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प्रकृति और विज्ञान के विकास के सामंजस्य में महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय है

प्रकृति और विज्ञान के विकास के सामंजस्य में महिलाओं की भूमिका उल्लेखनीय है

विज्ञान की तरक्की के साथ ही लोगों के जीवन प्रक्रिया में भी बहुत परिवर्तन आ गया है। विज्ञान के नए-नए आविष्कारों और आधुनिक तकनीकों ने हमारी ज़िंदगी को बहुत ही आरामदायक और सुलभ बना दिया है। विकास की यह हवा अब देश के दूर-दराज़ ग्रामीण और पहाड़ी क्षेत्रों तक पहुंच चुकी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान समय में लोगों को जल- जंगल-ज़मीन के साथ-साथ अब विकास की ज़रूरत भी है। 

अब लोगों की सोच अपने मानव जीवन को अधिक सुलभ और आसान बनाने के लिए सुविधाओं के प्रति ज़्यादा है और यह वर्तमान समय की मांग भी है। पुराने ज़माने में लोगों को जल, जंगल और ज़मीन के प्रति बेहद प्यार था। आज से करीब 50 वर्ष पूर्व लोग वहां बसना पसंद करते थे, जहां पर पानी तथा जंगल हो और खेती करने की सुविधाएं हों। जंगलों से सबसे अधिक महिलाओं को प्यार था और हो भी क्यों ना, क्योंकि जंगल के नज़दीक होने से उनके सिर एवं पीठ का बोझ कम हो जाता था।  

लेकिन यदि अब हम वर्तमान समय पर नज़र डालें तो अब लोगों की सोच में बदलाव आ गया है। वर्तमान समय में लोगों को सुविधाओं से संपन्न आधुनिक मशीनें ज़्यादा पसंद आने लगी हैं जबकि यह वही पहाड़ी क्षेत्र है, जहां लोगों ने प्रकृति का साथ देते हुए क्रांतिकारी आंदोलन का नेतृत्व किया था। इस मामले में जनपद चमोली के मंडल घाटी के इतिहास की ओर हम एक नज़र डालें तो इस क्षेत्र में चिपको आंदोलन हो या शराब के खिलाफ आंदोलन, यहां की महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर इन आंदोलनों में अपनी महत्वूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था।

पर्यावरण संरक्षण में महिलाओं की भूमिका 

यह उल्लेखनीय है कि विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन का जन्म जनपद चमोली के रैणी तथा मंडल घाटी से हुआ था। इस आंदोलन में यहां की महिलाओं, बुज़ुर्गों एवं बच्चों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए इस क्षेत्र से वन माफियाओं को खदेड़ दिया था। महिलाओं को अपने जंगलों से इतना प्यार था कि वह इसे अपना मायका मानते हुए पेड़ों से चिपक गई थीं। इस आंदोलन में महिलाओं का साफ तौर पर कहना था कि यदि इन पेड़ों पर आरी चलानी है तो सबसे पहले उन पर आरी चलानी होगी।

यह चिंता सबके सामने थी कि यदि पेड़ कट जाएंगे तो इस क्षेत्र का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। इस आंदोलन के लिए सभी लोगों नेे एकजुट प्रयास करते हुए इस क्षेत्र की अपार संपदा को बचाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। 

पहले पहाड़ी क्षेत्र की महिलाएं जंगलों को अपना मायका मानती थीं 

इस आंदोलन से जुड़ी यादों को साझा करते हुए दशोली ब्लाक के मंडल घाटी स्थित कोटेश्वर गाँव की 55 वर्षीय गंगा देवी का कहना है कि पहले ज़माने में महिलाओं को जंगलो से बहुत प्रेम होता था। महिलाएं जंगलों को अपना मायका मानती थीं, जब लड़की की शादी की बात होती थी, तो उसके माता-पिता वहां आस-पास के जंगलों के बारे में पहले पूछा करते थे कि उसके ससुराल के आस-पास जंगल होगा तो हमारी बेटी को कष्ट कम होगा। कहीं हमारी बेटी को मीलों दूर जंगलों में घास के लिए ना जाना पडे़ इसलिए वैवाहिक कार्यक्रमों में यह पूछताछ का मुददा बना रहता था।

