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‘द ग्रेट इंडियन किचन’ : ज़ायका भारतीय स्त्री के जज़्बे का

‘द ग्रेट इंडियन किचन’ के एक दृश्य में पति, अपनी पत्नी के छूने पर नाराज़ हो जाता है और उसे दुत्कारता है, क्योंकि वह तो एक व्रत के चलते ब्रह्मचर्य के नियम का पालन कर रहा है।

औरत की यौन इच्छा से कतराता समाज

वहीं, पति अपनी पत्नी के दिन भर मशीन की तरह काम करने और अंग-अंग टूटने के बाद भी उससे ‘पत्नी धर्म’ के तहत अपनी यौन इच्छाओं को पूरा करने की उम्मीद करता है लेकिन दूसरी तरफ अपनी पत्नी की यौन इच्छाओं पर बात करने से भी कतराता है।

समाजशास्त्र का प्रोफेसर पति संभवतः पार्सन्स के ‘परिवार’ की परिभाषा में यकीन करता है। यह मेरी अभी तक की पहली मलयालम  फिल्म है मगर इसका बेहद समसामयिक स्क्रीनप्ले, कर्णप्रिय संगीत, बेहतरीन अभिनय और पितृसत्तात्मक परतों को कुरेदती कहानी और हां सिनेमेटोग्राफी!

सच में खाने को आकर्षक बनाने के पीछे औरतों की खपती ज़िन्दगी को दिखाना और  किरदारों को कोई खास नाम नहीं दिया जाना, यह अपने आप में अद्भुत है।

हर जगह औरतें ही क्यों?

एक भारतीय औरत से उम्मीद की जाती है कि वो बस पिसती रहे। पढ़ी-लिखी हो मगर चावल कुकर में नहीं, सीधे तपेले में पकाएं, क्योंकि ससुर जी को स्वाद जो चाहिए! वाशिंग मशीन से नहीं, हाथ से कपड़े धोए, अपाहिज की तरह ब्रश भी हाथ में औरत ही पकड़ाए।

पति तो योगा करके रिलैक्स हो जाए मगर पत्नी रात-दिन बस पति की सेवा करे। वो, प्राणायाम कैसे करे भला? क्योंकि औरतें घर में पिस रहीं हैं, तो आप खाना खाएं कम, टेबल बिखराएं ज़्यादा?

वो करेंगी ना साफ! पुरुषों के गंदे टेबल पर वहीं उनके बाद खाएंगीं वो मगर वो इसे प्वाइंट आउट भी नहीं कर सकतीं? पति परफेक्ट जीव है बस! और उसी किचन में दिन-रात एक करती औरत की सहूलियत के लिए पति असंवेदनशील हो और इग्नोर भी करे! है ना?

शारीरिक संबंध पर ही टिकी शादियां

सिर्फ शारीरिक सम्बन्धों से शादी का रिश्ता नहीं परिभाषित होता मगर दुर्भाग्य से संभवतः करोड़ों औरतें ऐसी ही ज़िंदगियां जी रही हैं।

फिल्म पीरियड, सबरीमाला मंदिर में  महिलाओं के प्रवेश पर सुप्रीम कोर्ट जजमेंट और केरल में मौजूद पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर बड़ी शांति से मगर विचलित करने वाली चीज़ों पर रौशनी डालती है।

जिस औरत के पीरियड्स के कारण ही दुनिया की रचना होती है, पुरुष का उद्भव और उसका सो कॉल्ड वंश बढ़ता है, उस पीरियड्स के दौरान उसे नीचे सोना पड़ता है, वो पूरी तरह अस्पृश्य हो जाती है।

हकीकत बयां करता आखरी हिस्सा

इन सबके बीच पत्नी, जो एक बेहतरीन डांसर है मगर शादी के नाम पर, एक पत्नी के नाम पर, वह सिर्फ एक नौकरानी का काम कर रही है और जब वो उस विषय में बोलती है, तो वही पुराना राग, देखो अपनी सास को! पोस्ट ग्रैजुएट है मगर बच्चों की परवरिश के लिए नौकरी नहीं की और वही नंगा नाच, जो धर्म और पितृसत्ता के ठेकेदारों ने इस देश में चला रखा है।

मुझे विद्या बालन की ‘तुम्हारी सुलु’ याद हो आई,  मुझे अस्तित्व और लज्जा याद हो आई और भारत के और दुनिया के हर एक कोने में व्यवस्थात्मक रूप से धर्म के नाम पर अधर्म करने वालों की भी!

मगर फिल्म के सबसे बेहतरीन हिस्से, फिल्म के आखरी दृश्य में हैं, जो आम भारतीय औरत के अंदर की ताकत,  रोंगटे खड़े करने वाले, भावविह्वल करने वाले जज़्बे की मिसाल है। अपनी पहचान को चुनने की ताकत, विद्रोह की ताकत, क्रांति की हिम्मत। 

यानि, यह एक बेहद ज़रूरी, कसी हुई, शानदार, यथार्थवादी फिल्म है, जो अवैतनिक कार्य के नाम पर घरेलू गुलामी का कुरूप चेहरा उघाड़कर रख देती है। लंबे अरसे बाद एक ऐसी फिल्म देखने को मिली है।

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