति को मुखाग्नि भी दी। 

उनके दत्तक पुत्र यशवंतराव ने डाक्टरी की पढाई पूरी कर गाँव में प्लेग मरीज़ों का निस्वार्थ भाव से इलाज किया और उन्होंने अपने जीवन में काफी कार्य किया। हाल ही में हमने सावित्री बाई फुले की 191वीं वर्षगांठ मनाई है और हम सावित्री बाई फुले को याद करते हुए उनके जीवन चरित्र पर चर्चा कर रहे हैं।  

देश के कई राज्यों में बड़े धूमधाम से सावित्री बाई फुले की 191वीं वर्षगांठ मनाई गई। समाज का एक बड़ा वर्ग इन्हें आदर्श के रूप में भी मानता है परन्तु यह एक चिंतनीय विषय बनता जा रहा है कि जिस सावित्री बाई फुले ने महिलाओं की शिक्षा, सुरक्षा,और उनके निजी मौलिक अधिकारों की एक लम्बी लड़ाई को अपने कड़े संघर्षो से उन अनसुनी अनेक आवाज़ों को आवाज़ दी, जो उस ज़माने में एक सपने जैसा था पर आज 100 वर्ष से अधिक का वक्त गुज़र जाने के बाद भी हमारे देश में महिलाओं के लिए उनकी निजता का अधिकार, महिला मानवाधिकार और महिला शिक्षा आज भी सवालों के घेरे में है।

आज भी हमारे देश में महिलाओं से जुड़े हुए सवालों को कई महिला पत्रकारों, महिला वकीलों और महिला अधिकारों पर कार्य करने वाले संगठनों द्वारा उस वक्त से अधिक संसाधनों और आधुनिक सुविधाओं से लैस हो कर महिलाओं की आवाज़ को बुलंद किया जा रहा है, परन्तु हमारे देश में महिलाओं की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है।

भारत के NCRB के एक आंकड़े के अनुसार,  भारत में प्रतिदिन 77 रेप के मामले दर्ज़ होते हैं। इस तरह एक वर्ष में 7000 से भी अधिक मामले देश के विभिन्र थानों में दर्ज़ होते हैं। यदि भारत में महिला साक्षरता दर को देखा जाए तो यह 65.6% है जिसे हम बेहद बेहतर नहीं कह सकते परन्तु यह आशाजनक स्थिति में है। वहीं हम इसके दूसरे पहलू को देखते हैं, तो भारत में अब भी 145 मिलियन महिलाएं पढ़ने-लिखने में असमर्थ हैं।

इस आज़ाद भारत में महिलाओं के साथ बर्बरता की कहानी भी कोई नई नहीं है। आज भी भारतीय महिलाओं को डायन प्रथा (जो कि समाज में प्रचलित एक सामाजिक बुराई है) के नाम पर मारा जा रहा है, तो दहेज़ के नाम पर जलाया जा रहा है, बलात्कार के मामलों पर देश के राजनेताओं के जो चरित्र सबके सामने दिखे हैं, वह काफी शर्मशार और मानवता को तार-तार करने वाले रहे हैं, जिसकी स्थिति पूरे देश ने देखी है। वहीं पीड़ित महिला होने के साथ-साथ अगर दलित हो तो लोगों के पीड़ित के प्रति अपने नज़रिये भी बदल जाते हैं। 

जब हम महिला आज़ादी के दूसरे पहलू को देखते हैं, तो पाते हैं कि आज महिलाएं हर क्षेत्र में कदम बढ़ा चुकी हैं और वह सफल भी हैं। कला, साहित्य, फैशन, सिनेमा और न्यायपालिका, विधायिका से लेकर राजनीतिक बागड़ोर  भी अब महिलाओं के हाथों में है परन्तु यह एक विचारणीय बिंदु है कि क्या महिलाएं अपनी उन शक्तियों का प्रयोग सच्चे शब्दों के अर्थ में कर पा रही हैं? जो उन्हें मिली हुई हैं या उस पर भी किसी एक खास वर्ग का नियंत्रण तो नहीं, चाहे वह वैचारिक हो या फिर राजनैतिक? 

यह सवाल सिर्फ महिलाओं के बीच का नहीं है। यह सवाल भारत की जाति व्यवस्था पर भी उठता है, जहां पर किसी जाति विशेष को सिंहासन पर बैठा कर उनकी शक्तियों को जकड दिया गया है और उन्हें मात्र प्रदर्शनी के लिए उपयोग किया जा रहा है।

वैसे, ऐसे बहुत सारे सवाल हैं पर हम यहां यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि आज वर्तमान दौर में देश की राजनैतिक हालत हो या महिला अधिकार हों या फिर देश की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी के साथ उनके निर्णय हों और जो वर्ग यह सब संचालित कर रहा है, वह वर्ग कहीं महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित तो नहीं कर रहा है?

हम इस आलेख को देश के उन तमाम महिला अधिकार आन्दोलनों और वैचारिक आन्दोलनों को गति देने में एक कड़ी के रूप में आज सावित्रीबाई फुले जयंती पर समर्पित करते हैं।

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