लेकिन आज के समय की बात करें तो आज लोगों को तमाम सुविधाएं प्राप्त हैं। आज के दौर में माता-पिता से लेकर लड़की भी यही चाहती है कि उसे अच्छी सुविधाएं मिलें और जल-जंगल-ज़मीन जैसे कार्यों को ना करना पडे़। इस सम्बन्ध में दशोली ब्लाक के बमियाल गाँव की 58 वर्षीय पार्वती देवी का कहना है कि हमने अपने गाँव में सड़क की सुविधा 10 वर्षों से देखी है। पहले हम करीब पांच किमी पैदल चलकर बाज़ारों को जाते थे और महीने में चार बार बाज़ार जाकर अपनी ज़रूरतों की चीज़ें लाकर अपने घरों में रख देते थे, तब महिलाओं को अपनी खेती, अपने जंगल तथा अपने पशुओं से बेहद प्यार रहता था, लेकिन वर्तमान समय की बहुएं इस ओर ध्यान नहीं देती हैं।

आज की बहुओं को सुख-सुविधाओं की ज़रूरत अधिक महसूस होती है। अपने समय का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मेरी शादी वमियाला गाँव में होने के कुछ सालों बाद मैं यहां की महिला मंडल की अध्यक्ष बनी। एक स्वयंसेवी संगठन के साथ जुड़कर हम लोग लगातार वृक्षारोपण कर अपने जंगलों की सुरक्षा स्वयं करते थे। इसका हमें यह लाभ मिला कि कुछ सालों बाद हमें गाँव के नजदीक ही चारापत्ती और जलावन के लिए लकड़ियां आसानी से उपलब्ध हो जाती थीं। इससे महिलाओं का श्रम भी बच जाता था और इससे समय बचने पर हम लोग अपनी खेती और घरों के अन्य कामों को करने में जुट जाते थे।

विज्ञान की आधुनिक सुख सुविधाओं ने हमारे पर्यावरण को तहस-नहस कर दिया है 

अब जब धीरे-धीरे विकास बढ़ रहा है तो सड़कों को काटने के चक्कर में हमारे कई पुराने जंगल नष्ट होते जा रहे हैं। इस अनियंत्रित विकास के कारण हमारे पौराणिक जल स्रोत भी सूख गए हैं, जिससे कई गाँवों में पेयजल का संकट गहराने लगा है। हालांकि, सड़क के कारण अन्य सुविधाएं तो बढ़ी हैं लेकिन महिलाओं का सिर एवं पीठ का बोझ और अधिक बढ़ता जा रहा है। उन्होंने कहा कि हम विकास के विरोधी नहीं हैं लेकिन विकास के नाम पर हमें अपने जंगलों का विनाश भी मंजूर नहीं हैं। इसी विनाश को रोकने के लिए ही इस क्षेत्र की महिलाएं चिपको आंदोलन के माध्यम से देश में नाम कमा चुकी हैं।

महिलाओं ने नशामुक्ति के लिए भी चलाया है शराबबन्दी आंदोलन 

कालांतर में इसी चिपको आंदोलन से सीख लेते हुए महिलाओं ने शराब के विरुद्ध आंदोलन चलाया है। इस क्षेत्र की महिलाएं सबसे अधिक शराब के बढ़ते नशे से परेशान थीं। इसके कारण घर में आए दिन शराब पीकर आने वाले अपने ही परिजनों से बेहद परेशान रहती थीं। यही नहीं कई महिलाओं और बच्चों ने इसके कारण यातनाएं भी सही हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि उत्तराखंड में शराब जैसे व्यवसाय से सरकार को सबसे अधिक राजस्व प्राप्त होता है और इसी राजस्व से सरकार अपने खर्चों को पूरा करती है।

गाँवों, कस्बों तथा शहरी क्षेत्रों के आसपास बनने वाली कच्ची शराब से गाँवों का माहौल निरन्तर खराब होता जा रहा था। सस्ती दरों पर कच्ची शराब मिलने से आसानी से गाँवों के लोगों तक इसकी पहुंच होने लगी थी, जिसके बाद एक बार फिर इस क्षेत्र की महिलाओं द्वारा क्षेत्र में कच्ची शराब बनाए जाने पर रोक लगाने के लिये एकजुट प्रयास किया गया था।

