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“भारतीय समाज में छुआछूत का पैमाना और राजनैतिक दिखावे की कोरी समानता”

"भारतीय समाज में छुआछूत का पैमाना और राजनैतिक दिखावे की समानता"

किसी दलित या अन्य किसी निम्न जाति के घर खाना खाना या ना खाना यह आपका पूर्णरूप से व्यतिगत मसला है और इसे न्यूज़ हेडलाइन बनाना एक राजनीतिक मसाला है।

भारत में छुआछूत एक ऐसी बीमारी है जिसका आज तक कोई इलाज़ नहीं ढूंढ पाया है, हां छुआछूत के नाम पर राजनैतिक नेताओं ने अपने भविष्य ज़रूर संवार लिए हैं। अभी कुछ दिनों पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने छुआछूत को लेकर काफी बागी तेवर दिखाए थे, जबकि वहीं अभी कुछ समय से तमाम राजनैतिक पार्टियों द्वारा किसी दलित के घर तो किसी आदवासी समुदाय के घर खाना खाने की तस्वीरें लगातार सोशल मीडिया पर आ रही हैं।

ऐसी स्थिति को देखने के बाद जब हम छुआछूत और राजनीति का आकलन करते हैं, तो पाते हैं कि कहीं-ना-कहीं छुआछूत हमारे समाज एवं अंतर्मन से समाप्त ना होने देना भी एक राजनीति ही है, क्योंकि इसी के बल पर कई राजनैतिक दल अपना भविष्य देख रहे हैं जब मैं राजनीति से इतर छुआछूत के कारणों को देखता हूं, तो पाता हूं कि यह महज़ एक मानसिक विकार है जो लोगों के मन में बसा हुआ है और इसको दूर करने के लिए किए गए सभी आवश्यक कार्य केवल और केवल खाई को और चौड़ा करने के उद्देश्य से किए गए हैं।

मुझे याद है कि मैं शायद छह या सात साल का था। मेरे घर के सामने ही स्थित प्राथमिक विद्यालय से निकलते वक्त किसी साइकिल वाले ने मुझे धक्का मार दिया था और घुटने के नीचे मेरी हड्डी टूट गई थी। मुझे बीएचयू में भर्ती किया गया और प्लास्टर वगैरह सब कुछ हुआ, क्योंकि छोटे बच्चों की हड्डी कमज़ोर होती है इसलिए कैल्शियम की अधिकता हेतु डॉक्टर ने मेरे परिजनों से मुझे अंडा खिलाने को कहा, मेरे घर का माहौल अलग था। 

मेरे घर में कोई नॉनवेज खाने वाला नहीं था फिर भी कहते हैं ना कि आवश्यकता पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। घर वालों ने एक बार रात में मुझे सोए हुए अंडा खिला दिया लेकिन वही अंडा फिर मुझे खाने के लिए सुबह में लाया गया था, तो उससे एक अजीब प्रकार की गंध आ रही थी और मैंने उसे देखते ही फेंक दिया था।

खैर, ये एक पुरानी बात थी जिसको गुज़रे हुए अब एक दशक से ज़्यादा का वक्त बीत गया और तब से अब मुझ में शारीरिक एवं मानसिक रूप से बहुत परिवर्तन आ चुका है, तब उस समय उसे अंडे से मुझे अजीब गंध आ रही थी, लेकिन अब अंडे खाते समय मुझे उससे कोई अजीब सी गंध नहीं आती है, तब उस समय मैंने नींद में अंडा खाया था, अब उसे कई बार मैं जगे हुए भी खा चुका हूं लेकिन इतने वक्त के बाद भी जो एक चीज़ स्थाई है, वह है मेरे परिवार का स्वरूप। 

मेरे परिवार में पहले भी कोई अंडा नहीं खाता था और आज भी कोई नहीं खाता है। मेरी माताजी पहले भी कहीं अपने आसपास अंडा बनते हुए या मुर्गा कटते हुए देखकर उल्टियां करने लगती थीं और आज भी यह चीज़ उनके साथ होती है।

वो पहले भी बिना अपने हाथ-पैर साफ किए बिना किचन में नहीं जाती थीं और आज भी नहीं जाती हैं। यदि मैं आज के दिन उन्हें समानता और स्वीकार्यता का पाठ पढ़ाते हुए यह बतलाऊं कि ये अंडा और मुर्गा भी हमारे फूडचेन के प्रमुख हिस्सा हैं और वे खाने योग्य हैं, तो कहीं-ना-कहीं हम उनके अधिकारों के साथ हस्तक्षेप कर रहे हैं।

यदि किसी की स्वीकार्यता किसी के साथ खाने या ना खाने के आधार पर निर्धारित हो रही है, तो फिर सबसे पहले इस समाज से शाकाहारी, मांसाहारी और सर्वाहारी जैसे विशेषणों को मिटाना होगा और सबको एक ही भोजन के लिए प्रेरित करना होगा लेकिन हम सभी जानते हैं कि यह कभी संभव नहीं है, क्योंकि खाने वाले और ना खाने वाले दोनों के पास अपने-अपने कारण हैं इसलिए किसी भी प्रकार का दवाब व्यर्थ में बहस को बढ़ावा ही देगा और उससे कोई समुचित समाधान नहीं निकलेगा।

यह तो रही साधारण सी हमारे खाने-पीने की बात लेकिन समाज में व्याप्त छुआछूत और अन्य पहलुओं का आखिर मूल कारण क्या है? आखिर हमारे समाज में दलित या निचली जाति के व्यक्ति द्वारा छुए हुए पानी को नहीं पीने के क्या कारण हैं?