इस आंदोलन की शुरूआत मंडल घाटी के देवलधार की महिलाओं द्वारा की गई थी। देवलधार की प्रधान सुमन देवी के नेतृत्व में कई महिलाओं ने नरोंधार मे सैकड़ों लीटर कच्ची शराब तथा उसे बनाने वाले पदार्थों को नष्ट कर दिया था। इसके बाद इस आंदोलन में क्षेत्र के लोगों का भरपूर सहयोग मिला और इसे तेज़ किए जाने के लिए रणनीति बनाई गई। इस आंदोलन में ग्वाड़, देवलधार, दोगड़ी कांडई, बैरागना, कुनकुली, मकरोली, भदाकोटी, खल्ला, मंडल, वणद्वारा, सिरोली, कोटेश्वर,की महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर प्रतिभाग करते हुए आगे से इस क्षेत्र में कच्ची शराब बनाने के विरुद्ध व्यापक आंदोलन किए जाने का निर्णय लिया।

यहां गढ़सेरा में आयोजित बैठक में महिलाओं का कहना था कि इस प्रकार से कच्ची शराब बनाकर इस क्षेत्र के नौजवानों, बच्चों तथा परिवार पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है, जिससे कई परिवार उजड़ गए हैं। इसलिए इस क्षेत्र में इस प्रकार के व्यापार पर अंकुश लगाया जाना आवश्यक है।

चमोली के स्थानीय प्रशासन ने महिलाओं के इस कदम को सराहनीय माना 

इस आंदोलन को चमोली के तत्कालीन ज़िलाधिकारी डॉ. रंजीत सिंह ने सराहनीय कदम बताते हुए कहा कि क्षेत्र की जनता की एकजुटता के कारण इस प्रकार के अवैध व्यापार और धंधों को बंद किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि ऐसे परिवारों को समाज के साथ मिलकर स्वयं को समृद्धशाली बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। उन्होंने भी आबकारी अधिकारी को क्षेत्र में बनने वाली कच्ची शराब के लिये व्यापक रूप से चेकिंग किए जाने के निर्देश जारी किए थे।

महिलाओं के इस आंदोलन की सफलता यह रही कि इस आंदोलन के बाद अधिकतर सामाजिक कार्यो में महिलाओं ने शराब को परोसने वाले परिवारों से आर्थिक दंड का प्रावधान किया और इससे कुछ हद तक ग्रामीण क्षेत्रों में शराब पर प्रतिबंध लगा। इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता महिलाओं को यह मिली कि क्षेत्र में बन रही कच्ची शराब के कारण यहां युवा और बच्चे इसके चंगुल में फंस कर अपना जीवन बर्बाद कर रहे थे,लेकिन अब कच्ची शराब के अड्डे बंद होने के कारण अब युवा इससे दूर हैं।

महिलाओं की कोरोना जन जागरूकता में महत्वपूर्ण भूमिका 

कोरोना महामारी के इस दौर में महिलाओं की भूमिका एक बार फिर से महत्वपूर्ण हो गई है। कोरोना के प्रकोप से ना केवल उन्हें स्वयं बचना है बल्कि अपने गाँव को भी बचाना है। वहीं सरकार द्वारा कोरोना टीकाकरण को सफल बनाने में भी इन महिलाओं की भूमिका असरदार साबित हो सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कोरोना टीके के खिलाफ फैली अफवाहों को दूर करने में महिलाओं की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है।

अब ज़रूरत है सरकार और स्थानीय जनप्रतिनिधियों को इस दिशा में पहल करने और ग्रामीण महिलाओं को इस काम में आगे लाने की। महिलाएं जब पेड़ बचा सकती हैं और शराब माफियाओं के खिलाफ सफल आंदोलन चला सकती हैं, तो कोरोना टीकाकरण को भी सफल बना सकती हैं।

नोट- यह आलेख गोपेश्वर, उत्तराखंड से महानंद बिष्ट ने चरखा फीचर के लिए लिखा है। 

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