यह एक लंबा विमर्श है जिस पर बात होनी चाहिए लेकिन राजनीतिक गिद्धों ने एक साधारण से मसले को भारत का सबसे पेचीदा मसला बना दिया है। आज आप छुआछूत की बात करते हैं, तो लोग आपको मनुवाद और ना जाने कितनी ही तथाकथित उपमाओं से नवाज़ देंगे।

आखिर जो व्यक्ति मांस-मदिरा ना खाता-पीता हो उससे हम यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह समस्त मांस-मदिरा वालों के साथ बैठकर शाकाहारी भोजन करने लगे? क्या उस व्यक्ति के अधिकार नहीं हैं, जो शाकाहारी व्यक्ति के हैं?

मैं अपने गाँव में आज भी देखता हूं कि पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं के अंदर छुआछूत है और इसके पीछे के उनके कारण भी विचारणीय हैं। उनका सीधा कहना है कि हम खिला देंगे लेकिन खाएंगे नहीं, क्योंकि वो पता नहीं क्या-क्या बनाकर खाते हैं? अब ऐसे में जब वो अपने शाकाहारी आहार और स्वच्छता की कसौटी पर खरा उतरने हेतु इन चीज़ों से बच रही हैं, तो इस पर विचार क्यों नहीं होना चाहिए?

मैं कई सवर्ण परिवारों के लोगों को भी जानता हूं, जो मांस-मदिरा का सेवन खूब करते हैं और बताते हैं कि उन्होंने इसके लिए अलग से बर्तन निकाले हुए हैं। इस हिसाब से तो यह भी छुआछूत ही हुआ लेकिन इसका रंग कुछ और है।

कहीं-ना-कहीं ग्रामीण क्षेत्रों में व्याप्त छुआछूत की एक मुख्य वजह आज भी खान-पान ही है जब तक खान-पान नहीं बदल जाता है, तब तक एक साथ बैठकर खाने की परिकल्पना व्यर्थ है, क्योंकि मैंने कई ऐसे सवर्णों को देखा है, जो सवर्णों का दिया भोजन ही कुत्ते और गाय को डाल देते हैं और इसकी प्रमुख वजह यही रहती है कि अरे, उसके घर में मांस-मछली सब बनाता है जबकि जिनके घर मांस-मदिरा सेवन होता है। वो ऊंच-नीच सबके घर के खाने को सहज़ता से स्वीकारते हैं। आखिर इसमें भी कहीं-ना-कहीं जातिगत भेदभाव से ज़्यादा खान-पान का असर ही छुआछूत को बढ़ाने का प्रमुख कारण है।

मुझे अपनी आंखों देखा एक वाकया याद है कि एक निचली तबके का लड़का एक घर में सहज़ता से खाता था और वो सबकी नज़रों में शाकाहारी था इसलिए वहां सब को उससे कोई आपत्ति नहीं थी, सब जिस थाली में खाते थे, वो भी उनके साथ ही में खाता था, लेकिन तभी एक दिन उस घर की मालकिन को पता चला कि वो मांसाहारी है, तब से उसके लिए अलग बर्तन निकाल दिए गए थे।

मुझे यह बात कतई प्रिय नहीं थी और ना ही वह जातीय निम्नता की ओर बढ़ा था, लेकिन एक खान-पान का कारण ही था, जो लड़का किसी थाली में खाना खा सकता था, अब उसके लिए उस घर में ही अलग बर्तन निकल गए, तो कहीं-ना-कहीं आज भी खान-पान की विषमता छुआछूत का एक प्रमुख कारण है और यदि कोई नेता किसी दलित के हाथ का या किसी दलित के साथ का खाना खाते हुए बहुत ही सहज़ता से उसकी तस्वीर शेयर कर रहा है, तो वह कोई बहुत महानता का कार्य नहीं कर रहा है।

यह एक सहज़ स्वीकार्यता है यदि आप सहज महसूस कर रहे हैं, तो बेझिझक होकर खाइए लेकिन दिखावे के उद्देश्य से उनकी थालियों से अपने लिए अलग पत्तल निकालकर तस्वीर खिंचाना कहीं-ना-कहीं और ज़्यादा इस खाई को बढ़ाने का कार्य कर रहा है।

अतः साथ में खाने को स्वीकार्यता का पैमाना बनाने के बजाय उनके सुख-दुःख में भागी बनने को पैमाना बनाया जाए, तो शायद इस खाई को जल्दी पाटा जा सकता है और साथ-ही-साथ अपने स्वेच्छा से कोई शाकाहारी, कोई मांसाहारी और कोई सर्वाहारी बनकर अपना जीवनयापन कर सकता है। इससे परस्पर प्रेम भी बना रहेगा और एक-दूसरे के शाकाहार और सर्वाहार की स्वच्छंदता भी बनी रहेगी।

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